कहते हैं जब शासन न्यायोचित होता है तब धर्म, न्याय और राज्य स्वयं ही सर्वांगीण विकास की ओर उन्मुख होने लगते हैं। 2014 में भारत की जनता ने एक न्यायोचित शासक को चुना जो “धर्मो रक्षति रक्षतः” के मार्ग पर चलनेवाला है। एकाएक धर्म और धार्मिक महानुभावों का गौरव लौटने लगा। सरकार ने कभी 10% आरक्षण देकर तो कभी भाजपा शासित कर्नाटक सरकार ने अर्थदान देकर इनके सामर्थ्य और महत्व को सुनिश्चित किया। स्वाभाविक रूप से भगवाधारियों के उदय से राष्ट्रविरोधी तत्व सबसे ज्यादा भयक्रांत होते हैं। इसी क्रम में हाल के दिनों में एक पुजारी द्वारा दक्षिणा दानपत्र में डालने के बजाए जेब में रखने का वीडियो वामपंथियो द्वारा वायरल किया गया।
महालक्ष्मी मंदिर की घटना
रतलाम के प्रसिद्ध महालक्ष्मी मंदिर में पांच दिवसीय दीपोत्सव के दौरान एक पुजारी का वीडियो सामने आया। वीडियो में मंदिर के पुजारी दक्षिणा में मिले पैसों को दान पेटी में डालने की बजाय अपनी जेब में रखते नजर आ रहे थे।
वीडियो के वायरल होने के बाद कलेक्टर कुमार पुरुषोत्तम ने मामले की जांच के आदेश दिए तथा एसडीएम अभिषेक गहलोत ने पुजारी को नोटिस जारी कर मामले पर जवाब मांगा है।
इस बात पर हिंदू संगठन उग्र हो गए। संस्था के कार्यकर्ताओं ने मंदिर पहुंचकर पुजारी का सम्मान किया और उनकी दक्षिणा उनको लौटते हुए प्रशासन को फिर से कार्रवाई करने की चुनौती दी।
विवाद अत्यंत सरल है और उससे भी सरल है इसका न्याय। परंतु, इसके लिए हिन्दू धर्म को लेकर आपकी अवधारणा पूर्णतः स्पष्ट और अंतरात्मा अत्यंत जागृत होनी चाहिए। विवाद में दो पक्ष है- हिन्दू समाज और सरकार, विवाद का कारण है- पुजारी द्वारा पैसे जेब में रखना।
क्योंकि प्रशासन का कहना है कि यह मंदिर सरकारी नियंत्रण में है। इसमें आने वाले दान पर सरकार का अधिकार होता है। इसलिए, प्रशासन ने पुजारी को नोटिस जारी किया है।
सरकार शक्ति का प्रयोग कर हमारे सांस्कृतिक और धार्मिक प्रतिष्ठानों पर नियंत्रण तो स्थापित कर लेती है पर, हमारी धार्मिक पुस्तकों के पृष्ठों को पलटने में पीछे रह जाती है। शायद, इसीलिए ऐसे कुतर्क गढ़े जाते हैं। इन पुस्तकों को पढ़ा तो हमने भी नहीं है बस पूर्वजों की बताई परंपरा के अनुरूप इनका पालन करते हैं। शायद, इसीलिए ऐसे कुतर्कों के आगे हम ढह जाते हैं। चलिये, हम अपने पाठकों को समझाते हैं कि आखिर सरकार इस मामले में क्यों गलत है और कितनी गलत है?
अतः, सबसे पहले हमें इस प्रश्न को समझना होगा कि पुजारी ने जो पैसे अपनी जेब में रखे वो क्या थे? उत्तर है- पुजारी ने अपनी जेब में जो पैसे रखे वो दान नहीं, दक्षिणा थे। हिंदू समाज में निःस्वार्थ रूप से देने/प्रदान करने को तीन तरीकों से वर्गीकृत किया जा सकता है: दक्षिणा, भिक्षा और दान। दक्षिणा सेवा शुल्क है जिसे अंग्रेज़ी में repayment कहते हैं। भिक्षा एक प्रकार का परोपकार है, जिसमें पाने वाला व्यक्ति देनेवाले का ऋणी होता है। इसे अंग्रेज़ी में alms कहते हैं। जबकि दान उत्कृष्ट मानवीय धर्म है, जिसमें देनेवाला निःस्वार्थ भाव से बस अर्पण करता है और प्राप्त करनेवाला भी चुकाने के किसी बंधन से मुक्त होता है। लेकिन अर्थ अक्सर भ्रमित करने वाले होते हैं, क्योंकि लोग अज्ञानतावश एक ही शब्द का अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग उपयोग करते हैं। आपका भ्रमित होना भी नैसर्गिक है क्योंकि अंग्रेजीयत के मुक़ाबले आपकी सनातन संस्कृति की शब्दावली इतनी सम्पन्न जो है।
मंदिर के पुजारी ने भक्तों को विधि विधान से पूजन कराया। इसके बदले में उन्हे अपने यजमान से दक्षिणा स्वरूप पैसे प्राप्त हुए जिसका एकमेव अधिकारी मंदिर का पुजारी ही है।
दक्षिणा की परंपरा
“The Cost of Poor Brahmin” नामक अपनी पुस्तक में निधीन शोभना बताते हैं कि प्रमुख रूप से पश्चिमी भारत में पेशवा शासन के दौरान दक्षिणा को ब्राह्मणों के लिए एक आधिकारिक बंदोबस्ती के रूप में स्थापित किया गया था। पेशवा शासन के तहत, दक्षिणा पर वार्षिक खर्च कभी भी दस लाख रुपये से कम नहीं था। सन 1758 में, पेशवा बाजीराव के दौरान यह राशि अठारह लाख रुपये तक पहुंच गई। इस दक्षिणा के बदले धार्मिक संस्थानों से जुड़े लोग और मंदिर के पुजारियों ने मराठा साम्राज्य की हर स्तर पर मदद की, राज्य को अपनी सेवा दी।
यह सेवा शिक्षण से लेकर शासन- प्रशासन, कर, अर्थ, न्याय, धर्म, रक्षा और राज्य संचालन तक फैली हुई थी। हिन्दू समाज उस सनातन संस्कृति का संवाहक है जिसके धर्मावलम्बियों ने धर्म और धार्मिक संस्थानो का प्रयोग कर कभी शासन पर नियंत्रण नहीं किया, ना ही जनता के शोषक बने। हमारे धर्म संस्थान और मंदिर तो हमेशा जनता के सेवक और राज्य के संवर्धक बनकर रहे। विश्वास ना आए तो केरल के नम्बूदरी ब्राह्मण और पद्मनाभ मंदिरों को देखिये। इन्हीं दान-दक्षिणा और मंदिरों के बदौलत हम सोने की चिड़िया कहलाए।
कालांतर में जब राष्ट्र स्वतंत्र हुआ तब इन्हीं पुजारियों ने मंदिरों को राष्ट्र के अर्थ संसाधन में परिवर्तित कर दिया और खुद के लिए रखी बस दो जून की रोटी खाने लायक दक्षिणा। राष्ट्र को सम्पदा सम्पन्न करने के लिए इन्हीं पुजारियों ने मंदिरों के कपाट खोल दिये और खुद के लिए रखा बस एक जोड़ी भगवा। इतना महान कृत्य उन्होंने तब किया, जब अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक प्रतिष्ठान अपने संस्थान का संचालन स्वयं करते हैं, चाहे मस्जिद हो या चर्च। इसके अलावा मौलवियों और पादरियों को कई राज्यों में अलग से वेतन दिया जाता है और इससे भी दुखदायी स्थिति तो यह है कि केवल हिंदुओं के ही मंदिर सरकारी नियंत्रण में हैं।
मजाल है किसी कलक्टर साहब की, जो किसी मौलवी द्वारा रखे गए ज़कात या फिर खैरात पर सवाल उठा दें। एक सत्यनिष्ठ, धर्मनिष्ठ पुजारी पर लंछान लगा उसे दान-दक्षिणा के पचड़े में फंसाना शर्मिंदगी का विषय है और मंदिर हो ही नियंत्रण में रखना सरकार के मक्कारी का परंतु, आपकी अज्ञानता और चुप्पी क्या चिंतन और दुर्भाग्य का विषय नहीं है? दो वाक्यों के साथ आप विचार करिएगा।
“परशुराम नें तो दुनिया जीती
पर शासन का मोह कहाँ था
दधीचि ने तो हड्डी दे दी
पर, इंद्रासन का लोभ कहाँ था
और आपको लगता है उस पुजारी को 50 रूपए का लोभ था। शर्म आनी चाहिए समाज को।”