काशी हिंदू विश्वविद्यालय का उर्दू विभाग इन दिनों विवादों के घेरे में है। पाकिस्तान के निर्माण के पीछे वैचारिक आधार तैयार करने वाले उर्दू शायर अल्लामा इकबाल के जन्मदिन के अवसर पर आयोजित एक सेमिनार का पोस्टर जारी करते हुए उर्दू विभाग ने विश्वविद्यालय के संस्थापक महामना पं० मदन मोहन मालवीय का ही अपमान कर दिया। फेसबुक पेज पर जारी किए गए पोस्टर में मालवीय जी की तस्वीर को ही गायब कर दिया गया। उनकी तस्वीर के स्थान पर अल्लामा इकबाल का चित्र लगा दिया गया। विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों द्वारा इसका विरोध किया गया, जिसके बाद विभाग को अपना पोस्टर वापस लेना पड़ा है।
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महत्वपूर्ण बात यह है कि अल्लामा इकबाल के जन्मदिन को उर्दू दिवस के रूप में मनाया जाता है। उर्दू दिवस के उपलक्ष्य में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग द्वारा एक वेबीनार का आयोजन किया गया था। काशी हिंदू विश्वविद्यालय की परंपरा के अनुसार, जब भी कोई विभाग, संस्थान या संस्था जो विश्वविद्यालय से संबद्ध है, कोई पोस्टर जारी करता है तो उसमें सबसे ऊपर मालवीय जी का चित्र और विश्वविद्यालय का प्रतीक चिन्ह (LOGO) अवश्य बना होता है।
Urdu Department, Faculty of Arts, #BHU, is organizing a webinar as per the details given in the poster. Sincerest apologies for the inadvertent mistake in the earlier poster that went viral on social media.@bhupro @VCofficeBHU pic.twitter.com/loGvXe99IU
— Dean – Faculty of Arts, BHU (@DeanArtsBHU) November 8, 2021
किंतु उर्दू विभाग ने विश्वविद्यालय के प्रतीक चिन्ह के साथ अल्लामा इक़बाल की तस्वीर छाप दी। विवाद बढ़ने पर आर्ट्स फैकल्टी के डीन विजय बहादुर सिंह ने मामले पर खेद व्यक्त करते हुए जांच के आदेश दिए हैं। वहीं, उर्दू विभाग के विभागाध्यक्ष आफताब अहमद ने इसे भूल स्वीकार करते हुए क्षमा मांगी है। हालांकि, आफताब अहमद को अपना पक्ष रखने के लिए जांच समिति के समक्ष उपस्थित होने का आदेश दिया गया है।
BHU में उर्दू विभाग ही आवश्यकता ही क्या है?
महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस विश्वविद्यालय को सनातन संस्कृति की धूरी बनाने के उद्देश्य से स्थापित किया गया हो, जहां पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे विद्वान ने शिक्षण कार्य किया हो, वहां उर्दू विभाग की आवश्यकता क्या है? शुक्ल जी ने ही उर्दू को हिंदी से अलग माना था। दूसरी बात यह कि यदि उर्दू विभाग स्थापित भी है, तो उसे उर्दू और हिंदी के समावेशन के लिए प्रयासरत होना चाहिए, जबकि विभाग अलगाववादी विचारधारा प्रदर्शित कर रहा है।
देखा जाए तो काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग को उर्दू की लाज बचाने के लिए इस बात का विरोध करना चाहिए कि उर्दू दिवस अल्लामा इकबाल के जन्मदिन के उपलक्ष्य में क्यों मनाया जाता है? इसे अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर या मिर्जा गालिब के जन्म दिवस के उपलक्ष्य में क्यों नहीं मनाया जाना चाहिए। सबसे अच्छा होता कि उर्दू दिवस फिराक गोरखपुरी के जन्मदिवस के अवसर पर मनाया जाता। फिराक गोरखपुरी हिंदू थे, ऐसे में काशी हिंदू विश्वविद्यालय को अगर सेमिनार कराना ही है, तो उनके जन्मदिवस को उर्दू दिवस के रूप में मान्यता दिलाने के लिए कोई सेमिनार करवाए तो स्थिति बेहतर होगी!
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