हाल ही में संपन्न हुए 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम घोषित हो चुके हैं, जिनमें से 4 राज्यों में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने प्रचंड बहुमत से विजय प्राप्त की है। इसमें सबसे प्रभावी विजय उत्तर प्रदेश की है, जहां अनेक चुनौतियों और बाधाओं के बाद भी भाजपा ने न केवल अपना शासन यथावत रखा, अपितु 273 सीटों सहित लगातार दूसरी बार शासन पर अपनी मुहर लगायी है।
समाप्त होने पर पहुंच चुका है मायावती का राजनीतिक करियर
लेकिन इस विजय के साथ ही एक पार्टी, विशेषकर उसके सर्वेसर्वा के राजनीतिक अंत की नींव स्थापित हो चुकी है। इसकी पटकथा तो 2019 के लोकसभा चुनाव में ही लिखी जा चुकी है, परंतु इसे मूर्त रूप 2022 के विधानसभा चुनावों में दिया गया। अब इस विधानसभा चुनाव के पश्चात मायावती का राजनीतिक करियर लगभग समाप्त होने के क्षितिज पर पहुंच चुका है।
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वर्तमान विधानसभा चुनाव के परिणामों के अनुसार, जहां भाजपा समर्थित एनडीए ने 403 सीटों वाली उत्तर प्रदेश विधानसभा में कुल 273 सीटें प्राप्त की, तो वहीं समाजवादी पार्टी गठबंधन ने अपना पूरा जोर लगाकर 125 सीटें प्राप्त की। लंबे चौड़े दावे करके भी कांग्रेस को मात्र 2 सीटें मिली। लेकिन सबसे बुरा हाल तो बहुजन समाज पार्टी का रहा जिसने चुनाव तो सभी सीटों पर लड़ा पर जीत मात्र एक सीट पर हुई। पिछली बार के अनुपात में मायावती को मात्र 13 प्रतिशत वोट मिले और 19 सीट छोड़िए, वह तो दहाई का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाई।
ऐसा भी क्या हुआ कि बसपा के बुरे दिन आ गए?
एक समय जिस व्यक्ति का राज पूरे उत्तर प्रदेश पर होता था, अब वह 5 सीट भी नहीं प्राप्त कर पा रही है। परंतु ऐसा भी क्या हुआ, जिसके कारण मायावती के राजनीतिक भविष्य पर ही प्रश्न चिन्ह लग चुका है?
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1956 में नई दिल्ली के निकट जन्मी मायावती ने राजनीति में अपनी पहचान बनाने के लिए काफी लंबा और अनोखा सफर तय किया है। 1995 में उन्होंने प्रथमत्या सत्ता प्राप्त की थी, और वह देश के सबसे युवा प्रशासकों में से एक थी। अनेक उतार चढ़ावों के बाद उन्हें 2007 में पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने का अवसर मिला। ये अपने में बहुत महत्वपूर्ण था क्योंकि 1991 के बाद उत्तर प्रदेश में किसी पार्टी को ऐसा अवसर नहीं मिला था।
समय और परिस्थितियां बदलते देर नहीं लगती
एक समय बहुजन समय पार्टी की पहुंच केवल उत्तर प्रदेश ही नहीं, अपितु राजस्थान, मध्य प्रदेश, और लगभग समस्त उत्तर भारत तक थी। इसी के कारण एक समय लोकसभा में इनकी 20 से भी अधिक सीटें थी, और ये सरकारें गिरने या संभालें तक का दम रखती थी। परंतु वो कहते हैं न, समय और परिस्थितियां बदलते देर नहीं लगती।
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मायावती क्यों आज किसी योग्य नहीं रही, इसका कारण बताते हुए TFIPost के एक विश्लेषणात्मक लेख में बताया गया है,
“65 साल की मायावती ने पार्टी में नेतृत्व की दूसरी पंक्ति स्थापित नहीं की है। एक स्पष्ट उत्तराधिकारी के अभाव में बसपा पार्टी कैसे आगे बढ़ सकती है? यही प्रश्न बसपा के भविष्य की धुंधला चित्र प्रस्तुत करता है। वर्ष 2007 में मायावती ने प्रसिद्ध दलित-ब्राह्मण-मुस्लिम गठबंधन बनाया। हालांकि, मुसलमान अब समाजवादी पार्टी, जबकि ब्राह्मण भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पीछे लामबंद हो चुके है। दलितों के बीच भी बसपा ने अपना समर्थन खो दिया है। भाजपा का यह प्रचार काफी सफल रहा कि मायावती के सत्ता में रहने से दलितों को कोई फायदा नहीं हुआ है, क्योंकि उन्होंने सिर्फ अपनी जाति जाटव के कल्याण के लिए काम किया। शायद इसीलिए उत्तरप्रदेश की 17 अतिपिछड़ी जातियां या तो भाजपा के पीछे लामबंद हैं या फिर अपने अपने जातीय नेताओं को वोट देती है।
इसके अतिरिक्त जिस प्रकार से बसपा को केवल 12 से 13 प्रतिशत वोट मिले हैं, वो अपने आप में इस बात का सूचक है कि अब तो उनके अपने यानी पिछड़े वर्ग के लोग भी उन्हें अपनाने को तैयार नहीं है। अन्यथा क्या कारण हो सकता है कि जो बसपा कभी अपने दम पर 2007 तक 403 में से 206 सीटें लाती थी, वो अब 1 सीट ही मुश्किल से ला पा रही है? कारण केवल एक है – मायावती, जिन्हें अब राजनीति से सन्यास ले लेना चाहिए।