प्रतापगढ़ का युद्ध
इतिहास बदलने हेतु कभी-कभी एक एक छोटा कदम भी बड़ा महत्वपूर्ण माना जाता है। ऐसा ही एक कदम सन् 1659 में भी उठाया गया था, जिसने न केवल एक व्यक्तित्व के विशाल विरासत की स्थापना की, अपितु हमारे भारतवर्ष के इतिहास को भी सदैव के लिए पलट दिया। उसी दिन भारत का द्वितीय स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ हुआ, जिस युद्ध का साक्षी बना प्रतापगढ़ का दुर्ग और जहां से भारत के सबसे वीर योद्धाओं में से एक छत्रपति शिवाजी महाराज का उदय हुआ।
पर ये प्रतापगढ़ का युद्ध था क्या, यह क्यों हुआ? इसके महत्व का आभास होना आज भी हमारे देश के लिए क्यों आवश्यक है? इसके पीछे अनेक कथाएँ हैं, लेकिन इससे पूर्व हमें इस मिथक को भी तोड़ना है कि आखिर क्यों 1857 हमारा पहला स्वतंत्रता संग्राम नहीं था? 1857 निस्संदेह पहला स्वतंत्रता संग्राम था, परंतु वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध था। इससे पूर्व दो सम्पूर्ण भारत में साम्राज्यवादी शक्तियों के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर विद्रोह हुआ – एक 1336 में तुर्की सल्तनत के विरुद्ध और दूसरा 1659 में मुगल साम्राज्य के विरुद्ध प्रतापगढ़ का युद्ध हुआ।
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10 नवंबर 1659 को मुगल साम्राज्य के विरुद्ध प्रतापगढ़ में विद्रोह की वो ज्वाला भड़क उठी, वह युद्ध जिसने मुगल साम्राज्य के विध्वंस की नींव रखी। औरंगज़ेब को भारत की कमान संभाले एक वर्ष भी नहीं हुआ था, लेकिन उसके अत्याचारी शासन से जनता त्राहिमाम कर उठी थी। वामपंथी इतिहासकारों ने आपको मुगल साम्राज्य के वैभव के बारे में चाहे जो पोल पट्टी पढ़ाई हो, परंतु उसकी वास्तविकता इससे ठीक उलट थी।
इसीलिए जब ओम राऊत ने ‘तान्हाजी – द अनसंग वॉरियर’ में मुगल साम्राज्य की वास्तविकता को पहली बार बिना किसी लाग लपेट के चित्रित किया, तो कट्टरपंथी और वामपंथी उबल पड़े थे। मुगल साम्राज्य में अत्याचार किस स्तर तक होता था, उसे भी ‘तान्हाजी – द अनसंग वॉरियर’ में एक महत्वपूर्ण संवाद में समाहित किया गया, जहां सूबेदार ताणाजी मालुसारे क्रोध में कहते हैं,
“वैसे भी कहाँ ज़िंदा हो? सर झुकाकर तो चलते हो! दिन के उजाले में तुम्हारी माँ बहनें बाहर नहीं निकल सकती, तुम्हारी आँखों के सामने तुम्हारे जानवरों को खींचकर ले जाते हैं, ब्राह्मण पूजा नहीं कर सकते, किसान खेती नहीं कर सकते, यहाँ तक कि मुर्दों को ले जाते वक्त खुलकर श्रीराम का नाम नहीं ले सकते और कहते हो ज़िंदा हो? और कितनी मौतें मरोगे? वहाँ आलमगीर काशी विश्वनाथ तोड़ता है, यहाँ उदयभान काशी को ‘मारता’ है!”
लेकिन मुगलों के ऐसे अत्याचार को एक व्यक्ति किसी भी स्थिति में स्वीकारने को तैयार नहीं था और वो थे शिवाजी राजे भोंसले, जो बाद में छत्रपति शिवाजी महाराज के रूप में प्रसिद्ध हुए। पुणे के निकट स्थिति शिवनेरी दुर्ग में सन् 1627 में शिवाजी महाराज का जन्म हुआ, उनके पिता शाहजी भोंसले ने अहमदनगर के सुल्तान की सेना में सैनिक के रूप में अपना जीवन प्रारम्भ किया था और योग्यता बल पर धीरे-धीरे उच्च पद प्राप्त किया, जो मुगल साम्राज्य के अधीन थी।
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15 वर्ष की आयु में कर लिया था तोरण दुर्ग पर कब्जा
शिवाजी महाराज प्रारंभ से ही अत्याचार को सहने वाले व्यक्तियों में से नहीं थे। उन्हें प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा अपनी मां जीजाबाई भोंसले से मिली, शिवाजी के व्यक्तित्व को तराशने में उनकी एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। मात्र 15 वर्ष की आयु में अपने कुछ साथियों के साथ शिवाजी राजे ने तोरण दुर्ग पर आधिपत्य जमाया, और उसके बाद धीरे- धीरे उन्होंने अन्य दुर्गो को भी स्वतंत्र करना प्रारंभ किया, जिससे आदिलशाही सल्तनत चकित हो गया। अपने आप को घिरता हुआ देख कर आदिलशाही सल्तनत ने शिवाजी के पिता, शाहजी भोंसले को बंदी बना लिया, जिसके कारण शिवाजी को कुछ दुर्ग वापस करने पड़े। परंतु उन्होंने जो स्वतंत्रता का युद्ध प्रारंभ किया, वो यूं ही नहीं खत्म होने वाली थी।
जिन साथियों के साथ उन्होंने एक स्वतंत्र भारत, एक ‘हिंदवी स्वराज्य’ का स्वप्न देखा था, उसके लिए उन्हें आभास था कि उन्हें हर स्थिति के लिए पूर्व से ही तैयारी करनी पड़ेगी। जिसके लिए एक ओर उन्होंने योद्धाओं के रूप में नेताजी पालकर, हम्बीर राव मोहिते, प्रताप राव गुर्जर, ताणाजी मालुसारे जैसे लोग चुने, तो दूसरी ओर उन्होंने बहिर्जी नायक जैसे गुप्तचर भी चुने, जो शत्रुओं के बीच में से उनकी गुप्त जानकारियाँ प्राप्त करने में निपुण थे।
प्रतापगढ़ में किया अफ़ज़ल खान का संहार
आखिरकार सन् 1658 में शिवाजी महाराज का प्रादुर्भाव हुआ, जब उन्होंने पुनः अपने स्वप्न को साकार करने की दिशा में कार्य प्रारंभ किया। एक बार फिर उनका सामना आदिलशाही से हुआ। सुल्तान मोहम्मद आदिलशाह भले ही नहीं रहे, परंतु उनकी बेगम कम खूंखार नहीं थी और उन्होंने अपने विश्वासपात्र, अफ़जल ख़ान को शिवाजी का संहार करने के लिए भेजा।
अफ़जल ख़ान ने शिवाजी राजे के दुर्गों पर धावा बोला और निर्दोषों पर काफी अत्याचार भी ढ़ाया। शिवाजी महाराज को आदिलशाही की सेना ने प्रतापगढ़ के दुर्ग के निकट घेर लिया, जहां शिवाजी ने अफ़जल ख़ान को ‘संधि’ के लिए मनाया। परंतु बहिर्जी नायक से मिली सूचनाओं और विदेशी आक्रान्ताओं के विश्वासघाती स्वभाव को संज्ञान में लेते हुए शिवाजी महाराज भली भांति जानते थे कि बिना प्रतिघात के स्वतंत्रता के युद्ध में एक पग आगे नहीं बढ़ा जा सकता। 10 नवंबर 1659 को शिवाजी महाराज और अफजल खान की भेंट का दिन निश्चित हुआ ।
संधि के लिए शिवाजी महाराज ने अफ़जल के निर्देशानुसार एक शामियाने में मिलने का निर्णय किया, जहां केवल एक व्यक्ति और एक अंगरक्षक को साथ आने की अनुमति थी। परंतु शिवाजी महाराज पहले से ही तैयार थे। अपना बिछुआ और बाघनख अपने कवच के साथ धारण कर वो अफ़जल से मिलने प्रतापगढ़ दुर्ग के निकट शामियाने में पहुंचे। अफ़जल ने शिवाजी को गले मिलने के लिए बुलाया, परंतु जैसे ही शिवाजी महाराज उसके निकट पहुंचे, अफ़जल ने उन्हें जकड़ लिया।
लेकिन पहले से ही सतर्क शिवाजी महाराज ने अपने बाघनख से उसकी पीठ पर प्रहार किया, उसके बाद जब अफ़जल ख़ान ने प्रतिघात में अपनी कटार चलाई, तो शिवाजी ने अपने बिछुआ से उसके पेट पर वार किया और अफ़जल खान की आंतें फाड़ डाली। अफ़जल ख़ान किसी तरह अपने सहयोगियों के सहारे बाहर निकला, परंतु शिवाजी महाराज के विश्वासपात्र, संभाजी कविजी कोणढालकर ने अफ़जल ख़ान का सर धड़ से अलग कर दिया। इसके साथ ही आदिलशाही की जो सेना शिवाजी का नाश करने आई थी, उल्टे उसी का सर्वनाश करके ‘हिंदवी स्वराज्य’ की नींव स्थापित हुई। शायद इसीलिए कहा गया है-
‘तेज तम अंस पर, कान्ह जिमी कंस पर,
त्यों म्लेच्छ वंस पर, सेर सिवराज है’
जय भवानी, जय शिवाजी!