बचपन में हमने एक कहावत सुनी थी, “आधी को छोड़ सारी को धावे, न आधी मिले, ना पूरी पावे” , और स्वरा भास्कर इसी की जीती जागती प्रतिमूर्ति है। कोई इनकी विकृत मानसिकता के लिए इन्हें आड़े हाथ लेता है, तो कोई इनकी कुत्सित राजनीति के लिए इन्हें सलाखों के पीछे भेजना चाहता है, परन्तु जब स्वरा भास्कर ममता बनर्जी के समक्ष अपनी बेरोज़गारी को लेकर फूट-फूटकर रोई, तो कहीं न कहीं वह अपने हाथों से ही अपने विनाश की कथा व्यक्त कर रही थी। आखिर जिसे थाली में सजाकर सब कुछ मिला हो, वह भला कैसे अपने विनाश और दुर्गति को स्वीकार कर पायेगी?
‘जाने तू या जाने ना’ के एक चर्चित गीत को अगर स्वरा भास्कर के जीवन के अनुसार अनुवादित करें, तो बोल कुछ इस प्रकार होंगे, “पैदा हुई स्वरा तो किस्मतें चमकी, और उसके मुंह में थी चांदी की चमची।”
अब हो भी क्यों न, जब पिता सी उदय भास्कर भारतीय नौसेना में एक प्रख्यात अफसर थे और माँ इरा भास्कर जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में बच्चों को मार्क्सवाद पढ़ा रही हो, तो महोदया को किस बात की कमी होगी? बिगड़े रईसज़ादों का प्रत्यक्ष प्रमाण है स्वरा भास्कर की जीवनी, जिन्होंने सरदार पटेल विद्यालय से प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद मिरांडा हाउस से अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातक और समाजवाद से JNU में परास्नातक किया। मतलब एक तो करेला दूजा नीम चढ़ा, यानी एक तो पहले ही धन धान्य से संपन्न, ऊपर से मार्क्सवाद की घुट्टी अलग पीकर इन्होनें बॉलीवुड में प्रवेश किया।
‘एक्ट वन’ थियेटर ग्रुप के साथ एक्टिंग करते हुए स्वरा ने मुंबई का रुख किया। छोटे मोटे रोल करते हुए स्वरा भास्कर को पहली बड़ी फिल्म मिली 2010 में, जब उन्होने संजय लीला भंसाली द्वारा निर्देशित ‘गुज़ारिश’ में एक पत्रकार का रोल निभाया। परन्तु अगले ही वर्ष आनंद एल राय की ‘तनु वेड्स मनु’ में इनके पायल सिन्हा वाले रोल ने सभी को चकित कर दिया, और इन्हें फिल्मफेयर अवार्ड्स में सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का नामांकन भी प्राप्त हुआ। यहाँ से फिर स्वरा भास्कर ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
स्टीवन स्पीलबर्ग की सुप्रसिद्ध फिल्म ‘Schindler’s List’ में एक बहुत ही उच्चतम संवाद कहा गया है, “जब मैं कोई काम करता हूँ, तो मैं सुनिश्चित करता हूँ कि उसकी सजावट बहुत अच्छी हो, और उसमें मैं निपुण हूँ। काम में नहीं, काम को प्रज़ेंट करने की शैली में!”
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आपको क्या लगता है, स्वरा भास्कर क्या बहुत योग्य और प्रतिभावान अभिनेत्री रही हैं? क्या स्वरा भास्कर के अलावा देश में कोई और अभिनेत्री है ही नहीं है? ऐसा बिलकुल नहीं है। वामपंथी चाहे जितने भी स्वरा भास्कर के बारे में विरुदावली करें, लेकिन वास्तव में स्वरा भास्कर आवश्यकता से अधिक प्रशंसित एक साइड एक्टर से अधिक कुछ नहीं, जिनके हिस्से में 12 वर्ष लम्बे करियर में मात्र 19 फिल्में और 8 वेब सीरीज़ आई हैं। इनमें भी ये किसी भी फिल्म को अपने दम पर कभी नहीं चला पायी, और जब इन्होने प्रयास किया, तो ‘मछली जल की रानी है’ नामक फिल्म में किया, जिसे आज भी विश्व की सबसे खराब फिल्मों में से एक में गिना जाता है। ‘रांझणा’ और ‘वीरे दी वेडिंग’ में इनके अभिनय के बारे में जितना कम बोलें, उतना ही अच्छा।
परन्तु इसके बाद भी स्वरा भास्कर की छवि को कोई विशेष नुक्सान नहीं हुआ था। लेकिन जब कोई अपने हाथों से अपना घर फूंकने पर तुला हो, तो कोई उसका विनाश कैसे रोक सकता है। अति महत्वकांक्षा के लक्षण तो उसी समय दिख गए थे, जब 2015 में महोदया ने पाकिस्तान की यात्रा की, और पड़ोसी देश की प्रशंसा में कोई कसर नहीं छोड़ी। परन्तु जब 2016 में टुकड़े-टुकड़े गैंग का विवाद पहली बार उपजा, तो स्वरा भास्कर उसके समर्थन में सामने आई, और फिर CAA के विरोध में इन्होने जो अपना मुंह खोला, तो फिर तो पूरे संसार ने इनके मानसिक दिवालियेपन का प्रत्यक्ष प्रमाण देखा।
कई मायनों में लोग इनकी तुलना अभिनेत्री कंगना रनौत से भी करते हैं, क्योंकि दोनों अपने विचारधाराओं के पीछे कुछ अधिक ही उग्र हो जाती हैं। अरे बंधु, तुलना ऐसी कीजिये जहाँ कोई समानता हो, क्योंकि कंगना रनौत भावनाओं में चाहे जितनी बह जाए, वह अपने कार्यों के लिए कटिबद्ध है और चार राष्ट्रीय पुरस्कार एवं 6 फिल्मफेयर पुरस्कार जीतना कोई मज़ाक नहीं है। वैसे राष्ट्रीय पुरस्कार छोड़िये, अब तक कितने फिल्मफेयर पुरस्कार स्वरा ने जीते हैं?
आज जब स्वरा भास्कर ममता बनर्जी के समक्ष रोती हैं कि उन्हें काम नहीं मिल रहा, तो हंसी भी आती है और दुःख भी। दुःख इस बात का कि स्वरा भास्कर को सुनने के लिए मंच प्रदान के लिए जाता है, और हंसी इस बात पर कि स्वरा भास्कर जैसी अभिनेत्री यह कह रही हैं।
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