या निज़मुद्दीन औलिया,या निज़ामुद्दिन सलका
कदम बढ़ा ले, हदों को मिटा ले
आजा खाली पल में, पी का घर तेरा
तेरे बिन खाली, आजा खालीपन में
ये पंक्तियाँ रॉकस्टार के एक गाने ‘कुन फाया कुन’ की हैं। रॉकस्टार की रिलीज को करीब 10 वर्ष बीत चुके हैं। पर, यह गाना अभी भी लोगों के यादों में ताज़ा है। इसके शब्द इरशाद कामिल के है और संगीत दिया है एआर रहमान ने। दरअसल, यह गाना एक विशुद्ध सूफी संगीत है और इसी गाने के सहारे हम आपको सूफी इतिहास के काले अध्याय से अवगत करने का प्रयत्न करेंगे।
सबसे पहले तो अधिकांश लोग यही नहीं जानते होंगे कि ‘कुन फाया कुन’ का अर्थ क्या है? क्योंकि ‘कुन फाया कुन’ एक हिंदी नही बल्कि अरबी शब्द है, जिसका हिंदी अर्थ है “हो… और हो गया” अर्थात यहां अल्लाह की बात कहते हुए कहा गया है कि जब यहाँ कुछ भी नही था तो अल्लाह ने कहा “हो… और यहाँ सब कुछ हो गया” अर्थात ये कायनात वर्चस्व में आ गई। यह वाक्य सुराह बारह 2:117 से लिया गया शब्द है। मूलत: यह शब्द अरबी तथा फ़ारसी दोनों भाषाओं के मिश्रण से बना है और यह गाना ‘sufism’ के काले और हिंदुओं को दिग्भ्रमित करनेवाले इतिहास को परिलक्षित करने वाला एक मानद उदाहरण है।
क्या है सूफ़ीवाद और उसका इतिहास
हमारे देश के युवाओं को अपने वृहद और गौरवशाली सनातन संस्कृति के बारे में थोड़ी बहुत ही जानकारी है! सनातन संकृति की विराटता, विविधता और वैभव के अथाह सागर को देखते हुए वो इसमें डुबकी लगाने से भी डरते हैं। ना तो वेद, उपनिषद, शास्त्र और ग्रंथ के बारे में जानते है और ना ही इसकी भाषा समझते हैं। इसी कारण अन्य धर्मों और उनसे उपजे पंथों को उन्हें भ्रमित कर धर्मांतरित करने का मौका भी मिल जाता है। इन्ही में से एक है-सूफी संप्रदाय। दरअसल, ये इस्लाम का ही हिस्सा है। इसके पोर-पोर में थोडी मिठास के साथ कट्टरता का विष भरा पड़ा है! इस थोड़ी मिठास के कारण ही हम भ्रमित हो जाते है और दरगाह पर माथा नवाते और चादर चढ़ाते दिखते हैं!
इस्लामिक विद्वानों के अनुसार, सूफ़ीवाद एक रहस्यमय इस्लामी विश्वास और अभ्यास है, जिसमें मुसलमान ईश्वर के प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुभव के माध्यम से प्रेम और ज्ञान की सच्चाई को खोजना चाहता है। वहीं, सूफ़ीवाद को दरअसल एक मुसलमान भी गैर-इस्लामिक मानता है क्योंकि ईश्वर का प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुभव या उसकी प्रतिमूर्ति गैर-इस्लामिक है! परंतु मुसलमानों के लिए ये तब तक उचित है जब तक ये अन्य धर्मों के लोगों को धर्मांतरित करता रहे। कहने का अर्थ ये है कि आपके समक्ष कट्टर मुसलमान सूफ़ीवाद के भ्रम का शिकार बनाकर जबरन धर्मांतरण का मॉडल पेश करता है।
सूफ़ीवाद के विभिन्न चरण
बहुत से लोगों को यह नहीं मालूम होगा कि सूफ़ीवाद का पहला चरण ही शरीयत है। इसका अर्थ यह है कि सूफी बनने के लिए आपको शरीअत पर पक्का विश्वास होना चाहिए। शरीयत के विद्वान बनने के बाद आप घुमंतू बनते हैं अर्थात घूम-घूम कर अल्लाह का प्रचार करना होता है, जिसे तारिका भी कहते हैं। उसके बाद सिलसिलाह जिसे ताइफा कहते हैं और फिर ख़ानक़ाह की उपाधि मिलती है, जिसका शाब्दिक अर्थ है अल्लाह का मित्र। उसके बाद जब उस इंसान की मृत्यु हो जाती है तब वह पीर कहलाने लगता है और उसके मृत्यु की जगह को दरगाह कहा जाता है।
उसके दरगाह के संचालन की ज़िम्मेदारी उसके शिष्य की होती है, जिसे मुरीद भी कहते हैं और हर साल वहां लगने वाले मेले को उर्स कहा जाता है। फिर हम और आप जैसे भोले भले हिन्दू वहां चदार चढ़ने लगते हैं। इन घुमंतू धर्मप्रचारकों को ईश्वर के समतुल्य दर्जा दे देते हैं और ये तनिक भी नहीं सोचते कि आखिरकार इसकी आधारशिला तो शरीयत ही है।
भारत में सूफ़ी संप्रदाय का इतिहास
भारत में चिश्ती, सुहरावर्दी और नक्शबंदेया कुछ प्रसिद्धा सूफी पंथ है। इन सूफी संतों को दिल्ली सल्तनत से लेकर मुगलिया दरबार में राजकीय सम्मान मिलता था। दरअसल, इस्लाम में ईश्वर की बहुत ही रूढ़िवादी अवधारणा है। अतः जब सूफ़ीवाद हमारे सामने अल्लाह को दोस्त के रूप में प्रस्तुत करता है, तो हम पिघल जाते हैं और इस्लाम को सबसे उदारवादी धर्म मानकर इनका गुणगान करने लगते हैं जबकि हम ये भूल जाते हैं कि एक कट्टरपंथी मुसलमान कभी भी सूफ़ीवाद को मान्यता नहीं देता!
परंतु ये छल और भ्रम का जाल बुनकर हिंदुओं को इस्लाम के दरवाजे पर घसीटने में सफल होते हैं। मालूम हो कि चिश्ती पंथ की स्थापना पीर मोइनूद्दीन चिश्ती ने की थी। बख्तियार काकी इनके मुरीद अर्थात शिष्य थे और उनके शिष्य थे बाबा फरीद, जिन्हें पंजाबी भाषा का विद्वान माना जाता है। बाबा फरीद के 4 शिष्य (मुरीद) हुए। प्रथम, जमालुद्दीन अहमद जिन्हें जमालिया सूफी का प्रवर्तक माना जात है, जो जालंधर में है। उसके बाद आते है निज़ामुद्दीन औलिया जो निजामिया के प्रवर्तक माने जाते हैं जोकि दिल्ली के इलाके में फैले हुए है। इसी तरह अलाउद्दीन साबिर और घेशु दराज़ भी हुए जिन्होंने दक्षिण में इनके नाम और इस्लाम को आगे बढ़ाया।
जब हिन्दुओं को मौत के घाट उतार दिया गया
मुंबई का मशहूर हाजी अली दरगाह कादिरीया सूफी वर्ग से आते थे, जो जौनपुर, आगरा और महाराष्ट्र तक फैले हुए हैं। फिरदौसीया सूफी समुदाय भी आगरा और जौनपुर में फैला है, जिसने कबीर के उपदेश और उनके अस्तित्व को ही हाइजैक कर लिया और उन्हें एक सूफी संत बता दिया।अब इन सबसे बड़े और कट्टर वर्ग का नाम तो आपने सुना ही होगा। ये हैं-सुहरावर्दी। सुहरावर्दी बाशरा सूफी वर्ग से आते हैं, जिसका अर्थ है शरीयत को माननेवाले। ये वही सुहरावर्दी है, जिन्होंने जिन्ना की ‘Direct Action’ के आवाज़ पर बंगाल विशेषकर नोआखअली में हजारों हिन्दुओं को मौत के घाट उतार दिया था।
हिंदुओं के ज्ञान की सुबह कब होगी?
कहने को तो सूफी फकीरी में जीते हैं पर सुहरावर्दी धन संचय और भोग विलासितावाले जीवन में पूर्ण विश्वास रखते हैं। इतना ही नहीं राजनीतिक सत्ता प्राप्तकर बलपूर्वक धर्मांतरण को आश्रय देते हैं। इन सभी में नक्शबंदेया सूफ़ियों का उल्लेख करना अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है। दीन-ए-इलाही की स्थापना और अकबर के शासनकाल को धार्मिक सहिष्णुता के रूप में चिन्हित करनेवालों के मुंह पर नक्शबंदेया एक जोरदार तमाचे के रूप में है। नक्शबंदेया अत्यंत कट्टर थे और किसी प्रकार के काला, नृत्य और साहित्य को नकार देते थे। मुगलों के साथ इनके उज्बेकिस्तान से ही वैवाहिक संबंध थे। अकबर के काल में ये इबादतखाने और दीन-ए-इलाही की अवधारण के कारण खूब फले फुले। सूफी संत शेख अहमद सरहिंदी उर्फ बाकी बिल्ला तो इतना कट्टर था कि जहाँगीर जैसे कट्टर शासक ने कट्टरता की वजह से उसे जेल तक में डलवा दिया।
ऐसे कितने ही एतिहासिक तथ्य हैं, जो सूफ़ियों के बर्बरताओं की कहानियां कहते हैं। जबरन धर्मांतरण और हिंदुओं का कत्लेआम करनेवाले शासकों का महिमामंडन करना ही इनका काम था। इसके बदले में इन्हें राजकीय सम्मान और देवतुल्य स्थान मिलता था। मरने के बाद नाम, पहचान और दरगाह मिलता था। जहां कालांतर में हम जैसे हिन्दू ही उनपर चादर चढ़ाने लगे, जिनके नरसंहार की पटकथा इन्होंने लिखी। पता नहीं हिंदुओं के ज्ञान की सुबह कब होगी। आखिर समझ नहीं आता की द्वैत, अद्वैत, अद्वैत-द्वैत, योग, ध्यान, धारणा, समाधि, यम, नियम आदि से ईश्वर को पुजनेवाले हिंदुओं को सूफ़ीवाद की जरूरत क्यों पड़ी?