हाल ही में इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के बीच संपन्न हुए एशेज़ क्रिकेट श्रृंखला में ऑस्ट्रेलिया की जीत हुई है। ऑस्ट्रेलिया ने इंग्लैंड को क्लीन स्वीप करते हुए श्रृंखला को 4-0 से जीत लिया है। एशेज़ टूर्नामेंट जीतने के बाद ऑस्ट्रेलियाई टीम जब अपनी ट्रॉफी लेने के लिए पोडियम पर आई, तो ऑस्ट्रेलिया की टीम ने अपने एक खिलाड़ी के लिए वर्षों से चली आ रही अपनी प्रथा को रोक दिया। दरअसल, होता यह है कि ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड में जो भी टीम इस टूर्नामेंट में जीत हासिल करती है, वह पोडियम पर शैंपेन उड़ाकर जश्न मनाती है। खिलाड़ी एक दूसरे पर शैंपेन डालते हैं। किंतु पाकिस्तानी मूल के ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी उस्मान ख्वाजा आस्ट्रेलियाई टीम का हिस्सा हैं और मुसलमानों के लिए शराब का सेवन वर्जित है, इस कारण ऑस्ट्रेलिया की टीम ने पोडियम पर जश्न मनाने के दौरान शैंपेन की बोलते नहीं खोली।
ध्यान देने वाली बात है कि उस्मान ख्वाजा अपने मजहबी विश्वास के कारण पोडियम पर नहीं आए थे, क्योंकि वो नहीं चाहते थे कि ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी उन पर शराब उड़ेले। ऑस्ट्रेलिया के कप्तान पैट कमिंस ने जब यह देखा कि उस्मान ख्वाजा पोडियम पर नही हैं, तो उन्होंने अपने खिलाड़ियों को शैंपेन की बोलत खोलने से रोक दिया और ख्वाजा उस्मान को पोडियम पर बुलाया। क्रिकेट जगत में ही नहीं, बल्कि बाहर भी पैट कमिंस के इस व्यवहार की तारीफ हो रही है। निश्चित रूप से पैट कमिंस ने जो किया है, वह सराहनीय है। किंतु सवाल यह उठता है कि उस्मान ख्वाजा इस सम्मान के योग्य हैं अथवा नहीं। दरअसल, उस्मान ख्वाजा के खराब प्रदर्शन के कारण जब ऑस्ट्रेलिया के पूर्व दिग्गज स्पिनर शेन वार्न ने उनकी आलोचना की थी, तो उस्मान ने मीडिया इंटरव्यू में यह कहा था कि उनकी आलोचना इसलिए होती है, क्योंकि वह मुसलमान हैं।
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विक्टिम कार्ड खेलने में माहिर हैं ख्वाजा
उस्मान ख्वाजा ने ऑस्ट्रेलियाई टीम पर आरोप लगाया था कि अनजाने में ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी उनके साथ भेदभाव करते हैं, क्योंकि वह पाकिस्तानी मूल के हैं और मुसलमान हैं। अपने इंटरव्यू में उन्होंने मुसलमानों द्वारा वैश्विक स्तर पर प्रयोग किए जाने वाले विक्टिम कार्ड का ही प्रयोग किया था। दूसरे खिलाड़ियों से उस्मान को यह अपेक्षा है कि वह अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त रहें, किंतु स्वयं उस्मान ख्वाजा ने ऑस्ट्रेलिया की एक ईसाई लड़की से विवाह के लिए हामी तब भरी, जब उसने इस्लाम अपना लिया।
हालांकि, यह उन दोनों का निजी मामला है, किंतु यह उदाहरण प्रस्तुत करता है कि उस्मान ख्वाजा स्वयं एक कट्टर मुसलमान हैं, लेकिन उन्हें अपेक्षा है कि सभी उनका सम्मान करें! वह स्वयं प्रेम से अधिक महत्व इस्लाम को देते हैं, किंतु उन्हें उम्मीद है कि बाकी खिलाड़ी उनकी इस्लामिक पहचान को नजरअंदाज करते हुए, उन्हें बतौर खिलाड़ी स्वीकार करें।
निश्चित रूप से ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों ने अपनी ओर से उस्मान ख्वाजा को टीम का हिस्सा बनाने के लिए एक सराहनीय प्रयास किया है, पर बड़ा सवाल यह भी है कि उस्मान या उनके जैसे अन्य खिलाड़ी अपनी मजहबी पहचान को इतना बड़ा मुद्दा बनाकर क्यों चलते हैं। हाशिम अमला ने दक्षिण अफ्रीका की ओर से खेलते समय अपनी जर्सी पर से एक शराब कंपनी का लोगो हटवा दिया था। कई पाकिस्तानी खिलाड़ी भी ऐसा कर चुके हैं।
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आतंकवाद के विरुद्ध इनकी आवाज ही नहीं निकलती
पाकिस्तानी खिलाड़ियों द्वारा ऐसा करना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है, किंतु क्या पश्चिमी देशों के राष्ट्रीय टीम में खेलने और सम्मान तथा धन प्राप्त करने वाले खिलाड़ियों को पश्चिमी मान्यताओं को पूर्णतः अस्वीकार करने का अधिकार है? यदि ऐसा है और इसे अन्य खिलाड़ियों की ओर से समर्थन मिलता है, तो क्या हाशिम अमला और उस्मान ख्वाजा जैसे खिलाड़ी जो स्वयं को इस्लाम का रोल मॉडल दिखाते हैं, उन्हें कट्टरपंथी मुसलमानों तथा आतंकी संगठनों के खिलाफ आवाज नहीं उठानी चाहिए?
उस्मान ख्वाजा या हाशिम अमला में किसी खिलाड़ी ने तब आवाज क्यों नहीं उठाई, जब तालिबान द्वारा अफगानिस्तान में खेल पर प्रतिबंध लगाया गया, जब अफगान टीम ने अपने खेल को बचाने के लिए वैश्विक स्तर पर मदद मांगी। यह मुस्लिम खिलाड़ी केवल यह चाहते हैं कि लोग उनके मजहब का सम्मान करें, किंतु ये सम्मान प्राप्ति के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं करना चाहते। इनके मजहबी साथियों के कारण दुनिया में आतंकवाद फैल रहा है, उसके विरुद्ध यह एक शब्द नहीं बोलते, किंतु जिस टीम में इन्हें सम्मान प्राप्त होता है, उसमें कमी निकालने में ऐसे खिलाड़ी सबसे आगे रहते हैं।
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