राजनीतिक सुचिता को बरकरार रखना भारतीय लोकतंत्र की ख़ूबसूरती है, पर वहीं जब प्रतिद्वंद्वी दल एक दूसरे के प्रति मुखर न होकर उनके प्रति सौम्य हो जाएं, तो समझ लिया जाना चाहिए कि मामला कहीं न कहीं तो गड़बड़ है। हाल ही में एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बसपा सुप्रीमो एवं उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के प्रति बहुत सरल, सौम्य और उदारवादी टिप्पणी की है। वहीं, दूसरी ओर मायावती भी स्पष्ट तौर पर भाजपा को कुछ भी बोलने से बचती नजर आ रही हैं। और यह तब हो रहा है, जब राज्य में चुनाव की रणभेरी बज चुकी है और 4 चरण के चुनाव पूर्ण भी हो गए हैं। ऐसे में भाजपा और बसपा का एक दूसरे के प्रति लगाव होलै-होलै ही सही, पर जगजाहिर होता नजर रहा है। इस आर्टिकल में हम विस्तार से जानेंगे कि आखिर भाजपा और बसपा के अंदरखाने क्या खिचड़ी पक रही है और आखिरकार यह भाजपा के लिए कितना फायदेमंद साबित हो सकता है।
अमित शाह की सौम्य प्रतिक्रिया
दरअसल, हाल ही में एक साक्षात्कार में गृह मंत्री अमित शाह यह कहते हुए नज़र आए थे कि मायावती ने अपनी प्रासंगिकता नहीं खोई है। उनकी पार्टी को उत्तर प्रदेश में वोट मिलेगा। बसपा ने अपनी प्रासंगिकता बनाए रखी है। उन्होंने कहा, “मुझे विश्वास है कि उन्हें वोट मिलेगा। मुझे नहीं पता कि यह कितनी सीटों में तब्दील होगा, लेकिन बसपा को वोट मिलेगा। मायावती की जमीन पर अपनी पकड़ है। जाटव वोटबैंक मायावती के साथ जाएगा। मुस्लिम वोट भी बड़ी मात्रा में मायावती के साथ जाएगा।” जब शाह से यह पूछा गया कि क्या इससे भाजपा को फायदा होगा, तो उन्होंने कहा, “मुझे नहीं पता कि इससे भाजपा को फायदा होगा या नुकसान। यह उस सीट पर निर्भर करता है, लेकिन यह सच नहीं है कि मायावती का रेलवेंस खत्म हो चुका है।”
ऐसे फूल जब राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के मुख से बरसते हैं, तो इन बातों के एक नहीं कई मायने निकाले जाने लगते हैं। इसी बयान का जवाब मायावती की ओर से भी आया। जब उनसे शाह द्वारा बसपा को मजबूत बताने वाले बयान पर सवाल किया गया तो उन्होंने कहा, ”मैं समझती हूं कि यह उनकी महानता है कि उन्होंने सच्चाई को स्वीकार की है। लेकिन मैं उनको यह भी बताना चाहती हूं कि पूरे उत्तर प्रदेश में बीएसपी को अकेले दलितों और मुसलमानों का ही नहीं, बल्कि अति पिछड़े और सवर्ण समाज यानी सर्व समाज का वोट बहुजन समाज पार्टी को मिल रहा है।”
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पूर्व में भी चुका है भाजपा-बसपा गठजोड़
ये नई बात नहीं है, पूर्व में हुए कई विधानसभा और लोकसभा के चुनावों से लेकर मौजूदा विधानसभा चुनाव तक, बसपा कई बार केन्द्र में शासित भाजपा सरकार को घेरने के बजाय समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पर वार करती अधिक नज़र आती रही है। बसपा और भाजपा के पुराने संबंधों की बात की जाए, तो 2 जून 1995 को हुए गेस्ट हाउस कांड की घटना का नतीजा यह हुआ कि भाजपा मायावती की तारणहार बन गई। पहले तो भाजपा के वरिष्ठ नेता स्वर्गीय ब्रह्मदत्त द्विवेदी ने उनकी इज़्ज़त बचाई थी और कुछ दिनों बाद, राज्यपाल मोतीलाल वोरा को एक पत्र सौंपा गया, जिसमें कहा गया था कि अगर बसपा ने सरकार बनाने का दावा पेश किया तो भाजपा उनका समर्थन करेगी।
उसके बाद के परिदृश्य थोड़े अलग थे, जब वर्ष 1996 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 174 सीटें मिली, जो पार्टी बहुमत से 39 कम थी। विधानसभा को निलंबित कर दिया गया था, जिसके बाद राष्ट्रपति शासन लगाया गया। उसके बाद अप्रैल 1997 में भाजपा ने बसपा के साथ एक समझौता किया, जिसके पास 67 विधायक थे। यह तय हुआ कि सरकार में दोनों पार्टियों की ओर से 6-6 महीने तक का सीएम बनेगा। मायावती के पास पहले 6 महीने थे, लेकिन जब कल्याण सिंह की बारी आई तो मायावती ने आरोप लगाया कि उन्होंने दलितों के हित में उनके द्वारा जारी किए गए आदेशों को रद्द कर दिया और अपना समर्थन वापस ले लिया।
बसपा के इस कदम से भाजपा को मिलेगा लाभ
भले ही राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में मायावती और भाजपा का कोई गठबंधन सिरे चढ़ता नहीं दिखाई दिया, परंतु समाजवादी पार्टी से खिन्न बसपा और मायावती एक लंबे अंतराल से भाजपा को निशाने पर कम लेते दिख रहे हैं और बसपा सपा की जड़ें उधेड़ने में अग्रणी भूमिका निभा रही हैं। इस बार चुनावों के प्रचार में मायावती का बढ़-चढ़कर हिस्सा न लेना, इस बात की तस्दीक भी करता है। बसपा द्वारा उतारे गए उम्मीदवारों के विश्लेषण से पता चलता है कि भाजपा की तुलना में बसपा अधिक सीटों पर सपा को नुकसान पहुंचा सकती है। न जाने इस चुनाव में बसपा किस रणनीति के तहत चुनाव लड़ रही है, क्योंकि भाजपा को छोड़ वो सपा और कांग्रेस की बखिया उधेड़ने में लगी है।
ध्यान देने वाली बात है कि बसपा द्वारा मैदान में उतारे गए मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या अधिक है। जहां सपा अपने सभी मुस्लिम और यादव समर्थन के साथ-साथ अन्य समुदायों के अतिरिक्त वोटों को इकट्ठा करके भाजपा से आगे निकलने की उम्मीद कर रही है, ऐसे में बसपा सपा के मुस्लिम तुष्टिकरण पर भीतरघात कर हर उस सीट पर भाजपा को लाभ पहुंचा रही है।
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सपा की डूबेगी नैया
बता दें, इस बार 403 विधानसभा सीटों पर बसपा अकेली ही चुनाव लड़ रही है। वर्ष 2017 में बसपा ने 100 मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था, तो केवल चार ही जीत सके थे। मौजूदा समय में कम से कम 28 सीटों पर, बसपा और सपा गठबंधन दोनों ने मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। इसके अलावा 44 सीटों पर सपा के गैर-मुस्लिम उम्मीदवारों के खिलाफ बसपा ने मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए हैं। जिस प्रकार बसपा का बीता कल भाजपा के साथ उठापटक वाला ही सही, पर ठीक ठाक रहा है, ऐसे में यदि गृह मंत्री अमित शाह नरम पड़ते हुए बसपा सुप्रीमो और बसपा की तारीफ कर रहे हैं, तो निस्संदेह यह सपा के लिए अच्छी खबर नहीं है। ऐसे में यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है, जहां भाजपा को सरकार बनाने के लिए थोड़े ही सही पर विधायकों की आवश्यकता पड़ी, तो वो बहुजन समाज पार्टी ही होगी जो आगे आकर पुनः सहभागिता दर्ज कराएगी। ऐसे में अमित शाह और मायावती की इस मधुर व्यवहार कुशलता को जनता भी समझने लगी है और धीरे-धीरे यह भी स्पष्ट हो रहा है कि अब ऊंट किस करवट बैठेगा!
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