आपने अक्सर पुलिसकर्मियों को आम लोगों से बदतमीजी से बात करते देखा होगा। अक्सर ही यह देखा जाता है कि लोग थाने में जाने से डरते हैं, थाने में शिकायत दर्ज कराने से डरते हैं, जाने पर पुलिसकर्मी बुरा व्यवहार करते हैं, विशेष रूप से उनके साथ जो गरीब हैं। भारत में पुलिस व्यवस्था कई मौके पर नाकाम दिखाई देती है। विशेष रुप से साधारण लोगों के साथ पुलिसिया रवैये की बात करें, तो भारत में पुलिस की छवि बहुत अच्छी नहीं है। आंदोलनों से निपटने का तरीका अक्सर ही लोकतांत्रिक मूल्यों की धज्जियां उड़ाता दिखाई देता है! भारत में मुख्य धारा की मीडिया भले ही कुछ चुनिंदा राज्य की पुलिस को लक्ष्य करे, लेकिन यह बात हर राज्य के पुलिस पर लागू होती है। जम्मू-कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक, हर जगह लगभग यही देखने को मिलता है।
इसका कारण यह है कि भारत में अब तक पुलिस सुधार लागू नहीं हुआ। स्पष्ट शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि भारत आज भी पुलिस व्यवस्था के मामले में औपनिवेशिक विरासत के अनुरूप कार्य कर रहा है। भारतीय पुलिस सेवा की स्थापना सन् 1857 की क्रान्ति के चार वर्ष बाद 1861 में हुई थी। तब से लेकर आज तक कुछ संशोधनों के साथ वही कानून अमल में हैं। गुलाम भारत के पुलिस कानूनों से आजाद भारत के नागरिक आजादी के 75 वर्षों बाद भी शासित हैं।
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अंग्रेजों ने अपनी सुरक्षा के लिए की थी इसकी स्थापना
दरअसल, ब्रिटिश उस समय सत्ता संचालित कर रहे थे। उनके द्वारा बनाई गई परंपरा के अनुसार भारतीय पुलिस का केवल एक मूल कार्य है, सत्ता पक्ष की सेवा और सुरक्षा की व्यवस्था करना। भारतीय इतिहास के रूप में हमें जो इतिहास पढ़ाया जाता है, उसमें अधिकांशतः गांधीवादी आंदोलन की चर्चा है। क्रांतिकारी आंदोलन को उतना स्थान नहीं दिया गया, जबकि सत्य यह है कि अंग्रेजों को हर दिन अपनी मौत का डर रहता था।
यदि आप पुलिस अधिनियम-1861 के अधिनियम के वर्ष पर ध्यान दें, तो आप पाएंगे कि अंग्रेजों ने वह प्रमुख कानून बनाया, जो 1857 के विद्रोह के बाद राज्य पुलिस बलों से संबंधित है। तब ब्रिटिश क्राउन ने अभी-अभी ईस्ट इंडिया कंपनी से पदभार संभाला था और इसलिए उसे क्रांतिकारी गतिविधि और असंतोष को रोकने के लिए एक संस्था की आवश्यकता थी। भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे प्रसिद्ध क्रांतिकारियों की गतिविधियों के अतिरिक्त कई ऐसे क्रांतिकारी सक्रिय थे, जिन्होंने छोटे स्तर पर छोटी-छोटी घटनाओं को अंजाम दिया।ऐसे में अंग्रेजों का प्रयास था कि भारतीयों के मन में डर बैठे, जिसके लिए भारतीय पुलिस की स्थापना हुई।
सरकार बदलते ही बदल जाती है पुलिस की मानसिकता!
मूल रूप से समस्या भारत की पुलिसिंग के नियमों से अधिक उस मनोवैज्ञानिकता की है, जो भारतीय पुलिस को घेरे हुए है। सरकार और सरकार का आदेश सबसे महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि सरकार की ओर से आदेश आता है कि कोई अराजतकता न हो, उच्चाधिकारियों की ओर से आदेश होता है कि बवाल रोकना है, तो पुलिसकर्मी बल प्रयोग करते हैं, लेकिन कितना बल प्रयोग करना है, इसकी कोई तय रूपरेखा नहीं है। सरकार का आदेश ही महत्वपूर्ण है, यही कारण है कि आज जो पुलिसकर्मी उत्तर प्रदेश में कथित तौर पर भाजपाई दिख रहे हैं, पंजाब में कांग्रेस की कठपुतली हैं, वही सरकार बदलते ही जो भी सत्तारूढ़ होगा, उसके इशारे पर काम करेंगे!
गौरतलब है कि 1947 में भारत आजाद हो गया, अंग्रेज चले गए। 26 जनवरी, 1950 को भारत लोकतांत्रिक गणराज्य बन गया। हालांकि, पुलिस बलों का औपनिवेशिक चरित्र अपरिवर्तित रहा। पुलिस अधिनियम, 1861 अभी भी लागू है। हालांकि, इसमें कुछ संशोधन जरुर किए गए हैं।इसलिए, 1947 के बाद पुलिस बल वही रहें, केवल उनके स्वामी बदल गए। पहले वे अंग्रेज़ों की सेवा करते थे और अब वे चुने हुए नेताओं की सेवा करने लगे। साथ ही साथ नीति निर्माताओं द्वारा लोगों के अनुकूल और जन-केंद्रित पुलिस संस्थान बनाने के लिए कोई सचेत प्रयास भी नहीं किया गया।
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अक्सर ये देखने को मिलता है कि अधिकांश पुलिसकर्मी जितनी चुस्ती से VIP सुरक्षा में सक्रिय दिखते हैं, उतनी सक्रियता अपराधियों को पकड़ने में नहीं दिखा पाते। ऐसा लगता है चोरों, हत्यारों अन्य अपराधियों को पकड़ना पुलिस का मुख्य काम नहीं है। ऐसे में पुलिस सुधार में सबसे बड़ी आवश्यकता उनकी मानसिकता में बदलाव की है। अगर पुलिस की बर्बरता को अतीत की बात बनाना है, तो देश को कुछ बड़े सुधारों की जरूरत है। पुलिस को अपने राजनीतिक आकाओं के नियंत्रण से मुक्त करने की आवश्यकता है और साथ ही उनके औपनिवेशिक मूल को एक जन-केंद्रित संरचना द्वारा प्रतिस्थापित करने की आवश्यकता भी है।





























