भारत आज प्रगति के नए पैमाने स्थापित कर रहा है। भारतीय बुनियादी संरचनाओं से लेकर तकनीकी विकास तक, हर मोर्चे पर अद्वितीय उपलब्धियां हासिल की जा रही हैं लेकिन आज भी पश्चिम की नजर में भारत की छवि एक सपेरा, एक सांप और एक बीन के समान है। भारत की छवि के साथ दो मिथक जुड़े हुए हैं और आज हम दोनों का तथ्यात्मक खंडन करेंगे। पहला मिथक तो यह कि भारत में तरक्की नहीं हो रही है और दूसरा यह कि सपेरा, सांप और बीन जैसी कुरीतियां हिन्दू धर्म से निकली हैं। भारत की छवि हमेशा से ऐसी नहीं थी। खुद उत्तर भारत के बड़े गांवों में सांप नचाने वाले किसी बाहरी राज्य से आते थे। समय के साथ स्थानीय लोगों ने इस कला को सीखा और वह इससे पैसा कमाने लगे।
भारत अब ‘माउस चार्मर्स’ का देश है!
दुनिया भर में भारत की छवि को प्रसारित करने का काम भारत के नेताओं ने खूब किया है, जिसमें जवाहरलाल नेहरु का नाम अव्वल है। उनकी वह तस्वीर सबको याद होगी, जब विजयलक्ष्मी पंडित, जवाहरलाल नेहरू मिलकर जैकलीन कैनेडी को सांप नचाने का खेल दिखा रहे थे। पश्चिम के लिए यह तस्वीर भारत के पहचान के रूप में स्थापित हो गई। नेहरू के उस मशहूर तस्वीर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार हमला भी किया है।
भारतीय प्रधानमंत्री का वह बयान कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी पर एक स्पष्ट हमला था, जिसमें प्रियंका गाँधी को रायबरेली में सपेरों के साथ बातचीत करते हुए देखा गया था। उन्होंने उस समय एक बॉक्स से सांपों को उठाया और उन्हें सहलाया था। जवाहरलाल नेहरू की “प्रसिद्ध तस्वीर” का सन्दर्भ लेकर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते गुरुवार को कहा कि “भारत के पहले पीएम को सांप नचाने का आनंद लेते देखा गया था लेकिन उनके वंशज नहीं जानते कि देश अब आगे बढ़ गया है।” उन्होंने आगे कहा कि “उनकी चौथी पीढ़ी भी ऐसा ही कर रही है। वे नहीं जानते कि भारत अब केवल सांप नचाने वालों का देश नहीं है, बल्कि अब यह ‘माउस चार्मर्स’ यानि कंप्यूटर माउस और आईटी क्षेत्र का देश है।”
प्रधानमंत्री ने जोर देकर कहा कि “भारत के नागरिक नवीनतम तकनीक और नवाचार की दुनिया में सांपों के बजाय कंप्यूटर के ‘माउस’ की मदद से आगे बढ़ रहे हैं। कांग्रेस इस तथ्य को भूल रही है कि भारत सांपों से आगे बढ़ गया है, यह ‘माउस’ के साथ आगे बढ़ रहा है।”
कुर्तकों का खंडन करना जरुरी है
अब इस मिथक का भी खंडन करना आवश्यक है कि सांप नचाने की प्रथा हिन्दू धर्म से जुड़ी हुई है लेकिन आज हम बतौर TFI उन कुतर्को को चुनौती देते हैं और यह बताना चाहते हैं कि कहीं पर भी, किसी भी हिन्दू मिथकों में इसका उल्लेख नहीं है। सांपों को भारत की संस्कृति और धर्म में सम्मानित माना जाता है। हिंदू धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक, भगवान शिव को आमतौर पर उनके गले में स्थापित सांप को एक किंग कोबरा के तौर पर चित्रित किया जाता है। वहीं, हिन्दू धर्म में भगवान कृष्ण थे जिन्होंने कहा कि, “नागों में, मैं अनंत हूं।”
बौद्ध धर्म, जिसका भारत में जन्म हुआ, उसमें हम नागों के राजा मुकलिंडा को देखते हैं, जो बुद्ध को दिव्य ज्ञान प्राप्त कराने के लिए ऊपर अपना फन फैलाते हुए तत्वों के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करते हैं। सब तो सब, मनसा देवी सांपों की देवी है, जिनकी पूजा मुख्य रूप से बंगाल, झारखंड, पूर्वोत्तर भारत के अन्य हिस्सों और उत्तराखंड में मुख्य रूप से सर्पदंश की रोकथाम और इलाज के लिए की जाती है। मनसा देवी, नागों (सांपों) के राजा वासुकी की बहन और ऋषि जरत्कारु की पत्नी हैं। वह ऋषि अस्तिका की माता भी हैं। उन्हें विशारा यानि विष का नाश करने वाली, नित्या और पद्मावती के नाम से भी जाना जाता है।
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वामपंथी विचारधारा का किया धरा ये सब!
ये कुकृत्य बातें वामपंथी विचारधारा वाले लोगों के द्वारा आप तक पहुंचाई गई हैं। सच तो यह है कि कुछ सपेरे जंगली कोबरा को पकड़ लेते हैं, उनके शरीर में नुकीले हथियारों से चीर-फाड़ करते हैं और मुंह सील देते हैं ताकि वे लोगों पर प्रहार न कर सकें। फिर ये सांप भूख के कारण कई कष्टदायी महीनों के बाद भयानक मौत मर जाते हैं।
भले ही पश्चिमी लोगों के लिए, भारत की पहचान एक बांसुरी, एक टोकरी और एक लहराते कोबरा के साथ एक सपेरे का कार्टून या फिल्म चित्र हो, यह चित्र हमें बताते हैं कि सांप व्यावहारिक अर्थों में, बहरे हैं और इस प्रकार किसी भी संगीत का जवाब नहीं दे रहे हैं, बल्कि वह आकर्षण का जवाब दे रहे हैं, जिसे वे संभावित खतरे के रूप में देखते हैं। अधिकतर सांप अपने समय से पहले छोटे जीवन को अंधेरे टोकरियों में केवल दर्दनाक मौत मरने के लिए जीते हैं।
भारत की छवि अब बदल चुकी है
इस अभ्यास के बारे में “आकर्षक” कुछ भी नहीं है। जंगल से सांपों के अवैध शिकार से यह प्रक्रिया शुरू होती है। फिर सांप की विष ग्रंथियों को बाहर निकालकर या फोड़कर गंभीर रूप से अक्षम कर दिया जाता है। ये विधियां केवल सांप की रक्षा के एकमात्र साधन को अक्षम नहीं करती हैं, वे उनके भोजन एवं पाचन तंत्र को भी नष्ट कर देती है।
यह भारत की पहचान नहीं है। ये जो तमाशा है, ना उसका अतीत अच्छा था ना भविष्य में उसके लिए कोई स्थान रहना चाहिए। यह कुरीतियां कब और कैसे आई, यह शोध का विषय है। हो सकता है कि यह आक्रमकारियों द्वारा लाया गया हो। यह भी हो सकता है कि यह एक जनजातीय समुदाय की प्रथा है जिसकी स्वीकार्यता बढ़ गई है। ऐसे में, भारत को वामपंथी विचारधारा वाले गुटों और इस तरह की कुरीतियों को दरकिनार कर विकास के पथ पर आगे बढ़ते रहना चाहिए।