कल भारतीय हॉकी को एक अप्रत्याशित क्षति हुई। पूर्व हॉकी प्लेयर और भारतीय टीम के पूर्व कप्तान चरणजीत सिंह का निधन हो गया, जो लगभग 90 के थे। चरणजीत सिंह ने रोम ओलंपिक में भारत को रजत पदक दिलाया था और कप्तान के रूप में भारत को 1964 के टोक्यो ओलंपिक में उसका स्वर्ण पदक भी जितवाया था।
लेकिन कप्तान चरणजीत सिंह में ऐसा भी क्या खास था, जो उनके निधन से पूरा हॉकी जगत स्तब्ध है? उन्होंने एक ऐसे देश को उसका गौरव वापस दिलाया था, जिसने 1964 तक हॉकी के क्षेत्र में लगभग सब कुछ खो दिया – मान, सम्मान, और न जाने क्या क्या। जिस टोक्यो की धरती पर 2021 में भारतीय पुरुष हॉकी टीम ने 41 वर्ष का पदक का सूखा खत्म किया, उसी टोक्यो में कोमाजावा के मैदान पर टोक्यो ओलंपिक में हॉकी के मैदान पर वास्तव में एक युद्ध लड़ा गया था, जहां बंदूकों का नहीं, हॉकी स्टिक्स का प्रयोग हुआ, और उसमें भी भारतीय हॉकी विजयी रही।
कप्तान चरणजीत सिंह भारतीय रेलवे के एक कर्मचारी थे, जो भारतीय पुरुष हॉकी टीम का नेतृत्व कर रहे थे। टोक्यो ओलंपिक के समय भारत की अवस्था काफी दयनीय थी, हॉकी में भी और वैश्विक राजनीति में भी। भारतीय हॉकी फेडरेशन के तत्कालीन अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किए BSF के उच्चाधिकारी अश्विनी कुमार के लिए भारतीय हॉकी को पुनः पटरी पर लाना सरल नहीं था।
परंतु उन्होंने ये बीड़ा उठाने का निर्णय लिया और जल्द ही टीम का निर्माण प्रारंभ हुआ। प्रबंधक इंदर मोहन महाजन और पूर्व नेशनल चैंपियन नरेंद्र नाथ मुखर्जी अथवा हाबुल दा के नेतृत्व में एक मजबूत टीम का चयन किया गया। इस टीम के कप्तान के रूप में चरणजीत सिंह को चुना गया, जो रोम ओलंपिक में भारत को स्वर्ण पदक जिता चुके होते, यदि सेमीफाइनल में ब्रिटिश खिलाड़ियों ने बेईमानी से उन्हें चोट न पहुंचाई होती।
उनके अलावा इस टीम में उधम सिंह कुलर जैसे वरिष्ठ खिलाड़ी भी चुने गए। उधम सिंह उंगली की चोट के कारण लंदन ओलंपिक में नहीं चुने गए, अन्यथा वे हेलसिंकी ओलंपिक 1952 से लेकर रोम ओलंपिक 1960 तक लगभग हर टीम में भारतीय हॉकी के लिए ‘संकटमोचक’ के रूप में सामने आए थे। इस टीम के गोलकीपर के रूप में एक बार फिर भारतीय सेना के प्रख्यात गोलकीपर शंकर लक्ष्मण शेखावत को चुना गया। इनके कौशल के कारण भारत ने एक भी टीम को मेलबर्न ओलंपिक में अपने गोलपोस्ट के आसपास भी नहीं फटकने दिया, परंतु इनकी एक चूक के कारण भारत अपना लगातार 7वां ओलंपिक स्वर्ण पदक 1960 में जीतने से चूक गया l अब टोक्यो ओलंपिक में बात केवल स्वर्ण पदक की नहीं की, बात थी स्वाभिमान की, बात थी अपने आत्मविश्वास को वापिस प्राप्त करने की।
जब भारत ने टोक्यो ओलंपिक में अपना अभियान प्रारंभ किया, तो वह उतना धमाकेदार नहीं था। जर्मनी और स्पेन से उसे मैच ड्रॉ कराने पड़े। परंतु जल्द ही भारत ने लय प्राप्त करते हुए अपने बाकी पांचों मैच जीते, और सेमीफाइनल में प्रवेश किया। सेमीफाइनल में जब भारत का सामना ऑस्ट्रेलिया से हुआ, तो भारत प्रारंभ में पिछड़ा, परंतु जल्द ही एक के बाद ताबड़तोड़ 3 गोल ठोंकते हुए ऑस्ट्रेलिया को न केवल 3-1 से हराया, अपितु फाइनल में एक बार फिर पाकिस्तान से अपनी भिड़ंत सुनिश्चित कराई।
भारत के मुकाबले पाकिस्तान का अभियान एकदम अजेय था। उसने एक भी मैच नहीं हारा था, और ताबड़तोड़ गोल किए सो अलग। लेकिन 23 अक्टूबर 1964 को हुए फाइनल में पहले ही हाफ में भारतीयों ने ऐसा रक्षात्मक खेल अपनाया कि पाकिस्तान को दिन में तारे दिखने लगे –
Tokyo Olympics 1964 – The untold victory of how India regained her self respect through the field of sports – pic.twitter.com/VxIFnKezEF
— Animesh Pandey 🇮🇳 (@LaffajPanditIND) October 23, 2020
पाकिस्तान की आक्रामक रणनीति और उसकी कुटिल सोच के बाद भी भारत अपने कौशल से तनिक नहीं डिगा। मैच के दूसरे हाफ में भारत को आखिरकार एक पेनाल्टी स्ट्रोक मिला। पाकिस्तानी गोलकीपर अब्दुल हमीद को पूरा विश्वास था कि भारत के लिए ये शॉट असंभव है, परंतु मोहिन्दर लाल के मन में कुछ और ही चल रहा था।
अब्दुल हमीद के कद और गोलपोस्ट की ऊंचाई देखते हुए उसने एक सधा हुआ स्कूप लगाया, जो सीधा अब्दुल के हाथों को पार करता हुआ गोलपोस्ट के जाल में समा गया। भारत ने न केवल वह स्वर्ण पदक प्राप्त किया, अपितु इसी भूमि पर 57 वर्ष बाद एक बार फिर अपना खोया आत्मसम्मान प्राप्त किया, जब विपरीत परिस्थितियों में भारत ने जर्मनी को 5-4 से परास्त कर कांस्य पदक प्राप्त किया था। कप्तान चरणजीत सिंह के अतुलनीय योगदान से आज भी अनेक भारतीय अपरिचित हैं, लेकिन जब भी टोक्यो ओलंपिक 1964 के गौरव गाथा की चर्चा होगी, उनका नाम गर्व से लिया जाएगा।