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PV नरसिम्हा राव और KPS गिल के तरीके ही हैं खालिस्तानियों से निपटने का रामबाण इलाज

राव और गिल ने मिलकर दिलाया था पंजाब को खालिस्तानी आतंक से छुटकारा!

Aniket Raj द्वारा Aniket Raj
25 November 2021
in मत
नरसिम्हा राव
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जब आपको बीमारी होती है, तो आप किसके पास जाओगे? उस डॉक्टर के पास, जो क्षणिक राहत दे या उस डॉक्टर के पास, जो समस्या का जड़ से इलाज करे? आप स्वाभाविक तौर पर दूसरे डॉक्टर का विकल्प चुनेंगे, भले वो दस-बीस रुपये अधिक ले लें। कुछ ऐसे ही थे पीवी नरसिम्हा राव, जिन्होंने खालिस्तानियों को ऐसा सबक सिखाया, कि अगले दो दशक तक उन्होंने सर उठाने की हिम्मत नहीं की, क्योंकि लोहा ही लोहे को काटता है।

ऑपरेशन ब्लू स्टार, भिंडरवाले का उदय, इन्दिरा की हत्या, 1984 सिख दंगे, राजीव-लोंगेवला सम्झौता, खलिस्तान का चरमोत्कर्ष और राजीव गांधी की मृत्यु जैसी एतिहासिक घटनों ने पंजाब में खलिस्तान समर्थित उग्रवाद को चरम पर ला दिया। ये उग्रवादी न सिर्फ हिंदुओं बल्कि पुलिस, सेना, न्यायाधीश और राजनीतिक परिवारों को भी मौत के घाट उतारने लगे। मतलब साफ था यह विरोध नहीं विद्रोह था, राष्ट्र की संप्रभुता और अखंडता से। यहाँ तक की सिख सैनिकों नें भी विद्रोह कर दिया और खलिस्तान नामक नए राष्ट्र की मांग ज़ोर पकड़ने लगी। कहते है की ये आतंकी इतने नृशंस थे कि न्यायालय में इन्हे काली पट्टी बांधकर पेश किया जाता था ताकि ये न्यायाधीश को पहचान न सके।

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स्थिति इतनी गंभीर हो गयी की इन्दिरा की मौत के बाद ब्लू स्टार में भाग लेनेवाले सैन्य अधिकारी और पंजाब के DGP तक को गोली मार दी गयी थी। ऐसा लग रहा था मानो पंजाब देश से अलग हो जाएगा। यह देश की अखंडता और संप्रभुता पर सबसे बड़ा खतरा था। इस समय में राष्ट्र को इस प्रलय से निकालने के लिए दो राष्ट्र नायकों नें कमान संभाली थी।

इन्दिरा गांधी की मौत और सिख दंगों के बाद पंजाब जलने लगा। 1991 में यह चरम पर पहुँच गया। उस समय नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री थे।

परंतु, पंजाब में उग्रवाद को समाप्त करने की दिशा में प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के महत्वपूर्ण योगदान के बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी है। इन्दिरा गांधी नें तो बस लौ जलायी थी लेकिन इसे अंजाम तक नरसिम्हा राव और KPS गिल की जोड़ी ने पहुंचाया जिसमें 1991 तक 50,000 लोग मारे गए थे।

जो लोग सत्ता में अपनी अगली पारी की चिंता नहीं करते, वे ही कठोर निर्णय लेने में सक्षम होते हैं। राव ऐसे ही राजनेताओं में से थे। राव अपने कार्यकाल के अंत तक अपने राजनीतिक जीवन के बारे में निश्चिंत नहीं थे और ना ही उन्हे दुबारा प्रधानमंत्री बनने का लोभ था। इसी कारण वो “केवल” गिल को जिम्मेदारी सौंपने और पंजाब को खलिस्तान मुक्त करने के लिए सेना को समर्थन देने का साहसिक राजनीतिक निर्णय कर सकें।

आतंकवादी समूहों से निपटने के लिए ब्रिटिश तरीके का किया अनुसरण

राव ने आतंकवादी समूहों से निपटने के ब्रिटिश तरीके का अनुसरण किया। उन्होने जाने-माने और बड़े नेताओं को निशाना नहीं बनाया क्योंकि उनके हटाए जाने के डर से कई छोटे आतंकी समूहों के पैदा होने का ड़र था जिससे स्थिति से निपटना मुश्किल हो जाता। अतः उन्होने खालिस्तानी आतंकवाद को जड़ से उखाड़ने का निश्चय किया।

इस घनघोर प्रलय के बीच राव अगले वर्ष पंजाब में चुनाव कराने के लिए दृढ़ थे। उग्रवादियों ने चुनाव का बहिष्कार किया था और चुनाव में भाग लेनेवालों को अंजाम भुगतने की धमकी दी थी। विभिन्न राजनीतिक दल, विशेष रूप से अकाली दल काफी डरे हुए थे। ऊपर से राव के कई सलाहकारों ने उन्हें ऐसे अशांत समय में चुनाव न कराने की सतत सलाह दे रहें थे। पर, राव अडिग रहें, वो झुके नहीं।

पी वी नरसिम्हा राव के तरीके ही हैं, खालिस्तानियों से निपटने का रामबाण इलाज

प्रसिद्ध राजनीतिक पत्रकार प्रेम शंकर झा ने 2005 में आउटलुक पत्रिका में प्रधानमंत्री राव के लिए श्रद्धांजलि लेख लिखते हुए उद्दृत किया- “जब मैंने तत्कालीन कैबिनेट सचिव से पंजाब चुनाव को लेकर अपनी शंका व्यक्त की तो उन्होंने मुझे बताया कि यह निर्णय केवल प्रधानमंत्री द्वारा लिया गया था जो पंजाब में एक चुनी हुई सरकार को स्थापित करने के लिए दृढ़ थे, चाहे मत प्रतिशत कितना भी संकीर्ण क्यों न हो! प्रधानमंत्री राव का मानना ​​​​था कि केवल लोकतन्त्र ही सिख आबादी से उग्रवादियों को अलग कर सकता है। राव की यह अंतर्दृष्टि भविष्यसूचक साबित हुई।“

आखिरकार, 1992 में विधानसभा चुनाव हुए। चुनावों ने मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार को सत्ता में ला दिया। अकालियों द्वारा उनका बहिष्कार किया गया पर कांग्रेस 21।6% वोट के साथ सत्ता में आई। बेअंत सिंह चुने गए मुख्यमंत्री बने। गिल असम कैडर के पुलिस अधिकारी थे और आसाम में ही पोस्टेड थे। असम में उनके बारे में किंवदंतियाँ थीं, कुछ अच्छे, कई बुरे। उन पर असम आंदोलनकारी खड़गेश्वर तालुकदार के एंकाउंटर का आरोप लगा पर बाद में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा उन्हे बरी कर दिया गया। उन्हे तत्काल पंजाब भेजा गया, पंजाब पुलिस का मुखिया बनाकर।

बेअंत सिंह के नेतृत्व में गिल को आतंकियों से निपटने की पूरी छूट मिली। सेना और पुलिस ने आतंकवादियों और उनके समर्थकों के लिए ग्रामीण इलाकों में तलाशी लेनी शुरू कर दी। हालांकि गिल ने किसानों से मित्रता करने की कोशिश कीक्योंकि उन्हे पता था की इस लड़ाई को जीतने के लिए स्थानीय समर्थन आवश्यक है। गिल आतंकवाद को खत्म करने पर फोकस करते रहे। उनका मानना ​​था कि आंतरिक सुरक्षा बनाए रखना सेना का नहीं बल्कि पुलिस का काम है। बड़ी संख्या में मज्जियाबी (अनुसूचित जाति) सिखों की भर्ती कर गिल ने पंजाब पुलिस की ताकत 35,000 से बढ़कर 60,000 कर दी।

आतंकवादियों के खिलाफ केपीएस गिल की प्रतिक्रिया तीन रणनीतियों के रूप में सामने आई। इनमें से पहला नवीनतम अपराधियों की तत्काल पहचान और उनके उन्मूलन पर आधारित है। दूसरी रणनीति सबसे महत्वपूर्ण आतंकवादियों पर केंद्रित थी जिसके लिए केपीएस गिल ने zero tolerance की नीति अपनाई। ऐसे आतंकवादियों के लिए उनकी नीति एक आँख के बदले दो आँख पर आधारित थी। वो ना सिर्फ आतंकवादियों को खतम करते थे बल्कि जरूरत पड़ने पर उनके पूरे परिवार और कुनबे को ही उखाड़ फेंकते थे। तलविंदर सिंह परमार का एनकाउंटर इसका सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण था, जिसके लिए प्रवासी भारतीयों ने भी सहयोग दिय।

सामरिक प्रतिक्रिया का तीसरा तत्व, ऑपरेशन नाइट डोमिनेंस के रूप में आया। इस अभियान में पुलिस आतंकियों के हमले का इंतज़ार नहीं करती थी बल्कि रात को गश्ती के दौरान उन्हे लाउडस्पीकर से चुनौती देते हुए पेट्रोलिंग करती थी। अगस्त में इस अभियान ने पुलिसकर्मियों और उनके परिवारों की हत्याओं के मद्देनजर इसने ना सिर्फ आतंकवादियों का मनोबल तोड़ा बल्कि उन्हे उनकी औकात भी बता दी।

केपीएस गिल के नेतृत्व में पुलिस ने ना सिर्फ आतंकवादियों को श्रेणी ए से डी में सूचीबद्ध किया बल्कि यह सुनिश्चित किया की “ए” श्रेणी में आने के बाद कोई आतंकी छह महीने से अधिक समय तक जीवित न रहे। इन तौर तरीकों ने ना सिर्फ खलिस्तानियों को चुनौती दी परंतु, उनके मन में भय व्याप्त कर दिया।

केपीएस गिल का एक आवश्यक सिद्धांत था कि केवल स्थानीय पुलिस ही आतंक से लड़ सकती है। सेना, केंद्रीय बल, मदद कर सकते हैं लेकिन आप पंजाब में तब तक नहीं जीत सकते जब तक कि अच्छे जाट बुरे जाटों से नहीं लड़ते क्योंकि गिल की पुलिस में ज्यादातर जट्ट थे। लोहा लोहे को काट सकता है उनका गुरुमन्त्र और आदर्श वाक्य था। उन्होने न सिर्फ जट्ट पुलिस को राष्ट्र प्रेम से भर कर विद्रोह की संभावनाओं को खत्म किया बल्कि जट्ट आतंकियों से लड़ने के काबिल बनाया।

आज भी राष्ट्र ने ने नरसिम्हा राव और केपीएस गिल को अपनी स्मृतियों में सँजो कर रखा है। आज जब कुछ खालिस्तानी सिंघू बार्डर पर एक सिख को काटकर लटका देते है या कभी दिल्ली में अराजकता फैलते है तब देश गिल जैसे होनहार अधिकारियों के लिए रोता है। आज जब लाल किले से तिरंगा ध्वज फ़ेक दिया जाता है, खलिस्तनी सिर उठाते है देश नरसिम्हा राव और गिल की तरफ देखता है और सोचता है की काश ये कुछ समय और होते, तो खालिस्तान का नाग फिर कभी सर उठाने योग्य ही नहीं बचता।

 

Tags: KPS गिलनरसिम्हा राव
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बिहार 2025: नीतीश के अनुभव बनाम तेजस्वी की चुनौती, PK के प्रयोग से सियासत में रोमांच

4 October 2025

बिहार की राजनीति हमेशा अप्रत्याशित रही है। यहां समीकरण पल भर में बदलते हैं और जनता बार-बार यह साबित करती है कि उसका राजनीतिक विवेक...

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