हम भारतीयों के व्यक्तित्व में आम तौर पर दो खामियां पाई जाती है। प्रथम, हम भेड़चाल की मानसिकता से बहुत ग्रस्त हैं और दूसरा हम शिक्षा को सिर्फ कमाई का स्रोत समझते हैं। हमारे इस मानसिकता ने शिक्षा के क्षेत्र में एक नई किस्म की भेड़चाल का आरंभ किया है और वो है स्नातक के बाद MBA करना। हमें लगता है कि हमारी किस्मत की चाभी या फिर शिक्षा की असली परिणीति प्रबंधन की पढ़ाई से जुड़ी है। ऊपर से अगर शर्मा जी लड़के ने इंजीनियरिंग के बाद MBA किया है, तो MBA करना सबसे बड़ी अनिवार्यता हो जाती है। नाते-रिश्तेदार भी बिन मांगे सलाह देने लगते हैं कि भाईसाहब! यदि लड़के को सेटल करना है तो “MBA” करा दीजिये।
फिर शिक्षा के क्षेत्र में इस मोक्ष प्राप्ति के लिए विद्यार्थी सहित पूरा परिवार निकल पड़ता है। देश विदेश के कॉलेजों की खाक छानी जाती है। कोचिंग का दौर शुरू होता है। CAT से लेकर GMAT और अन्य देशी-विदेशी तथा निजी संस्थानों के फॉर्म भरे जाते हैं। पर, क्या मजाल किसी की, जो CAT निकाल पाए। CAT परीक्षा पास करने के लिए 99 percentile की जरूरत होती है, जिसे देखकर लगता है जैसे ये कोचिंग देने वाले मास्टरजी और परीक्षा पत्र बनाने वाले के भी बस की बात नही है। वैसे, अगर CAT निकल भी जाए, तो विद्यार्थी का सबसे पहला संबंध प्रबंधन की शिक्षा से नहीं, बल्कि बैंक और लोन से स्थापित होता है, क्योंकि जिस देश के लोग साल में मात्र 1 लाख 20 हज़ार रूपया ही कमाते हों, वो 20-25 लाख की फीस कहां से जमा करेंगे? ऊपर से फीस के अलावा बच्चे का निजी एवं खाने-पीने तथा पहनने का खर्च भी तो है। अतः एक अच्छी जीवन की चाह में बच्चे लोन लेकर पढ़ाई पूरी करते हैं और फिर चालू होता है, भ्रम और आर्थिक बदहाली का दुष्चक्र!
कर्ज के बोझ तले दबे हैं अमेरिका में MBA स्नातक
उच्च ब्याज दरों पर लोन लेकर निजी या फिर IIM जैसे शिक्षण संस्थानों से बच्चे पढ़ तो लेते हैं, लेकिन एक अदद रोजगार मात्र 5 प्रतिशत बच्चों को ही मिलता है। ये 5 प्रतिशत बच्चे शर्माजी के लड़के की श्रेणी में आते हैं। बाकी 90 प्रतिशत बच्चे इतनी कम सैलरी पर प्लेसमेंट पाते हैं कि वो अपना ब्याज तक चुकाने में असमर्थ हो जाते है या फिर ब्याज चुकाते-चुकाते ही जीवन के 10-12 वर्ष बीत जाते हैं। कुछ बच्चे GMAT के माध्यम से विदेश से प्रबंधन की पढ़ाई करने का मार्ग चुनते हैं। यह भी एक छलावा ही है, क्योंकि विदेश में भी MBA के कोर्स सस्ते नहीं आते और न ही कोई भारी भरकम पैकेज मिलता है।
संयुक्त राज्य अमेरिका के शिक्षा विभाग द्वारा जारी किए गए नए आंकड़ों के अनुसार, यूएस के MBA स्नातकों पर सामूहिक रूप से 3.7 बिलियन डॉलर का शैक्षणिक ऋण है। नेशनल सेंटर ऑफ एजुकेशन स्टैटिस्टिक्स के डेटा से पता चलता है कि MBA के आधे से अधिक छात्र अपनी डिग्री ऋण के माध्यम से वित्त पोषित करते हैं। वर्ष 2016 में अमेरिका के प्रबंधन स्नातकों पर 66, 300 डॉलर, अर्थात् करीब 50 लाख का औसत छात्र ऋण था, जो लगातार बढ़ रहा है। अब फीस देखिये- हार्वर्ड और शिकागो की आगामी शैक्षणिक वर्ष के लिए ट्यूशन फीस क्रमशः $73,400 और $73,000 है।
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MBA की लागत कितनी है?
ध्यान देने वाली बात है कि महामारी मंदी के कारण, वर्ष 2020 में MBA कार्यक्रमों के लिए आवेदन बढ़े हैं। लेकिन, बिजनेस स्कूल की उच्च लागत अभी भी जस की तस बनी हुई है। MBA एजेंसी, मैनहट्टन की प्रमुख स्टेसी कोप्रिंस का कहना है कि बिजनेस स्कूल इतना महंगा होने का एक कारण यहां पाठ्यक्रम पढ़ाने वाले लोग हैं। यदि आप ऐसे प्रोफेसर चाहते हैं, जो न केवल शिक्षाविद हों, बल्कि वास्तव में व्यवसाय की दुनिया में सफल हैं, तो आपको उसे अच्छे वेतन का भुगतान करना होगा। MBA 360 एडमिशन के सलाहकार बारबरा कॉवर्ड कहते हैं, “बिजनेस स्कूल भी छात्रों को करियर प्लेसमेंट में मदद करने के लिए संसाधनों पर बड़ी मात्रा में खर्च करते हैं। इसमें नेटवर्किंग शिखर सम्मेलन (कभी-कभी शहर से बाहर), सेमिनार और व्यक्तिगत परामर्शदाता शामिल होते हैं।“
पर, सबसे बड़ा सवाल है कि शिक्षा में इस तथाकथित exposure या यूं कहें ग्लैमर से बच्चे कितना सीख पाते हैं। अगर ऊपर के 1-2 प्रतिशत मेधावी बच्चों को निकाल दें, तो इस ग्लैमर में लगाया गया पैसा व्यर्थ जाता है और बच्चों के सीख और ज्ञान में बढ़ोत्तरी करने के बजाए मात्र एक बिजनेस ट्रिप बनकर रह जाता है। इससे न सिर्फ हमारे वित्तीय संस्थानों पर शिक्षा ऋण का बोझ बढ़ जाता है, अपितु यह छात्रों के अवसाद और आर्थिक बदहाली का कारण भी बनता है। IIM की फीस बढ़ने से शिक्षा ऋण निर्धारित अवधि पर चुकौती एक चुनौती बन गया है। समय पर अवैतनिक ऋणों के परिणामस्वरूप खाता NPA हो जाता है और वित्तीय संस्थानों की बैलेंस शीट खराब हो जाती है। प्रशिक्षित दिमाग देनदारियों के बोझ के साथ विश्वविद्यालयों से बाहर आते हैं। आर्थिक ऋण के तले दबे बच्चे सीमित स्वतंत्रता और रचनात्मक सोच की कमी का अनुभव करते हैं। इसलिए वे अर्थव्यवस्था को उन ऊंचाइयों पर नहीं ले जा पाते, जिसके लिए उन्हें शिक्षित किया गया है।
बच्चों को अपनी रुचि के हिसाब से बढ़ना चाहिए आगे
यह नीति निर्माताओं के लिए भारत के राष्ट्रीय हित के प्रमुख प्रबंधन संस्थानों के शुल्क ढांचे में संशोधन का गंभीर रूप से निरीक्षण करने का समय है। व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के शुल्क में अत्यधिक वृद्धि, प्रबंधकीय कौशल और प्रतिष्ठित पेशेवर पद प्राप्त करने के उम्मीदवारों के सपनों को विफल कर देगी। लंबे समय में, प्रबंधकीय कार्यबल के कुशल पूल की कमी अर्थव्यवस्था में एवं उत्पादकता में गिरावट का मुद्दा खड़ा करेगी। फीस वृद्धि के झटके को कम करने के लिए शिक्षा ऋण छात्रों के लिए समाधान नहीं हो सकता है। नीति निर्माताओं को उपर्युक्त प्रश्नों को ध्यान में रखते हुए प्रमुख संस्थानों में इस तरह की अनियमित शुल्क वृद्धि को रोकने के लिए कदम उठाना चाहिए। बच्चों को भी सोच समझकर और अपनी रुचि को पहचानते हुए MBA करने का सोचना चाहिए। अगर आप सिर्फ इसे अपनी सीवी को रोचक बनाने और पैसा कमाने का माध्यम समझेंगे, तो स्थिति खराब होते देर नहीं लगेगी और फिर आपके पास अपने MBA करने के निर्णय पर पछताने के अलावा कुछ नहीं बचेगा।
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