“इस दुनिया में सबसे बड़ी योद्धा एक माँ होती है….”
“जान से भी प्यारी तुम्हारी दोस्ती है, खुशी खुशी कुर्बान हो जाऊंगा….”
आज जिधर देखो, उधर बहुभाषीय सिनेमा की धूम मची हुई है। यहाँ तक कि हिन्दी फिल्म उद्योग में इनका वर्चस्व व्याप्त है। RRR का उत्सव खत्म हुए एक महीना भी नहीं हुआ कि KGF : Chapter 2 के तूफान ने सभी को धो डाला है। इस फिल्म ने केवल 11 दिन में लगभग 150 करोड़ के बजट के मुकाबले वैश्विक स्तर पर 880 करोड़ से अधिक का कलेक्शन किया है, जिसमें से हिन्दी संस्करण से ही इसने 320 करोड़ से अधिक का कलेक्शन प्राप्त किया है –
#RockyBhai is #RocKING on [second] Sun… #KGF2 hits it out of the stadium yet again… *Weekend 2* crosses ₹ 50 cr mark, FANTASTIC… NOW, 6TH HIGHEST GROSSING *HINDI* FILM… [Week 2] Fri 11.56 cr, Sat 18.25 cr, Sun 22.68 cr. Total: ₹ 321.12 cr. #India biz. #Hindi pic.twitter.com/QNgGIGwrgP
— taran adarsh (@taran_adarsh) April 25, 2022
भूलता जा रहा है संस्कृति
लेकिन इसके पीछे का प्रमुख कारण क्या है? क्या ये इसलिए सफल हैं क्योंकि इनके कॉन्टेन्ट का कोई सानी नहीं? आवश्यक नहीं, क्योंकि केवल कॉन्टेन्ट के परिप्रेक्ष्य से ‘पुष्पा’ कोई बहुत बढ़िया फिल्म नहीं थी। क्या यह इसलिए सफल हुई क्योंकि बॉलीवुड की फिल्में एजेंडावाद से परिपूर्ण है? हो सकता है, परंतु यही एक कारण नहीं है। मूल कारण है एक शब्द, एक भावना, जिससे बॉलीवुड काफी समय पूर्व विमुख हो चुका है, और जिसका दुष्परिणाम कई समय से ये फिल्म उद्योग भुगत रहा है। ये शब्द है परिवार, जो कभी बॉलीवुड का एक अभिन्न अंग हुआ करता था, लेकिन अब वह विलुप्तप्राय हो चुका है।
व्यवसायीकरण एवं पाश्चात्य जगत के अंधानुकरण यानि अंधी नकल की होड़ में बॉलीवुड पारिवारिक मनोरंजन को बहुत पीछे छोड़ चुका है। आप पिछले दो वर्षों की इनकी कोई भी फिल्म उठा के देख लीजिए, इनकी कोई भी फिल्म ऐसी नहीं होगी जिसे आप परिवार के साथ बैठ के देख सकें। उदाहरण के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, विकल्प की स्वतंत्रता इत्यादि तो काफी अच्छी बातें प्रतीत होती है, पर क्या आप ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’, ‘गहराइयाँ’ जैसी फिल्में अपने परिवार के साथ देख पाएंगे?
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सनातन संस्कृति
सनातन संस्कृति में परिवार आधार स्तम्भ समान है, और पाश्चात्य संस्कृति इसी आधार स्तम्भ को कमजोर करने की दिशा में प्रयासरत है, जिसमें जाने अनजाने बॉलीवुड भरपूर सहयोग दे रहा है। चाहे हिन्दू विरोधी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देना हो, भारतीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाना हो, ऐसा कोई पाप नहीं, जिसे बॉलीवुड ने बढ़ावा न दिया हो, और अपने माता पिता को हीन दृष्टि से देखना तो इस उद्योग के लिए काफी कूल बन चुका है। वो दिन गए जब इस उद्योग से ‘आनंद’, ‘बावर्ची’, ‘दो दूनी चार’, ‘नदिया के पार,’ ‘अंदाज़ अपना अपना’, ‘घातक’, ‘गदर’ जैसी फिल्में निकलती थी। अब अगर आप ‘गहराइयाँ’ जैसी फिल्में जब तक नहीं बनाते, तब तक आप प्रगतिशील नहीं माने जाते।
इसके ठीक उलट बहुभाषीय सिनेमा, विशेषकर तेलुगु सिनेमा में हर प्रकार के दर्शकों के लिए फिल्में उपलब्ध है, जिसे सब देख सकते हैं। ‘KGF’, ‘पुष्पा’, ‘RRR’ तो कुछ उदाहरण है, वरना फिल्में तो ‘अवने श्रीमननारायण’, ‘जाति रतनालू’, ‘पावनखिंड’ जैसी भी हैं, लेकिन अपने पारिवारिक मनोरंजन के कारण वह भाषा और क्षेत्र के बंधनों को लांघ देशभर में चर्चित हुआ है।
अब इसके ठीक उलट बॉलीवुड के पिछले कई रिलीज को उठा के देख लीजिए। एक भी ऐसी फिल्म नहीं है, जो परिवार को जोड़ने की बात करे। उलटे परिवारों को तोड़ने वाली, प्रोपगैंडावादी फिल्मों को न केवल बढ़ावा दिया जा रहा है, और जनता को जबरदस्ती मनोरंजन के नाम पर परोसा जा रहा है। लेकिन अब जनता भी पहले जैसी नहीं रही, और यही कारण है कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ को छोड़कर किसी भी बॉलीवुड फिल्म को जनता घास तक नहीं डाल रही। बॉलीवुड के नीति निर्माताओं को समझना होगा कि अपने आदर्शों, अपने संस्कृति से विमुख होकर अधिक समय तक सफल नहीं होते, अन्यथा विनाश होने में अधिक समय नहीं है।
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