“अथ श्री महाभारत कथा..”
“मैं समय हूँ..”
यदि ये संवाद आपने अपने बचपन में नहीं सुने हैं, तो विश्वास मानिए, आपका बचपन एकदम नीरस और संस्कृति से विमुख रहा है। जो प्रभाव कभी रामानंद सागर के अद्वितीय धारावाहिक ‘रामायण’ ने अनंत समय के लिए दर्शकों पर डाला था, वही कुछ ही समय के पश्चात प्रदर्शित हुई ‘महाभारत’ ने भी दशकों तक दर्शकों पर डाला था। यूं तो ‘रामायण’ की तरह ये मूल ‘महाभारत’ के तनिक भी निकट नहीं था और न ही उसे आत्मसात करता था, परंतु भारतीय संस्कृति को आत्मसात करने का एक सार्थक प्रयास तो अवश्य किया गया था और इस सार्थक प्रयास के प्रणेता थे, प्रख्यात फिल्मकार एवं निर्देशक बलदेव राज चोपड़ा।
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‘करवट’ से फिल्म उद्योग में किया पदार्पण
आज ही के दिन यानी 22 अप्रैल 1914 को नवांशहर (अब शहीद भगत सिंह नगर) जिले के राहों ग्राम में बलदेव राज चोपड़ा का जन्म हुआ। ये कई भाइयों बहनों में द्वितीय थे, और इन्हीं के छोटे भाई थे चर्चित फिल्मकार यश राज चोपड़ा। लाहौर के पंजाब विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में परास्नातक करने वाले बी आर चोपड़ा का करियर 1944 में प्रारंभ हुआ था, जब लाहौर में प्रकाशित होने वाली सिने हेराल्ड पत्रिका में उन्होंने बतौर पत्रकार जॉइन किया। वो धीरे-धीरे अपनी पहचान स्थापित करते गए और वर्ष 1947 में उनकी प्रथम फिल्म उड़ान भरने को तैयार थी, परंतु विभाजन नामक ग्रहण ने सब कुछ तहस नहस कर दिया और लाहौर में अपना घर बार छोड़कर बी आर चोपड़ा को भारत आना पड़ा। पहले दिल्ली और फिर मुंबई में उन्हें शरण मिली, जहां से उन्होंने अपना करियर पुनः प्रारंभ किया।
1949 में उन्होंने ‘करवट’ से फिल्म उद्योग में पदार्पण किया, परंतु सफलता मिली 1951 में प्रदर्शित ‘अफसाना’ से, जिसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1955 में बी आर चोपड़ा ने अपना खुद का प्रोडक्शन हाउस बनाया – बी आर फिल्म्स। इस कंपनी के अंतर्गत यदि उन्होंने ‘गुमराह’, ‘वक्त’, ‘इंसाफ का तराज़ू’, ‘कानून’, ‘निकाह’ इत्यादि जैसे रत्न दिए, तो वहीं ‘नया दौर’, ‘धूल का फूल’, ‘धर्मपुत्र’ जैसे फिल्मों से उनकी विचारधारा पर भी प्रश्न उठाए गए, चूंकि ये साम्यवादी यानी कम्युनिस्ट विचारधारा के समर्थक भी थे और ‘धर्मपुत्र’ जैसी फिल्म तो विभाजन के लिए हिंदुओं को ही दोषी ठहराने पर तुला था। लेकिन बी आर चोपड़ा में एक गुण था – प्रयोग करते रहने का। इसी गुण के कारण उन्होंने ऐसे प्रयोग किये, जो तत्कालीन भारतीय फिल्म उद्योग, विशेषकर बॉलीवुड के लिए असहाय या अकल्पनीय माने जाते थे। उदाहरण के लिए दुष्कर्म पर चर्चा तो छोड़िए, इसका उल्लेख तक पाप माना जाता था। परंतु बी आर चोपड़ा ने 1980 में प्रदर्शित ‘इंसाफ का तराजू’ के जरिए कम से कम इस विषय पर चर्चा प्रारंभ तो की।
महाभारत से देश को एक सूत्र में पिरोया
लेकिन ये तो कुछ भी नहीं था। बी आर चोपड़ा उन चंद फ़िल्मकारों में शामिल हैं, जिन्होंने कम से कम इस्लामिक कुरीतियों पर प्रहार करने का प्रयास मात्र किया, जब उन्होंने निकाह फिल्म को निर्देशित किया। इस फिल्म का नाम पहले तो ‘तलाक तलाक तलाक’ पड़ने वाला था, परंतु बाद में इसे ‘निकाह’ कर दिया गया था और इस फिल्म के प्रदर्शन पर कट्टरपंथी मुसलमानों ने काफी बवाल मचाया था। फिर आई ‘महाभारत’, जिसने ‘रामायण’ की भांति पूरे देश को एक सूत्र में पिरोया। दूरदर्शन पर प्रसारित यह धारावाहिक 1988 में दर्शकों के समक्ष आया और लोगों ने इसे ‘रामायण’ के समान सम्मान दिया।
परंतु, यह वेदव्यास जी द्वारा रचित मूल महाभारत से कई मायनों में अलग था, क्योंकि प्रथमत्या तो द्रौपदी ने कभी भी दुर्योधन को ताने नहीं मारे, ये वामपंथी साहित्यकार धर्मवीर भारती की उपज थी। इसके अतिरिक्त वायुपुत्र भीम आक्रामक अवश्य थे, परंतु वे बैलबुद्धि तो नहीं थे, जैसे उन्हें दिखाया गया। लेकिन जिस युग में रामायण और महाभारत का उल्लेख भी किसी पाप से कम न हो, वहां कम से कम एक सार्थक प्रयास करना भी अपने आप में प्रशंसनीय है, जिसके लिए बलदेव राज चोपड़ा बधाई के पात्र सदैव रहेंगे!
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