पर्यावरण-फासीवादी चाहते थे कि भारत पश्चिमी विकसित देशों की तरह 2050 तक यूएनएफसीसीसी को कार्बन-उत्सर्जन शून्य देश बनने के लिए प्रस्तुत करे। वहीं, पीएम मोदी ने ग्लासकों में पश्चिमी देशों को उनकी जिम्मेदारी का एहसास दिलाया कि भारत वैश्विक एजेंडे को आगे तभी बढ़ाएगा, जब वो इसके हित के अनुरूप होंगे। जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है, तब से हर पहलू पर भारतीय नीति पूरी तरह से राष्ट्रीय हित से प्रेरित है। चाहे विदेश नीति हो, पर्यावरण नीति हो, आर्थिक नीति हो, या किसी अन्य क्षेत्र में, सरकार ने हर तरह की विचारधरा को त्यागते हुए राष्ट्रीय हित को सबसे ऊपर रखा है।
पिछले दिनों COP26 देशों की बैठक संपन्न हुई। जिसमें विश्व के 120 देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए और मंच साझा किया। उस मंच से कई बड़ी बड़ी बातें कही गई और कई बड़े वादे भी किए गए। वहीं, वैश्विक सतत समग्र विकास के लिए हरित लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु भी वैश्विक समुदाय की ओर से कई तरह की बातें कही गई। कई देशों ने इसे लेकर पहले ही अपनी प्लानिंग की घोषणा कर दी थी, अब भारत ने भी इस मसले पर अपनी बात रखते हुए बड़ा ऐलान किया है।
भारत ने कहा है कि कार्बन न्यूट्रल यानी उत्सर्जन कम या शून्य करने हेतु 2070 तक का समय चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों घोषणा करते हुए कहा कि भारत अब से 2030 तक अनुमानित उत्सर्जन में एक अरब टन की कमी करेगा। ग्लासगो में जलवायु परिवर्तन बैठक में पांच बड़ी घोषणाएं करते हुए उन्होंने इसे ‘पंचामृत’ योजना कहा। मोदी ने शुद्ध-शून्य उत्सर्जन लक्ष्य पर सहमत होने की वैश्विक मांगों को भी स्वीकार किया और इसे प्राप्त करने के लिए 2070 की तारीख निर्धारित करने की बात कही है।
गौरतलब है कि अमेरिका, चीन और अन्य कई देशों समेत भारत भी दुनिया के सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक देशों में से एक है, लेकिन देश में अभी भी कार्बन उत्सर्जन अमेरिका और चीन से कम है। मौजूदा समय में यह एकमात्र G20 देश था, जिसने अब तक शुद्ध-शून्य लक्ष्य की घोषणा नहीं की थी और इसके लिए सहमत होने को लेकर दबाव भी बढ़ रहा था। अब पीएम मोदी ने खुद इसके निवारण का ऐलान कर दिया है।
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2070 तक क्यों?
मौजूदा समय में दुनिया के सारे देश कार्बन उत्सर्जन को शून्य करने को लेकर 2050 या 2060 तक का लक्ष्य लेकर चल रहे हैं, ऐसे में भारत का 2070 तक का लक्ष्य रखना बहुत लोगों को आश्चर्य में डाल सकता है लेकिन यह समय की आवश्यकता है। भारत वर्तमान में ग्रीनहाउस गैसों का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है, जो हर साल 3 बिलियन टन से अधिक का उत्सर्जन करता है। विश्व संसाधन संस्थान के डेटाबेस के अनुसार, 2010 में भारत का कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन 2.5 बिलियन टन था, जो 2018 में बढ़कर लगभग 3.3 बिलियन टन हो गया। जिसके बाद अब इस तरह के अनुमान लगाए जा रहे हैं कि अगले 10 साल यानी कि 2030 तक उपर्युक्त औसत से भारत का अनुमानित उत्सर्जन 30-32 बिलियन टन की सीमा में हो सकता है। .
बताते चलें कि भारत का उत्सर्जन हर साल लगभग 4 से 5 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। जिसके बाद अब इसमें एक अरब टन की कटौती की घोषणा की गई है। जो देश तुरंत ऐसा करने के लिए दबाव बना रहे है, असल में उन देशों का विकास पहले हीी हो चुका है। भारत अभी विकासशील देश है और विकसित स्थिति में पहुंचने के लिए देश को कई तरह की परिस्थितियों से गुजरना है, जिसके कारण कार्बन उत्सर्जन होना लाजिमी है। वैश्विक दबाव के बीच भारत ने शून्य स्तर पर पहुंचने के लिए 2070 तक का लक्ष्य रखा गया है।
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कई पैमानों पर काम कर रहा है भारत
दुनिया के तमाम देश लक्ष्य बनाकर विफल हो रहे हैं, उनकी थू-थू हो रही है। वहीं, दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत के पिछले जलवायु लक्ष्यों में उल्लेखनीय वृद्धि की, जिसका उल्लेख पेरिस समझौते के दौरान किए गए वादों में किया गया था। 2030 तक स्थापित अक्षय ऊर्जा क्षमता के लिए भारत का लक्ष्य 450 GW से बढ़ाकर 500 GW कर दिया गया है। साथ ही भारत के कुल बिजली उत्पादन में अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी 2030 तक 40 फीसदी से बढ़ाकर 50 फीसदी कर दिया गया है। पीएम मोदी ने कहा है कि “भारत 2030 तक अक्षय ऊर्जा से अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं का 50 प्रतिशत पूरा करेगा”
इसके अलावा देश की उत्सर्जन तीव्रता या उत्सर्जन प्रति यूनिट सकल घरेलू उत्पाद, 2005 के स्तर से वर्ष 2030 तक कम से कम 45 प्रतिशत कम हो जाएगा। अपने मौजूदा लक्ष्य में भारत ने 2030 तक अपनी उत्सर्जन तीव्रता को 33 से 35 प्रतिशत तक कम करने का वादा किया है।
भारत चुपचाप काम करने वाले देशों में से एक है। यह गर्व करने की बात है कि बहुत से पैमानों पर भारत काम कर रहा है और उसे वैश्विक प्रयासों के रूप में शामिल भी किया गया है। यह प्रधानमंत्री के सतत विकास की अवधारणा को दिखाता है। अब दुनिया में भारत की स्थिति ऐसी है कि देश अपने बलबूते पर सबकुछ करने को तैयार है, वो दौर गया जब यूरोप और अमेरिका के दबाव में भारत को फैसले बदलने पड़ते थे। कार्बन उत्सर्जन के मुद्दे पर प्रधानमंत्री ने एकदम सार्थक, समझदारी वाला फैसला लिया है जिसके लिए उनकी जितनी सराहना की जाए वो कम है।
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