प्ले स्कूल में नहीं कॉलेज में पढ़ाना चाहते हैं अध्यापक, किंडरगार्टन भारत में बना ‘नोट कमाने का साधन’

अब बच्चों को 'अ' से 'आम्रफल' नहीं, 'A' से 'Apple' सिखाते हैं!

पूरे भारतीय इतिहास में, बच्चों को एक विशेष दर्जा प्राप्त है। छोटी सी आयु में राजा भरत शेरों के दांत गिना करते थे। भारत में, बचपन को एक व्यक्ति के जीवन की आनंददायक समयावधि माना जाता है, इसलिए बच्चों को परिवार और आस-पास के बड़े वृद्ध परिजनों द्वारा सबसे अधिक लाड़ प्यार दिया जाता है। इस पालन पोषण के दौरान एक पक्ष पर विशेष ध्यान दिया जाता है और वह है शिक्षा।

बच्चे के जन्म, बच्चे के पहले ठोस आहार, बच्चे के नामकरण संस्कार और बच्चे की औपचारिक शिक्षा के पहले दिन को उत्सव की तरह मनाया जाता है। गाने, नृत्य, खेल और बातचीत के माध्यम से प्राकृतिक वातावरण में छोटे बच्चों की अनौपचारिक शिक्षा बच्चों के पालन-पोषण का एक नियमित घटक है। हालाँकि, एक नए औद्योगीकृत राष्ट्र की बढ़ती माँगों ने भारत में बच्चों के पालन-पोषण की कई बुनियादी प्रथाओं को बदल दिया है।

जिस भारत में बच्चों की शिक्षा गुरुकुल के वातावरण में संस्कृत के साथ आरंभ होती थी वह अब प्ले स्कूल में अंग्रेजी के A से आरंभ होता है। अब प्ले स्कूल के नाम पर जो स्कैम आरंभ हुआ है, यह ऑनलाइन प्ले स्कूल का स्वरूप ले चुका है। जिस भारतवर्ष में गुरु बनना एक राजा बनने से भी अधिक बड़ी ज़िम्मेदारी भरा कार्य माना जाता था तो वहीं अब शिक्षा का कार्यभार साइड बिजनेस या गृहस्थ महिलाओं के लिए समय के सदुपयोग वाला कार्य माना जाने लगा है। यही कारण है कि जिस भारत में बच्चे 14 वर्ष की उम्र में शस्त्र और शास्त्र की सभी विद्याओं में पारंगत हो जाते थे, आज के बच्चे 14 वर्ष की उम्र में सोशल साइन्स से भूगोल, इतिहास और इक्नोमिक्स को अलग करना भी नहीं जानते हैं।

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व्यवसाय में परिवर्तित हो चुकी है शिक्षा

आज शिक्षा की संस्कृति व्यवसाय में परिवर्तित हो चुकी है। आज सभी उच्च शिक्षा पर ही ध्यान केन्द्रित करते हैं। सरकार से लेकर माता और पिता तक सभी उच्च शिक्षा की चिंता करते हैं। यह किसी से छुपा नहीं है कि अंग्रेजों द्वारा भारतीय शिक्षा को अँग्रेजी बनाने के बाद कैसे स्वतंत्र भारत की सरकारों ने भी शिक्षा के क्षेत्र में उसी भेड़चाल का अनुसरण किया। आज भी सरकार IIT और एम्स जैसे संस्थान बनवाने पर ध्यान दे रही है। जनता भी अपने बच्चों को इन्हीं संस्थानों में या तो पाठन के लिए या पढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करती है।

विश्वविद्यालयों में प्रोफेसरों की नियुक्ति के लिए NET की परीक्षा है, तो वहीं उच्च माध्यमिक शिक्षा के शिक्षकों के लिए B. Ed की डिग्री अनिवार्य है लेकिन आरंभिक शिक्षा के लिए आज प्ले स्कूल है, जहां शिक्षा देना प्राथमिकता ही नहीं होती। किसी ने 12वीं तक पढ़ाई कर ली है या स्नातक कर लिया है या फिर कोई अगर घर में फ्री बैठा है तो अपने शौक के लिए ऐसे स्कूलों में शिक्षा दे रहा है। जिस समय बच्चों का दिमाग सबसे तेजी से अपने वातावरण के अनुसार ढलता है वैसे समय में आज A फॉर Apple सिखाया जाता है। देखा जाए तो आरंभिक शिक्षा मात्र शिक्षा माफियाओं की जकड़ में है। न तो शिक्षकों की भर्ती के लिए कोई विशेष प्रोत्साहन दिया जा रहा है और न ही शिक्षकों की गुणवत्ता पर ध्यान दिया जा रहा है। भारत में किसी भी बच्चे की नींव यहीं से कमजोर होती है।

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गर्भ में ही कई चीजों को सीख जाते हैं बच्चे

तथ्य यह है कि बच्चे अपनी परिवेश से प्रभावित होते हैं, और उसे दोहराते हैं। बाल विकास विशेषज्ञों के दशकों के शोध में दिखाया गया है कि एक बच्चे के शुरुआती वर्षों के पर्यावरण का प्रभाव जीवन भर रहता है। भारतवर्ष के इतिहास को पलट कर देखे तो अभिमन्यु प्रसंग इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। जब अभिमन्यु की माता सुभद्रा गर्भवती थीं तभी अर्जुन ने उन्हें चक्रव्युह के विध्वंस की युक्ति सुनाई थी। हालांकि, चक्रव्युह में आरंभ के दौरान तो वह जागी हुईं थी लेकिन उसमें से निकलने की विधि के दौरान वह सो गयी थीं। माँ से जुड़े होने के कारण अभिमन्यु भी इसी कारण से उतनी ही विधि जानते थे जितनी उनकी माता ने सुनी थी।

गर्भाधान और तीन साल की उम्र के बीच, एक बच्चे के मस्तिष्क में एक प्रभावशाली परिवर्तन होता है। जन्म के समय, उसके पास पहले से ही लगभग सभी न्यूरॉन्स विकसित हो चुके होते हैं। पहले वर्ष में उनका आकार दोगुना हो जाता है, और तीन साल की उम्र तक यह न्यूरॉन्स अपने वयस्क अवस्था के 80 प्रतिशत तक पहुंच चुके होते हैं।

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एक बच्चे की इंद्रियां उसके पर्यावरण और अनुभवों के बारे में मस्तिष्क को बतातीं हैं, और यह इनपुट तंत्रिका गतिविधि को उत्तेजित करता है। आस पास की सुनी गई ध्वनियों को सुनकर इंद्रियां मस्तिष्क में गतिविधि को उत्तेजित करती हैं। यदि इनपुट की मात्रा बढ़ जाती है (यदि अधिक भाषण सुना जाता है) तो उस क्षेत्र में न्यूरॉन्स के बीच synapses अधिक बार सक्रिय होता है। इसका अर्थ यह है कि जिन कारणों को कठिन बता कर बच्चों की शिक्षा को दिन-प्रतिदिन आसान बनाया जा चुका है, उसका कुछ वैज्ञानिक प्रमाण ही नहीं है। एक बच्चे को अगर आरंभ से ही संस्कृत की शिक्षा दी जाए तो उसका मस्तिष्क उसे आसानी से समझेगा। अपने आस-पास के वातावरण और गर्भ में बच्चे कई चीजों को सीख जाते हैं जो फिर बड़े होने पर न दोहराने के कारण वे भूल जाते हैं। तैरना भी इसी तरह की एक क्रिया है जो बच्चे गर्भ में तो सीख जाते हैं लेकिन जन्म के बाद न दोहराने के कारण तैरने की विधि को भूलते जाते हैं।

पहले तीन वर्षों में एक बच्चे के मस्तिष्क द्वारा उत्पादित अतिरिक्त synapses मस्तिष्क को बाहरी इनपुट के लिए विशेष रूप से उत्तरदायी बनाता है। यही कारण है कि प्राचीन भारत में बच्चे की शिक्षा पर अत्यधिक ध्यान दिया जाता था। शास्त्रों के अनुसार उपनयन संस्कार के बाद ब्रह्मोपदेश होता है जहां से शिक्षा की नींव पड़ती है और बच्चों को मंत्रोचारण सिखाया जाता। हमारी प्राचीन शिक्षा प्रणाली अनिवार्य रूप से मूल्य आधारित थी। गुरुकुल पद्धति में विद्यार्थी गुरु के यहाँ जाते थे, वहाँ रहते थे और पढ़ते थे। कोई निश्चित शुल्क नहीं था। आर्थिक रूप से, गुरुकुल राज्य के संरक्षण/अनुदान या जनता द्वारा दान पर निर्भर थे। उनके पूरे छात्र जीवन के लिए उनके शिक्षक उनके अभिभावक, गुरुकुल उनका घर और साथी छात्र उनके परिवार थे। एक गुरु के लिए, उसके गुरुकुल में रहने वाले सभी छात्र अपने परिवार की स्थिति की परवाह किए बिना समान थे। गुरु के पास जो कुछ भी था, वह बिना किसी तात्कालिक लाभ की आशा के छात्र को दे देते थे। एक और प्रमुख विशेषता थी और वह था कि शिक्षक कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जिसकी एकमात्र जिम्मेदारी अपने शिष्य को बाजार संचालित जानकारी प्रदान करना था बल्कि परंपरागत रूप से, शिक्षक जीवन भर अपने छात्रों के लिए एक अभिभावक और संरक्षक होता है और अपने शिष्य के चरित्र निर्माण के लिए जिम्मेदार होता था।

गुरुकुलों का मुख्य फोकस छात्रों को एक प्राकृतिक परिवेश में शिक्षा प्रदान करना था जहां शिष्य एक दूसरे के साथ भाईचारे, मानवता, प्रेम और अनुशासन के साथ रहते थे। समूह चर्चा, स्व-शिक्षा आदि के माध्यम से भाषा, विज्ञान, गणित जैसे विषयों में आवश्यक शिक्षाएँ मिलती थीं। इतना ही नहीं, बल्कि कला, खेल, शिल्प, गायन के साथ-साथ युद्ध काला पर भी ध्यान दिया जाता था जिससे उनकी बुद्धि और आलोचनात्मक सोच विकसित हो। योग, ध्यान, मंत्र जाप आदि गतिविधियों ने सकारात्मकता और मन की शांति उत्पन्न होती और उन्हें सबल बनाती है। उनमें व्यावहारिक कौशल प्रदान करने के उद्देश्य से दैनिक कार्य स्वयं करना भी अनिवार्य रूप से विकसित होती थी।

हालांकि, सभ्यता में असभ्यता के संक्रमण से उपजी आधुनिक कुरीतियों ने भारतीय शिक्षा पद्धति और गुरुकुल का विनाश कर डाला। जैसे-जैसे भारत पर आक्रांताओं के आक्रमण हुए, वैसे-वैसे शिक्षा पद्धति बदलती गयी और अंग्रेजों ने तो बाबुओं की फैक्ट्री बनाने के लिए भारतीय शिक्षा का विध्वंस ही कर डाला। रही सही कसर स्वतंत्र भारत की सरकारों ने अँग्रेजी शिक्षा पद्धति को न बदल कर पूरी कर दी । इसके बाद तो आरंभिक शिक्षा को पूरी तरह से उपेक्षित कर दिया गया। यही कारण है कि जिस उत्साह के साथ आज कोई प्रोफेसर बनना चाहता है उसी उत्साह और उत्सुकता के साथ आरंभिक शिक्षा का शिक्षक नहीं बनाना चाहता है। अगर यही शिक्षा पद्धति चलती रही तो हमारा देश भेड़चाल चलने वाले छात्रों की फैक्ट्री बना रहेगा। अगर हमारे देश के भविष्य को सुनिश्चित करना है तथा विश्वगुरु बनना है तो देश में शिक्षा की स्थिति का जीर्णोद्धार करना होगा जिसमें से सबसे आरंभिक शिक्षण देने वाले शिक्षकों की गुणवत्ता पर ध्यान केन्द्रित करना होगा।

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