आखिर क्यों बिपिन चंद्र पाल को भारतीय इतिहास के एक कोने में सिमटा दिया गया?

गांधी के हास्यास्पद तरीकों के विरोधी थे बिपिन चंद्र पाल!

बिपिन चंद्र पाल

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किसी व्यक्ति ने सही ही कहा था, ‘बदलाव तभी सार्थक है, जब आप उस बदलाव का हिस्सा बने!’ कुछ लोग बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं, पर उन्हें आत्मसात करने में सांप सूंघ जाता है। लेकिन स्वाधीनता आंदोलन में एक ऐसे महापुरुष भी थे, जो न केवल अपनी कही बातों को आत्मसात करने में विश्वास रखते हैं, अपितु वास्तविक समाज सुधार में विश्वास रखते थे। उन्होंने न लोक-लाज की चिंता की और न ही अपने शत्रुओं के बल की परवाह। परंतु उनका मुखर स्वभाव ही उनके लिए अंत में हानिकारक सिद्ध हुआ और उन्हें दुर्भाग्यवश भारतीय इतिहास के एक छोटे से कोने में सिमटा दिया गया। ये कहानी है प्रख्यात शिक्षक, लेखक, समाज सुधारक एवं क्रांतिकारी बिपिन चंद्र पाल की, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई दिशा दी।

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7 नवंबर 1858 को तत्कालीन भारत के सिल्हट क्षेत्र के हबीबगंज जिले के पोइल ग्राम में बिपिन चंद्र पाल ने जन्म लिया था। उनके पिता श्री रामचन्द्र पाल, एक फारसी विद्वान और एक छोटे-मोटे जमींदार थे। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा चर्च मिशन सोसाएटी कॉलेज कलकत्ता में ग्रहण की और वहीं पर वो बतौर शिक्षक विद्यार्थियों को शिक्षा भी देने लगे।

उन्होंने कांग्रेस पार्टी की सदस्यता अवश्य ली, परंतु उसकी विचारधारा से वे तनिक भी प्रभावित नहीं हुए। ‘चंदन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग’ को उन्होंने वास्तव में आत्मसात किया था। बिपिन चंद्र पाल, ब्रह्म समाज के भी सदस्य थे, परंतु उन्होंने कभी भी इस संस्था के दोहरे मापदंडों को स्वीकार नहीं किया। जब उनकी प्रथम पत्नी का देहांत हो गया था, तो उन्होंने सामाजिक तानों की ओर मुंह फेरते हुए एक विधवा से पुनर्विवाह किया। उन्हें अनेकों समस्याओं का सामना करना पड़ा, परंतु उन्होंने हार नहीं मानी।

क्रांतिकारियों के प्रखर समर्थक थे पाल

बिपिन चंद्र पाल का मानना था कि अनुनय विनय की प्रक्रिया से स्वराज कभी प्राप्त नहीं होगा और इसलिए वो उग्र राष्ट्रवाद के धुर समर्थक थे। उन्हें कांग्रेस के ‘गरम दल’ के सबसे प्रख्यात नेताओं ‘लाल-बाल-पाल’ का अभिन्न अंग भाग माना गया, जिनमें ‘पंजाब केसरी’ लाला लाजपत राय (लाल), महाराष्ट्र के प्रख्यात शिक्षाविद एवं क्रांतिकारी समाज सुधारक केशव गंगाधर तिलक (बाल)और बिपिन चंद्र पाल शामिल थे। क्रांतिकारी बिपिन चंद्र पाल ने अपनी क्रांतिकारी सोच अपने आने वाले पीढ़ियों को भी दान में दे दी। उनके पुत्र निरंजन पाल एक पटकथा लेखक थे, जिन्होंने लंदन में विनायक दामोदर सावरकर और मदनलाल ढींगरा जैसे क्रांतिकारियों के साथ भी कुछ समय बिताया।

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बिपिन चंद्र पाल क्रांतिकारियों के प्रखर समर्थक थे। उनके एक दामाद उल्लास्कर दत्ता थे, जो देश के प्रथम क्रांतिकारियों में से एक थे और उन्हें 1908 के अलीपुर बॉम्ब कांड में कालापानी की सजा सुनाई गई थी, जहां उन्होंने कुछ समय विनायक दामोदर सावरकर के साथ भी बिताया था। ये वही अलीपुर बम कांड था, जिसके लिए प्रफुल्ल कुमार चाकी वीरगति को प्राप्त हुए और खुदीराम बोस को मृत्युदंड मिला। दत्ता को अंग्रेजों द्वारा इतनी भीषण यातना दी गई कि वो कुछ समय के लिए अपना मानसिक संतुलन ही खो बैठे, जिसके बाद उन्हें 1920 में रिहा कर दिया गया। बिपिन चंद्र पाल ने अलीपुर कांड में क्रांतिकारी अरविन्द घोष के विरुद्ध भीषण दबाव के बाद भी गवाही देने से मना कर दिया, जिसके लिए उन्हें 6 माह की सजा हुई थी।

राष्ट्रव्यापी आंदोलन से मिली प्रसिद्धि

लेकिन उन्हें प्रसिद्धि तब मिली तब 1905 में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्ज़न के बंगाल विभाजन के अत्याचारी निर्णय के विरुद्ध बिपिन चंद्र पाल ने लाला लाजपत राय और लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन निकाला। ‘स्वदेशी’ उत्पादों को पुनः बढ़ावा देना और विदेशी, विशेषकर अंग्रेज़ी उत्पादों का बहिष्कार करने की नीति को बिपिन चंद्र पाल, लोकमान्य तिलक और लाला लाजपत राय के संयुक्त नेतृत्व में बढ़ावा मिला। इसी तिकड़ी ने 1905 में अपनी बात तत्कालीन विदेशी शासक तक पहुंचाने के लिए कई ऐसे तरीके अपनाए, जो काफी अनोखे थे। उदाहरण के लिए ब्रिटेन में तैयार उत्पाद, जैसे- मैनचेस्टर की मिलों में बने कपड़ों का बहिष्कार, औद्योगिक तथा व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में हड़ताल आदि शामिल हैं।

इन तीनों का मानना था कि विदेशी उत्पादों के कारण देश की अर्थव्यवस्था खस्ताहाल हो रही थी और यहां के लोगों का काम भी छिन रहा था। उन्होंने अपने आंदोलन में इस विचार को भी सामने रखा। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान गरम धड़े के अभ्युदय को महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि इससे आंदोलन को एक नई दिशा मिली और इससे लोगों के बीच जागरुकता भी बढ़ी। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान जागरुकता पैदा करने में बिपिन चंद्र पाल की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। उनका विश्वास था कि केवल प्रेयर पीटिशन से स्वराज नहीं मिलने वाला है।

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आखिर क्यों इतिहास के चंद पन्नों में सिमट गए पाल?

तो फिर ऐसे ओजस्वी वक्ता के बारे में हमारे इतिहास में और अधिक क्यों नहीं पढ़ाया गया? आखिर क्या कारण है कि बिपिन चंद्र पाल जैसे व्यक्ति केवल चंद पन्नों में ही सिमट गए? इसका कारण बहुत कम लोगों को पता है। दरअसल, मोहनदास करमचंद गांधी और उनके हास्यास्पद तरीकों को लेकर पाल ने हमेशा विरोध जताया। बिपिन चंद्र पाल ने जनता को गांधी के ‘अहिंसा’ के सिद्धांतों के प्रति चेताने का प्रयास भी किया। उनके अनुसार ‘ये व्यक्ति तर्क से अधिक जादू में विश्वास रखता है, उनके सिद्धांतों का कोई ठोस आधार नहीं है।” इस बात का स्वयं लोकमान्य तिलक ने भी अनुमोदन किया था। परंतु लोगों ने इनकी एक न सुनी और जनता के स्वभाव से विक्षुब्ध होकर बिपिन चंद्र पाल ने अपने अंतिम वर्ष एकांत में बिताए। 20 मई 1932 को कलकत्ता में उनका स्वर्गवास हुआ। आज भी कई देशवासी इस तेजस्वी व्यक्तित्व के विचारों और उनके दर्शन से अनभिज्ञ हैं, केवल इसलिए, क्योंकि वे गांधी के विचारों के समर्थक नहीं थे!

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