अगर किसी व्यक्ति से यह पूछा जाए कि उसे सतत विकास पसंद है या विनाशकारी विकास, तो लाजिमी तौर पर कोई भी सतत विकास ही चुनेगा। सतत विकास में ज्यादा समय, बड़े बदलाव और ज्यादा पैसे खर्च होने की संभावना होती है, ऐसे में लोग सतत विकास के बदले विनाशकारी विकास की ओर न चाहते हुए भी भागते हैं। इसके शुरुआती परिणाम तो बेहतर होते हैं लेकिन भविष्य चौपट हो जाता है। उदाहरण के तौर पर देख सकते हैं कि गाड़ियां धुआं उड़ा रही है और बायो कार्बन के प्रकोप से सांस लेना दूभर हो रहा है। मौजूदा समय में भारत की स्थिति भी कुछ वैसी ही है। भारत लगभग ऐसे ही विकास पर निर्भर हो चुका है। हाल ही में एक चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आई है जिसमें कहा गया है कि भारत अगर अपने प्रोडक्टिविटी को नहीं देखता है, तो बहुत जल्द देश में भुखमरी की नौबत आ जाएगी। वैसे भी हमारा देश ग्लोबल हंगर इंडेक्स की 107 देशों की सूची में 94वें स्थान पर है।
मोदी सरकार इन सभी मामलों से निपटारा पाने के लिए लगातार बड़े फैसले ले रही है। बायो कार्बन के मसले को ध्यान में रखते हुए मोदी सरकार पेट्रोल को “इथेनॉल सम्मिश्रण कार्यक्रम” (Ethanol Blending Programme- EBP) के तहत लाने की कोशिशों में लग गई है, जिससे भविष्य की पीढ़ी चैन की सांस ले सके। तो दूसरी ओर भारत सरकार ने प्रोडक्टिविटी पर भी काम करना शुरु कर दिया है। नए कृषि कानून के कुछ भाग भी इसी से जुड़े हुए हैं। जिन्हें जमीन पर लागू कर प्रोडक्टिविटी बढ़ाई जा सकती है, सप्लाई चेन को बेहतर किया जा सकता है और भुखमरी की समस्या से भी निजात पाया जा सकता है।
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इथेनॉल, भूख की चुनौती और भारत
भारत स्वच्छ ऊर्जा के लिए “इथेनॉल सम्मिश्रण कार्यक्रम” के तहत 2025 तक इथेनॉल के साथ अपने ईंधन का 20 प्रतिशत सम्मिश्रण प्राप्त करने का लक्ष्य लेकर चल रहा है। इसमें बड़ा बदलाव यह होगा कि चीनी मिलों को प्रोत्साहित कर इथेनॉल का उत्पादन किया जाएगा। भारत की योजना 2022 तक 10% इथेनॉल ब्लेंडिंग वाला पेट्रोल बेचने की है। इसके लिए करीब 4 अरब लीटर एथेनॉल की जरूरत होगी। 2023 तक 20% इथेनॉल ब्लेंडिंग का लक्ष्य हासिल करने के लिए 10 अरब लीटर इथेनॉल की जरूरत होगी, जो वर्तमान उत्पादन को तीन गुना करने पर प्राप्त होगा।
इथेनॉल के इस्तेमाल से 35 फीसदी कम कार्बन मोनोऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। इतना ही नहीं यह कार्बन मोनोऑक्साइड उत्सर्जन और सल्फर डाइऑक्साइड को भी कम करता है। इसके अलावा इथेनॉल हाइड्रोकार्बन के उत्सर्जन को भी कम करता है। इथेनॉल फ्यूल को इस्तेमाल करने से नाइट्रोजन ऑक्साइड उत्सर्जन में कमी आती है। हालांकि, इथेनॉल का उत्पादन करने के लिए घरेलू चीनी का उपयोग राष्ट्र की खाद्य सुरक्षा को नुकसान पहुंचा सकता है।
10 अरब लीटर इथेनॉल उत्पादन के लक्ष्य को पूरा करने के लिए चीनी के एक बड़े हिस्से को संसाधित कर इस्तेमाल करना होगा। उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय ने कहा है कि सरकार 2025 तक सालाना लगभग 60 लाख टन चीनी को डायवर्ट करना चाहती है। यह आंकड़ा बड़ा है क्योंकि डायवर्ट की जाने वाली चीनी की मात्रा एक वर्ष में भारत के कुल चीनी निर्यात के बराबर है। इस डायवर्जन से भारत में खाद्य पदार्थ की कीमतों में इजाफा देखने को मिल सकता है। अर्थव्यवस्था के बुनियादी नियमों में कहा गया है कि अगर मांग, आपूर्ति से अधिक हो जाती है तो ज्यादातर मामलों में वस्तु की कीमत बढ़ जाती है।
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यहां यह भी नहीं भूलना होगा कि खाद्य सुरक्षा के मामले में भारत सबसे खराब देशों में से एक है। “ग्लोबल हंगर इंडेक्स” की रिपोर्ट के मुताबिक भारत 2020 में खाद्य सुरक्षा के मामले में 107 देशों की सूची में 94 वें स्थान पर था। तब देश को 27.2 के स्कोर पर अनुक्रमित किया गया, यह स्थिति गंभीर स्तर की मानी जाती है। खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) का अनुमान है कि 2018 और 2020 के बीच लगभग 209 मिलियन भारतीय या इसकी लगभग 15% आबादी कुपोषित थी।
हालांकि, सरकार स्वच्छ ऊर्जा के साथ-साथ भारत के किसानों का भी भला चाहती है और इसीलिए यह कदम उठा रही है। सरकार का तर्क है कि नए लक्ष्य से दुनिया के तीसरे सबसे बड़े तेल उपभोक्ता को कच्चे आयात में कटौती, कार्बन उत्सर्जन कम करने और किसानों की आय को बढ़ावा देकर सालाना 300 अरब रुपये (4 अरब डॉलर) बचाने में मदद मिलेगी।
भारत की उत्पादक क्षमता
भारत के पास चीन की तुलना में अधिक कृषि योग्य भूमि, कुल सिंचित क्षेत्र तथा सकल बुआई क्षेत्र है। इसके बावजूद भारत, चीन से कृषि उत्पादन के मामले काफी पीछे है। अगर भारत को इथेनॉल की ओर जाना होगा तो उसे उत्पादन क्षमता बढ़ानी होगी जो कि भारत में काफी कमजोर है।
2019-20 के अनुमान के मुताबिक देश में कुल खाद्यान्न उत्पादन रिकॉर्ड 291.95 मिलियन टन होने का अनुमान था। हम इसके आस-पास भी पहुंच गए लेकिन यह खुश होने वाली खबर नहीं है क्योंकि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के अनुमान के मुताबिक 2030 तक देश में खाद्यान्न की मांग बढ़कर 345 मिलियन टन हो जाएगी।
दरअसल, भारत 44 मिलियन हेक्टेयर भूमि से एक वर्ष में 106.19 मिलियन टन चावल का उत्पादन करता है। यहां प्रति हेक्टेयर 2.4 टन की उपज दर है, जो भारत को 47 देशों में 27वें स्थान पर रखता है। चीन और ब्राजील की उपज दर क्रमशः 4.7 टन/हेक्टेयर और 3.6 टन/हेक्टेयर है। अगर भारतीय कृषि उत्पादकता चीन और ब्राजील के समान होती, तो भारत क्रमशः 205.52 मिलियन टन और 160.01 मिलियन टन चावल का उत्पादन कर सकता है।
अगर गेहूं के उत्पादन की बात करें तो भारत में इसका दर 3.15 टन/हेक्टेयर है। भारत 29.65 मिलियन हेक्टेयर से 93.51 मिलियन टन गेंहू के उत्पादन के साथ 41 देशों की सूची में 19वें स्थान पर है। इस क्षेत्र में भी भारत, दक्षिण अफ्रीका (3.4 टन/हेक्टेयर) और चीन (4.9 टन/हेक्टेयर) से पीछे हैं। यदि भारत की गेहूं उत्पादकता इन देशों के स्तर पर होती, तो भारत क्रमशः 101.22 मिलियन टन और 147.53 मिलियन टन गेहूं का उत्पादन करता।
इस क्षेत्र में भारत के पिछड़ने के कई बड़े कारण हैं। भारत में किसानों के पास इतनी पूंजी नहीं है कि वह उन्नत तकनीक का इस्तेमाल कर सके। भारत में किसानों की उत्पादन क्षमता इसलिए भी कम है क्योंकि भारत में ज्यादातर किसानों के पास जमीन के बड़े हिस्से नहीं है। देश में 85% भारतीय किसान ऐसे है जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम भूमि है।
ऐसी कमजोर उत्पादन क्षमता के बाद इथेनॉल पर जाना मुश्किल काम है। सरकार भी चाहती है कि इस समस्या का समाधान ढूंढा जाए क्योंकि स्वच्छ ऊर्जा के लिए दुनिया भर के देश लक्ष्य तय कर चुके हैं।
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कृषि कानून है इसका समाधान
नए कृषि कानून के प्रमुख प्रावधानों का उद्देश्य छोटे और सीमांत किसानों (कुल किसानों की 85% आबादी) की मदद करना है। यह वो किसान है जिनके पास अपनी उपज का बेहतर कीमत पाने के लिए सौदेबाजी करने या खेतों की उत्पादकता में सुधार के लिए प्रौद्योगिकी में निवेश करने का साधन नहीं है।
नए कृषि कानूनों के तहत जब निवेशक किसी के खेत में निवेश करेगा तो उसकी पहली प्राथमिकता होगी ज्यादा से ज्यादा उत्पादन करना। इसके लिए वह किसानों के जमीन में उन्नत तकनीक का इस्तेमाल करेगा। इससे उन किसानों को लाभ मिलेगा जो पैसों के अभाव में खेत खाली छोड़ देते हैं।
सरकार द्वारा पेश किए गए नए सुधारों से सरकार द्वारा लाए गए आवश्यक वस्तु अधिनियम (ईसीए) कानून भी उत्पादन क्षमता को विकसित करेगा। इस कानून के चलते कुशल आपूर्ति श्रृंखलाओं को भी बढ़ावा मिलेगा। जब किसानों के पास अपने हिसाब से फसल बेचने की सुविधा उपलब्ध होगी तब वह उन्हीं चीजों का ज्याद से ज्यादा उत्पादन करेंगे, जिससे उन्हें ज्यादा से ज्यादा लाभ मिल सके।
कृषि कानूनों के तहत प्रौद्योगिकी, नियामक परिवर्तन और खेती के नए तरीकों से किसान खुद को गरीबी से बाहर निकाल सकेंगे और अच्छा लाभ कमा सकेंगे। इस कानून के जरिए निजी क्षेत्र के बड़े खिलाड़ियों और किसानों के हुनर से भारत एक साथ तीन लक्ष्य प्राप्त कर लेगा। पहला, किसानों की आय काफी अच्छी हो जाएगी। दूसरा, भारत की उत्पादन क्षमता बढ़ेगी और तीसरा यह कि बढ़े हुए उत्पादन क्षमता से भारत स्वच्छ ऊर्जा के लक्ष्य को प्राप्त करते हुए इथेनॉल पर भारतीय गाड़ियों को निर्भर बना देगा।