मिस्र में पुरातत्वविदों द्वारा अब तक की सबसे बड़ी खोज की गयी है। इस बार कोई पिरामिड या ममी नहीं बल्कि एक भव्य सूर्य मंदिर मिला है। वो भी वैदिक काल का सूर्य मंदिर। यह 4500 साल पुराना है और पुरातत्वविदों के अनुसार इस सूर्य मंदिर का निर्माण लगभग 25 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य में किया गया था।
इस खोजी मिशन के सह-निदेशक और मिस्र के सहायक प्रोफेसर ने CNN को बताया कि प्राचीन सूर्य मंदिर के अवशेष काहिरा के दक्षिण में अबू घुरब में एक अन्य मंदिर के नीचे लगभग 12 मील की दूरी पर दफन पाए गए थे। मिस्र के पुरातविदों के अनुसार यह मिस्र के 6 खोये हुए सूर्य मंदिरों में से एक है। परंतु, अगर आप सूक्ष्म अन्वेषन करें तो पाएंगे की यह भारत के वैदिक इतिहास को नकारने का एक कुत्सित प्रयास है।
कहते है- “सत्य परेशान हो सकता है पर पराजित नहीं।“ शायद, इसीलिए विश्व सनातन संस्कृति की विरासत से जितना पीछा छुड़ाने का प्रयत्न करता है वैदिक काल और सनातन संस्कृति का सत्य उतना ही उसके सामने खड़ा हो जाता है। मिस्र में मिला सूर्य मंदिर आर्यों के अश्वमेघ अश्व के विश्व के आखिरी कोने तक पहुंचे का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
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मिस्र और सनातन सभ्यता में समानता
पश्चिमी विद्वानों ने मिस्र सभ्यता के विभिन्न पहलुओं की ओर इशारा किया है जहां हिंदू धर्म के साथ मिस्र की समानता मिली है। मिस्र के लोगों का मानना था कि सभी प्राणी सूर्य देव रा के आंसुओं से उत्पन्न हुए हैं वहीं हिंदुओं का भी मानना था सभी प्राणी प्रजापति के आँसुओं से आए हैं।
मिस्र के देव होरस, ब्रह्मा की तरह, कमल की पंखुड़ी से पैदा हुए थे। कमल का फूल हिंदू और मिस्र के मंदिरों की वास्तुकला में एक सामान्य विशेषता है।मिस्र में सात जातियाँ थीं वहीं प्राचीन भारत में हमारी चार जातियां थीं।
यूसेबियस और सिनसेलस के अनुसार, सिंधु नदी के कुछ लोग एमेनोफिस के शासनकाल में मिस्र के पड़ोस में बस गए थे। कई मिस्रवासी अपने राजकुमारों द्वारा प्रतिबंधित अन्य देशों में बस गए और भारत तक चले गए।
इतना ही नहीं हिंदुओं और मिस्रवासियों दोनों के समय का विभाजन सप्ताहों के अनुसार ही हुआ है और प्रत्येक दिन को एक ही ग्रह के नाम से जाना।दोनों सभ्यताओं में मानना है की आत्माएं अमर है और मृत्यु के बाद अन्य शरीरों में चली जाती हैं।ग्रहण को लेकर दोनों की एक ही मान्यता थी। हिंदुओं का मानना था कि राहु और केतु सूर्य और चंद्रमा को निगल रहे हैं और मिस्र के लोगों ने इसे टाइफॉन के लिए जिम्मेदार ठहराया है।मिस्रवासी किसी भी अन्य जानवर की तुलना में गायों को बहुत अधिक सम्मान में रखते थे। वे आइसिस के लिए पवित्र थे और उन्होंने कभी गाय बलिदान नहीं दिया। बैल का भी सम्मान किया जाता था।
ममी- पिरामिड सनातन संस्कृति की देन
सदियों पहले एक विद्वान ने लिखा था, “मिस्र के पुजारी नील नदी से गंगा और यमुना में भारत के ब्राह्मणों से मिलने आए थे। यूनानियों ने बाद में उनसे मुलाकात की और ज्ञान प्रदान करने के बजाय ज्ञान प्राप्त किया।” मिस्र में सूर्य मंदिर का मिलना इसी सत्य को प्रमाणित करता है। चाहें आप पिरामिड देख लें या ममी करने की परंपरा दोनों का प्रथम प्रमाण हिन्दू धर्म में ही मिला है। उदाहरण के लिए राजा दशरथ के शव को सबसे पहले सुरक्षित या यूं कहें की “mummify” किया गया था क्योंकि उनकी मृत्यु के समय राम-लक्ष्मण वन चले गए थे और भरत-शत्रुघ्न अपने ननिहाल को गए थे। इतना ही नहीं पूजा और धर्मस्थल के छत को गुंबद की जगह त्रिकोणीय संरचना स्वरूप देना भी मंदिर वास्तुकला का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
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सूर्य की पूजा सनातन तरीके से करते थे मिस्र के राजा!
सनातन धर्म अनादि काल से सूर्य देव की पूजा करता आ रहा है। अयोध्या के भगवान राम सूर्यवंश कुल या सौर वंश के थे। दिलचस्प बात यह है कि मिस्र के रामसेस भी सौर वंश के थे और उन्होंने राम नाम भी लिया थ। मिस्र के राजाओं की सूर्य पूजा बिलकुल संध्यावंदन करने वाले ब्राह्मणों की तरह दिखती है। ब्राह्मण इसे दिन में तीन बार सूर्य की ओर मुख करके करते हैं। मिस्र के राजा भी इसी तरह सूर्य की पूजा करते थे। भारतीय हिंदू राजाओं की तरह, मिस्र के राजाओं के भी दो नाम थे। पहला, जन्म के समय दिया गया नाम और दूसरा, राज्याभिषेक नाम या अभिषेक नाम।
दरअसल, अगर आप इन्हे मष्तिस्क की खुली आँखों से देखें तो ये ममी नहीं बल्कि आपको भव्य समाधिस्थल प्रतीत होंगे जैसे किसी तेजस्वी ऋषि के शरीर को समाधि अवस्था में संरक्षित किया गया हो। मिस्र में आज तक इसके निर्माण का इतिहास और प्रक्रिया रहस्य है परंतु, भारतीय सभ्यता नें अजंता-एलोरा, भव्य मंदिर और जटिल वास्तुकला से इसके निर्माण का एक वृहद वृतांत वर्णित किया है जो की स्थापित करती है कि मिस्र वैदिक सभ्यता का ही परिवर्तित रूप है।