जम्मू-कश्मीर में एक गैर-सरकारी संगठन, उच्च न्यायालय में मामला दर्ज कर देश में इस्लामिक बैंकिंग संस्थानों की मांग कर रहा है। जी हां, इस्लामिक बैंकिंग। मुसलमानों का एक वर्ग चाहता है कि शरीयत के आधार पर देश और उसके बैंकिंग क्षेत्र को चलाया जाए।
बुधवार को जम्मू-कश्मीर में इस्लामिक बैंकिंग की शुरुआत की मांग करने वाली एक जनहित याचिका दायर की गई। इस याचिका पर सुनवाई करते हुए जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के उच्च न्यायालय ने जम्मू-कश्मीर प्रशासन से जवाब मांगा और इस जवाब को दाखिल करने के लिए चार सप्ताह का समय दिया।
वर्ष 2018 में दायर इस जनहित याचिका में केंद्रीय वित्त मंत्रालय को Sharia compliant windows अर्थात् इस्लामिक बैंकिंग की शुरुआत के लिए आवश्यक अधिसूचना जारी करने के निर्देश देने की मांग की गई थी। तब से इस पर सुनवाई हो रही है। हाईकोर्ट के एक बार फिर से जम्मू कश्मीर प्रशासन को समय दिए जाने के बाद पुनः इस मुद्दे पर चर्चा आरंभ हो चुकी है कि भारत में इस्लामिक बैंकिंग अखिर क्यों? हालांकि, इस्लामिक बैंकिंग का आइडिया न सिर्फ भारत के बैंकिंग सैक्टर के लिए घातक होगा; बल्कि सामाजिक सद्भावना और अखंडता के लिए भी घातक साबित होगा। इस पर विस्तार से चर्चा करेंगे, पर उससे पहले यह समझते हैं कि इस्लामिक बैंकिंग है क्या?
क्या है इस्लामिक बैंकिंग?
इस्लामिक बैंकिंग शरीयत की एक बैंकिंग प्रणाली है। इस्लाम में, पैसे का कोई आंतरिक मूल्य नहीं है – इसलिए, पैसे को लाभ पर नहीं बेचा जा सकता है और इसे केवल शरीयत के अनुसार इस्तेमाल करने की अनुमति है। इस्लामी कानून या शरीयत विशिष्ट अवधि के लिए पैसे (रीबा कहा जाता है) किराए पर लेने के लिए किसी भी शुल्क का भुगतान करने पर रोक लगाता है। यह उन व्यवसायों में किसी भी प्रकार के निवेश को भी प्रतिबंधित करता है जिन्हें हराम माना जाता है या इस्लाम के सिद्धांतों के खिलाफ है। माना जाता है कि ये सिद्धांत कुरान से प्राप्त हुए हैं, और तब से चले आ रहे हैं। इस्लामिक बैंकिंग का उद्देश्य पारंपरिक बैंकिंग के समान ही है, सिवाय इसके कि यह शरीयत के नियमों के अनुसार संचालित होता है, जिसे फ़िक़ह अल-मुमालत (लेन-देन पर इस्लामी नियम) के रूप में जाना जाता है।
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इस्लामिक बैंकिंग में शरिया-अनुपालन (इस्लामी आर्थिक मानदंडों का सख्त पालन), वित्तीय सेवाओं जैसे इस्लामिक बॉन्ड (सुकुक), इस्लामिक बीमा (टकाफुल), इस्लामिक म्यूचुअल फंड, इस्लामिक क्रेडिट कार्ड और वित्तीय सेवाओं सभी कुछ शरीयत के अनुसार होगा। सुनने में यह आकर्षक पैकेज लगता है लेकिन देखा जाए, तो जिस तरह से हलाल वस्तुओं के इस्तेमाल से आप एक विशेष पंथ को न जानते हुए भी अपनाने लगते हैं यह ठी वैसी ही स्थिति है। इसे लागू करने का स्पष्ट अर्थ है कि सरकार शरीयत कानून के आगे झुक गयी है!
देखा जाए तो आज की बैंकिंग प्रणाली में चेक और बैलेंस है और अगर इस्लामिक बैंक बांड, टी-बिल और वाणिज्यिक पत्र में निवेश नहीं कर सकते हैं, या ब्याज के लिए इन्वेंट्री या परियोजनाओं केलिए उधार नहीं दे सकते हैं। यह बैंकिंग के उद्देश्य को समाप्त कर देता है।
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सामान्य तौर पर, इस्लामिक बैंकिंग संस्थान के निवेश जोखिम से भरे होते हैं। बैंकों को एक सुरक्षित स्थान माना जाता है, जहां सबसे गरीब तबके भी जा सकते हैं और ऋण प्राप्त कर सकते हैं।
भारत में कब आरंभ हुई चर्चा
रघुराम राजन ने वर्ष 2008 में वित्तीय क्षेत्र पर अपनी रिपोर्ट में इस्लामिक बैंकिंग पर चर्चा की शुरुआत की थी, जहां उन्होंने सिफारिश की थी कि ब्याज मुक्त बैंकिंग तकनीकों को बड़े पैमाने पर संचालित किया जाना चाहिए, ताकि उन लोगों तक पहुंच प्रदान की जा सके जो बैंकिंग सेवाओं तक पहुंचने में असमर्थ हैं।
इसके बाद रघुराम राजन के RBI गवर्नर रहते हुए ही इससे पहले भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) ने वर्ष 2014 में शरिया म्यूचुअल फंड का शुभारंभ किया था जिसे शरिया (इस्लामी कानून) का अनुपालन करने वाली कंपनियों में निवेश करने के लिए डिज़ाइन किया गया था। अर्थात् डॉ रघुराम राजन खुले तौर पर शरीयत के अनुरूप वित्तीय संस्थानों के गठन को प्रोत्साहित कर रहे थे। इस मुद्दे पर बवाल बढ़ता देख मोदी सरकार ने इसे दिसंबर 2014 में स्थगित कर दिया।
उस दौरान सुब्रमणयम स्वामी ने द संडे गार्डियन को बताया था कि उन्होंने दिसंबर में प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा था जिसमें बताया कि इस्लामी बैंकिंग शुरू करना “हमारे देश के लिए राजनीतिक और आर्थिक रूप से विनाशकारी” होगा। स्वामी ने अपने पत्र में केरल सरकार द्वारा शरिया अनुपालन बैंक शुरू करने के फैसले के बारे में भी बताया, जिसे उन्होंने अदालत में चुनौती दी थी।
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तब भी तत्कालीन गवर्नर डॉ वाई वी रेड्डी के तहत रिजर्व बैंक ने एक हलफनामा दायर किया था जिसमें कहा गया था कि भारतीय धर्मनिरपेक्ष कानूनों और रिजर्व बैंक अधिनियम के तहत शरिया अनुपालन की अनुमति नहीं है। यही नहीं आरबीआई गवर्नर डी सुब्बाराव ने केरल में कहा था कि मौजूदा बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट के प्रावधानों के तहत इस्लामिक बैंकिंग संभव नहीं है।
इसके बाद वर्ष 2017 में भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने भारत में इस्लामिक बैंकिंग की शुरुआत के प्रस्ताव को आगे नहीं बढ़ाने का फैसला किया था।
तुर्की – एक ऐसा देश जिसे उसकी इस्लामिक मान्यताओं ने ही बर्बाद कर दिया। हालांकि विश्व के कई ऐसे देश है जहां पर यह बैंकिग प्रणाली अपनाई जाती है। सऊदी अरब, तुर्की कुछ ऐसे ही देश हैं। हालांकि सऊदी के पास तेल है, तो वहीं तुर्की के पास कुछ भी नहीं। नतीजा यह हुआ है कि तुर्की की अर्थव्यवस्था डांवाडोल है।
2020 के अंत में तुर्की इस्लामिक बैंकों की बाजार हिस्सेदारी कुल बैंकिंग क्षेत्र की संपत्ति का 7.2 प्रतिशत हो गई थी। हालाँकि, तब से, इस मुस्लिम देश की अर्थव्यवस्था नीचे की ओर जा रही है। इसके लिए कहीं-न-कहीं तो इस्लामिक बैंकिंग जिम्मेदार है।
राष्ट्रपति एर्दोगन की राजकोषीय नीतियां तुर्की को बर्बाद कर रहीं हैं। एर्दोगन ने ब्याज दरों में वृद्धि होने नहीं दी, जिससे तुर्की में मुद्रास्फीति दरें बढ़ती गईं और लगातार वहां की मुद्रा लीरा का मूल्य घटता चला गया।
अर्थशास्त्रियों के अनुसार मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए ब्याज दरों को बढ़ाया जाना चाहिए, लेकिन एर्दोगन का मानना है कि उच्च ब्याज दरें मुद्रास्फीति को और आगे बढ़ाती हैं। हालांकि, इस मामले से जुड़े सूत्रों का मानना है कि एर्दोगन शरीयत की मान्यताओं से बंधे हैं, जहां ब्याज दरों में वृद्धि को मनाही है। वैश्विक निवेशक पहले से ही तुर्की से दूरी बनाए हुए हैं। ऐसे में इस देश की अर्थव्यवस्था का गर्त में जाना तय है।
संक्षेप में कहें तो इस्लामिक बैंकिंग एक बुरा विचार है जो कि भारतीय बैंकिंग प्रणाली की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति को अस्थिर कर देगी। एक विशेष धर्म के अनुरूप बैंकिंग और कराधान कानूनों में संशोधन करना हमारे देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने के खिलाफ है। यही नहीं, इस्लामिक बैंकिंग आतंकी समूहों के लिए भारत में पैसा भेजने के लिए चैनल भी खोल सकती है। यह मुसलमानों को बेवकूफ बनाने का एक साधन है। केवल एक सांप्रदायिक वोट को लुभाने की कोशिश करने वाली सरकार ही ऐसा कानून बनाने के बारे में सोच सकती है, खासकर भारत जैसे देश में जहां संविधान हमें एक धर्मनिरपेक्ष देश बनाता है।