भारत में शैक्षणिक योग्यता का बहुत महत्व है। लोग शैक्षणिक योग्यता को वैयक्तिक श्रेष्ठता से जोड़कर देखते हैं और इसी श्रेष्ठता को सिद्ध करती है, आपके नाम के आगे लगनेवाला ‘डॉ’ उपसर्ग। भारत में किसी विशेष विषय में एक विद्वान के रूप में खुद को स्थापित करने के लिए PHD धारक होना एक अनिवार्य शर्त के समतुल्य है। लेकिन सवाल यह है कि PHD किसी की क्षमता को साबित करने के लिए आवश्यक क्यों है? क्यों शोध के विषय और उसकी गुणवत्ता पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता? डॉक्टरेट की डिग्री कैसे प्राप्त की जाती है? क्या इसके लिए किसी कठोर प्रक्रिया की आवश्यकता है? क्या PHD शोध के क्षेत्र में योगदान देने के लिए की जाती है या यह नामांकन के माध्यम से रोजगार पाने का एक तरीका है? इस आर्टिकल में हम इस पर विस्तार से चर्चा करेंगे और इसके सुधार के उपायों पर ध्यान केंद्रित करेंगे, अन्यथा एक दिन यह उपसर्ग अपनी महत्ता खो देगा।
PHD प्राप्ति के लिए पागल भीड़
आज कल के जमाने में लोगों के लिए डॉक्टरेट की डिग्री मज़ाक है। डॉक्टरेट जो कभी राष्ट्र और इसके अनुसंधान परियोजनाओं की रीढ़ हुआ करती थी, आज सिर्फ एक पागल भीड़ बन गई है। सभी नहीं, बल्कि बहुत से ऐसे छात्र जिनमें कौशल की कमी होती है, वे फेलोशिप पाने के लिए PHD सीटों पर कब्जा कर लेते हैं। भारत प्रति वर्ष 24,000 PHD स्कॉलरों के उत्पादन के साथ दुनिया में चौथे स्थान पर है। सूची में संयुक्त राज्य अमेरिका सबसे ऊपर है, जो हर साल 64,000 से अधिक डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान करता है। आर्थिक सहयोग और विकास संगठन के निष्कर्षों ने इन नंबरों को जारी किया है।
आज कल के चलन के अनुसार PHD में नामांकन मुख्य रूप से दो कारणों को पूरा करने के लिए किया जाता है। एक ‘डॉ’ उपसर्ग के माध्यम से खुद के व्यक्तित्व में श्रेष्ठता और गरिमा की भावना जोड़ना। दूसरा, ‘विद्वान’ होने के नाम पर सरकारी फेलोशिप हासिल करना। पर, इसमें अनुसंधान की गुणवत्ता और महत्ता गौण हो चुकी है और गुणवत्ता की इसी न्यूनता ने बदलती गतिशीलता और दृष्टिकोण के साथ, डॉक्टरेट से जुड़ी गरिमा और सम्मान को रसातल से भी नीचे पहुंचा दिया है।
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‘डॉक्टरों’ के महत्ता को गौण करती अंधी भीड़
ध्यान देने वाली बात है कि सभ्यता के आरंभिक युग से ही भारत ने इस बात की वकालत की है कि पढ़ने और ज्ञान प्राप्त करने के लिए कोई आयु सीमा नहीं होती है। लेकिन, आयु सीमा की परिधि को बेवजह या गलत कारण से तोड़ना भी न्यायोचित नहीं है। शिक्षा प्राप्ति ब्रह्मचर्य आश्रम में ही श्रेष्ठकर है और आज गलाकाट प्रतिस्पर्धा के युग में सही उम्र में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्ति बहुत आवश्यक है। प्राचीन काल में भारत ज्ञान प्राप्ति का गंतव्य स्थान था, लेकिन आज हम भारतीय ज्ञान के पैमाने पर कहां खड़े हैं, यह एक अनुत्तरित सवाल है। यह सवाल हम से ही होना चाहिए, क्योंकि हमारा देश हर साल लगभग 60 लाख स्नातक और 15 लाख स्नातकोत्तर पैदा करता है।
जहां कई भारतीय डॉक्टरेट हासिल करने में गर्व महसूस करते हैं, वहीं उनके साथ हो रहे निकृष्ट व्यवहार के बारे में बहुत कम लोग ही जानते हैं। डॉक्टरेट में नामांकित लोगों को अक्सर अनुसंधान करते और अनुसंधान बिरादरी में योगदान करते हुए नहीं देखा जाता है। ‘डॉक्टर’ उपसर्ग का स्वप्न देखते PHD विद्यार्थी अब कागज के ढेर से बंधे हुए नज़र आते हैं। कॉलेजों और गाइडों के दौरे भी बहुत कम होते हैं और सबसे बड़ी बात, इस उपसर्ग को पाने के लिए गाइड उनका दोहन करता है। गाइड उन विद्यार्थियों से अपने निजी काम करवाता है और विद्यार्थी भी इसके लिए खुशी-खुशी राजी हो जाता है, क्योंकि उसे अनुसंधान के क्षेत्र में श्रम किए बिना डॉक्टरेट की उपाधि जो मिल जाएगी।
आप स्वयं ऐसे कई शिक्षण संस्थानों को जानते होंगे, जो पैसे लेकर डॉक्टरेट की उपाधि दे देंगे। इसमें दोषी सरकार की संस्था भी है, जो अपने शोधार्थियों को न सिर्फ कम अनुदान देती है और न ही गुणवत्ता निखारने के लिए कोई समर्थन। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने हाल ही में भारत में PHD शोध की गुणवत्ता पर चिंता व्यक्त की थी। इसका कारण डॉक्टरेट में नामांकन की संख्या में 50 फीसदी की बढ़ोत्तरी है। लेकिन थीसिस की गुणवत्ता में लगातार गिरावट आई है। यह कहना गलत नहीं होगा कि PHD गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के नाम पर चल रहा एक घोटाला है।
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लगातार बिगड़ती गुणवत्ता
जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, PHD कार्यक्रमों के नामांकन में वृद्धि हुई है। लेकिन चुने गए विषयों की गुणवत्ता और लिखी जा रही थीसिस लगातार बिगड़ती जा रही है। जिन विषयों को बोर्ड की मंजूरी के बाद चुना जाता है, वे भी अब प्रासंगिक नहीं हैं। आज कल लिखी जा रही थीसिस प्रमुख रूप से सर्वेक्षण आधारित है। आज की पीढ़ी विश्लेषणात्मक शोध करना चाहती है और ऊपर से चुने गए विषयों और लिखी गई थीसिस की कोई प्रासंगिकता नहीं। जो थीसिस आज प्रमुख रूप से लिखी गई है वह सैद्धांतिक दोहराव वाली है, जिसमें कोई समकालीन प्रासंगिकता और उपयोग नहीं है।
उदाहरण के लिए चुने गए कुछ विषय इस प्रकार हैं- ’19वीं और 20वीं सदी में गुजरात के आदिवासी आंदोलन’, ‘केरल में उपनिवेश और विकास की समस्याएं- 1850-1956 की सार्वजनिक कार्रवाई के विकास और प्रकृति का एक केस स्टडी’, ‘औपनिवेशिक पंजाब में विधवाएं और विधवापन’ और ‘1947 से झारखंड में कोयला क्षेत्र और इस्पात संयंत्रों में कामकाजी महिलाओं की स्थिति पर एक सर्वेक्षण’।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में एक बड़ी राशि का निवेश करने के बाद भी अनुसंधान राष्ट्र को लाभ नहीं दे रहा है, क्योंकि इस क्षेत्र में किया गया कार्य पर्याप्त रूप से नवीन नहीं है। इतिहास, राजनीति विज्ञान और साहित्य के विषय अक्सर दोहराए जाते हैं और समकालीन दुनिया से दूर होते हैं। यह थीसिस गुणवत्ता में काफी नीचे है और अक्सर साहित्यिक सामग्रियों से भरे होते हैं। साहित्यिक चोरी की सीमा की जांच करने के लिए ज्यादातर विश्वविद्यालयों के पास कोई तंत्र नहीं है और यह अनियंत्रित रूप से चुराई हुई किताब बनकर रह जाती है। यह किताब मात्र ‘विद्वान’ ‘नकल’ के अलावा कुछ नहीं हैं। MP3 और जीपीएस PHD विद्वानों के योगदान के बिना जीवन का हिस्सा नहीं होते। लेकिन लगातार बिगड़ती गुणवत्ता के साथ, डॉक्टरेट के मूल्य और उपयोगिता पर बहस चल रही है। क्या डॉक्टरेट वास्तव में राष्ट्र के लिए फायदेमंद है? या यह सिर्फ संसाधनों की बर्बादी है?
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