ज़रा सोचिए,सबसे भयावह मृत्यु कैसी होती होगी? एक ऐसी मृत्यु जिसमें आप लड़ ना सके बस लचारगी के साथ लथपथ, अनवरत युद्धरत मृत्यु के लिए प्रतीक्षारत हों। मृत्यु की प्रतीक्षा मृत्यु से भी भयानक होती है। मृत्यु शरीर को खत्म करती है परंतु उसकी प्रतीक्षा आपके आत्मा के साहस और मनोबल को। अगर इस बेबस प्रतीक्षा में आपके साथ आपके प्रियजन और परिवारजन भी हों तो यह आपके आत्मा को क्षत-विक्षत कर देती है। आप सोच रहे होंगे की मैं ऐसी बातें आपसे क्यों कर रहा हूँ? ऐसा इसलिए क्योंकि एक ऐसी ही हृदयविरादक घटना भारत में घटी थी। उस घटना का नाम है- भोपाल गैस त्रासदी। परंतु, सबसे बड़ी त्रासदी तो यह है कि सत्ता के लोभ और राजनीति की सनक में राजीव सरकार ने ना सिर्फ इसके गुनहगारों को बचाया बल्कि क्षत-विक्षत और मृतकों के परिवारवालों को भी छला।
भयावह वृतांत
2 दिसंबर 1984 की रात को भोपाल में “यूनियन कार्बाइड इंडिया” के कीटनाशक संयंत्र से मिथाइल आइसोसाइनेट नामक जहरीली गैस का रिसाव होने लगता है। आपको बता दें कि यूनियन कार्बाइड एक अमेरीकन कंपनी है जिसने उर्वरक बनाने के लिए भोपाल में “यूनियन कार्बाइड इंडिया” के नाम से एक संयंत्र स्थापित किया था। गैस के रिसाव के बाद हवा के बहाव से यह गैस तेज़ी से फैलती है और पूरे भोपाल को ढँक देती है। फिर शुरू होता है मौत का नंगा नाच। मृतकों से धरा पट जाती है। लोगों की आँख, श्वास, गुर्दा, हृदय, फेफड़े सब खराब होने लगते हैं।
पानी जहरीली हो जाए, तो आप एक दिन बिना पानी के रह सकते है परंतु हवा जहरीली हो जाए तो कोई उपाय नहीं बचता। जिन्होने साँसे रोकीं वो दम घुटने से मरे और जिन्होने साँसे लीं वो पहले अंधे हुए और फिर मरने का इंतज़ार करते-करते मरे। हर ओर अंधकार और अराजकता फैल गयी । अब क्योंकि प्राणवायु तो डॉक्टर और पुलिस वाले भी लेते हैं, सो सबसे बड़ा प्रश्न तो यह खड़ा था कि स्वयं बचें की लोगों को बचाएं?
मृत्यु के इस भीषण तांडव में करीब पाँच लाख लोग गैस के संपर्क में आए। परंतु, सरकार ने आंकड़ों को छोटा कर दिया। सरकारी आंकड़ों के अनुसार तीन दिनों के भीतर सिर्फ 8,000 ही मरें। उसके बाद के महीनों में हजारों और लोग मर जाते हैं। जो होना था वो तो हो गया। हमारा उद्देश्य यहाँ मौत की विभीषिका को प्रस्तुत करना नहीं बल्कि सत्ता के लोभ के कारण काँग्रेस ने किस तरह अपने देश को छला है, यह उजागर करना है। इस मामले की लीपापोती कर कैसे राजीव सरकार ने अपने विदेशी दोस्तो को बचाया और पीड़ितों को उनके हक और न्याय से वंचित कर दिया, ये दिखाना है क्योंकि शासन की करकर्दगी और वंचितों की आवाज़ बनना ही सच्ची पत्रकारिता है।
कांग्रेस सरकार ने की थी दोषियों की मदद
भयानक भोपाल गैस त्रासदी के दौरान इटली ने भारत सरकार को फौरन मदद की पेशकश की क्योंकि 1976 में मिलान के पास सेवेसो में इटली को इसी तरह की आपदा का सामना करना पड़ा था। इटली में सेवारत भारतीय राजदूत होमी जेएच तलेयारखान ने भारतीय प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) को पत्र लिखा जो फ़ाइल संख्या (17/2049/ए/86-III) में चिह्नित है। परंतु, राजीव सरकार ने इसे ठुकरा दिया। कारण था चुनाव और उनके छवि को होनेवाली हानी। लोगो को मरने के लिए छोड़ दिया गया।
केंद्र सरकार नें सारा ध्यान इस कंपनी के सर्वेसर्वा एंडर्सन को भारत से भगाने पर केन्द्रित कर दिया। परंतु, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यालय से प्राप्त 700 से अधिक दस्तावेजों से पता चलता है कि कैसे उन्होने भोपाल गैस त्रासदी के 4 दिन बाद यानि 7 दिसम्बर 1984 को नज़रबंद किए गए वारेन एंडर्सन को पुलिस हिरासत से छुड़ाया। अर्जुन सिंह ने पुलिस अधिकारियों से उन्हे मात्र 25 हज़ार रुपये के जमानत पर छोड़ देने का निर्देश दिया। विशेष विमान की व्यवस्था कर उन्हे भोपाल से दिल्ली भेजा गया। इसके लिए अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह और कमलनाथ जैसे राजीव के खास नेताओं को विशेष रूप से नियुक्त किया गया और फिर दिल्ली से एंडर्सन को अमेरिका भेज दिया गया जहां 92 साल की उम्र में फ्लॉरिडा में उसकी मृत्यु हो गयी। इतना ही नहीं अब बारी थी राजीव सरकार के अपने जनता के साथ छल करने की।
सबसे बड़ा छल
टाटा संस के पूर्व अध्यक्ष जेआरडी टाटा द्वारा तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी को एक पत्र (दिनांक 31 मई, 1988) लिखा। पत्र में जेआरडी टाटा ने पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर का संदेश देते हुए कहा कि ‘यूनियन कार्बाइड क्षतिपूर्ति के रूप में काफी अधिक राशि का भुगतान करने को तैयार है। जो दो भारतीय अदालतों के असाधारण निर्णयों में भी प्रस्तावित है। परंतु, यह तभी संभव होगा जब सरकार द्वारा अनुमोदित अदालत के बाहर समझौते की राजनीतिक विरोधियों द्वारा आलोचना न की जाए।’
जेआरडी टाटा के अनुसार किसिंजर अमेरिका में यूनियन कार्बाइड जैसे बड़े निगमों के सलाहकार और सलाहकार थे। जेआरडी टाटा के अनुसार किसिंजर भोपाल गैस पीड़ितों को कानूनी दाँव-पेंच के कारण मुआवजे में होने वाली देरी से चिंतित थे। अतः उन्होने टाटा के माध्यम से भारत सरकार को यूनियन कार्बाइड के आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट के संदेश से अवगत कराया। परंतु, राजीव गांधी ने 14 जून, 1988 को टाटा को जवाब देते हुए कहा कि “सुझावों पर विचार किया जाएगा” और मामले को ठंढे बस्ते में डाल दिया।
उसके बाद राजीव सरकर ने जनता को ठगने की कुत्सित चाल चली। सबसे पहले उन्होने मृतकों और पीड़ितों की संख्या आधिकारिक रूप से इतनी कम कर दी की यूनियन कार्बाइड को नाम मात्र का मुआवजा देना पड़े। ऊपर से पीड़ितों और मृतकों के परिवारजनों को ज्यादा मुआवज़े का लालच देकर सरकार इस केस में एकमेव पक्षकार बन गयी। जनता के कानूनी प्रतिनिधि के रूप में सरकार ने पहले 3.3 बिलियन डॉलर की मांग की परंतु सरकार ने मात्र 470 मिलियन डॉलर पर समझौता कर मामले को रफा दफा कर दिया। ऊपर से यूनियन कार्बाइड के सभी अधिकारियों को किसी भी आपराधिक मामले से भी मुक्त कर दिया गया।
जनता के सतत विरोध के कारण दिसंबर 2010 में भारत के अटॉर्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर कहा की 470 मिलियन का मुआवजा गलत आंकड़ों पर आधारित था और इसमें पर्यावरण और लोगों की सही क्षति का आंकड़ा शामिल नहीं था। परंतु, उसके बाद भी जो मुआवजे का आंकलन किया गया वो भी सिर्फ एक लीपापोती ही थी।
प्रदर्शनकारियों का कहना है कि सरकार की याचिका में अभी भी पीड़ितों की संख्या को कम करके आंका गया है और मुआवजा उन लोगों के पास नहीं गया जिन्हें इसकी जरूरत थी। सरकार ने उन मौतों और घायलों की संख्या में संशोधन करने का वादा किया है जिनके लिए वह मुआवजे की मांग कर रही है परंतु, आज भी यह वादा सिर्फ एक वादा ही है।
भोपाल गैस त्रासदी के तीस साल बाद, पीड़ित अभी भी एक निष्पक्ष और पूर्ण मुआवजे के लिए संघर्ष कर रहे हैं। डाउन टू अर्थ द्वारा प्राप्त दस्तावेजों से पता चलता है कि यूनियन कार्बाइड द्वारा पीड़ितों को बहुत बड़ा मुआवजा दिया जा सकता था। स्वयं कंपनी उसके लिए तैयार थी परंतु तत्कालीन कांग्रेस सरकार और राजीव गांधी ने अपनी साख बचाने के लिए जनता की तिलांजलि दे दी। अब उस कंपनी की चारदीवारी पर लिखे नारे धुंधले पड़ गए है। अंधी आँखों के आँसू सूख चुके है और अब दर्द अंधेपन का नहीं पर अपनी ही सरकार द्वारा विदेशी दोस्तों के लिए छले जाने के कारण है।