बंधु किसी ने सही कहा है कि सबै दिन न होत एक समान। अब यही देख लो, कभी जो भारत विदेशों से आवश्यक दवाइयों तक को इम्पोर्ट करवाता था वहीं अब संकट के समय अमेरिका तक को दवाई से लेकर वैक्सीन तक एक्सपोर्ट करने तक तैयार है। कभी दाने दाने को तरसने वाले भारत आज विश्व के लिए पुनः अन्नदाता बन चुका है।
इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे तुर्की के सुर बदल गए हैं और कैसे एक समय खिलाफत के सपने बुनने वाला तुर्की कटोरा लेकर भारत के समक्ष अन्न के लिए याचना कर रहा है। कभी भारत को बर्बाद करने की डींगें हांकने वाला, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर का राग अलापने वाला तुर्की अब भारत के समक्ष अन्न के लिए हाथ फैलाए खड़ा है।
हाल ही में तुर्की ने भारत से 50000 टन गेहूं आयात करने का निर्णय किया है। रूस यूक्रेन विवाद के पश्चात अब चूंकि भारत के गेहूं पर निर्भरता काफी बढ़ चुकी है, इसलिए अफ्रीका के कई देशों समेत विश्व के कई देश अब भारत की ओर आशातीत नेत्रों से गेहूं के परिप्रेक्ष्य में आस लगाए बैठे हैं। अब मिस्र यानी Egypt के पश्चात तुर्की भी इस सूची में शामिल हो चुका है जो अपने आप में काफी महत्वपूर्ण निर्णय है।
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परंतु इससे तुर्की का घमंड कैसे टूटा?
तनिक स्मरण शक्ति तेज कीजिए और समय की चकरी तेज घुमाइए। ये वही तुर्की है, जिसने समय समय पर भारत को आंखें दिखाई है, और उसकी अखंडता और अक्षुण्णता पर प्रश्न उठता से एक बार भी पीछे नहीं हटा है। कश्मीर मुद्दे को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उछालने से लेकर एक ऐसे ‘खिलाफत’ का सृजन करना, जिसमें पाकिस्तान जैसे भारत विरोधी राष्ट्र को एक प्रमुख सदस्य बनाया जाए, तो निस्संदेह इस देश की मंशा नेक तो नहीं होगी।
परंतु बात यहीं पर नहीं रुकती। तुर्की को ऐसा अड़ियल रुख अपनाने के पीछे अपने अर्थव्यवस्था तक की लंका लगानी पड़ी है। स्थिति तो यहाँ तक आ गई कि तुर्की प्रशासन को अपने जनता को शाकाहार अपनाने तक का सुझाव देना पड़ा।
हम मज़ाक नहीं कर रहे, “हर महीने 1-2 किलो मांस खाने के बजाय, आधा किलो खा लें। हम 2 किलो टमाटर खरीदते हैं और उनमें से आधे कूड़ेदान में चले जाते हैं। ठीक है, चलो 2 टमाटर लेते हैं।” ये कथन तुर्की के सांसद ज़ुल्फ़ु डेमिरबास के हैं, जो राष्ट्रपति रेसेप तईप एर्दोगन की एकेपी पार्टी से संबंधित हैं। उन्होंने यह बयान तुर्की की करेंसी लीरा के पूर्ण पतन और आर्थिक संकट के परिप्रेक्ष्य में दिया ।
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शीर्ष अधिकारियों और विश्लेषकों के अनुसार, राष्ट्रपति एर्दोगन (R.T. Erdogen) द्वारा विपक्षियों, सलहकारों और यहां तक कि अपनी सरकार के भीतर से भी नीति को उलटने की अपीलों को नजरअंदाज करने के बाद तुर्की मुद्रा “लीरा” की यह हालत हुई है। इस गिरावट ने तुर्की को एक गहरे आर्थिक संकट की ओर धकेल दिया है, जहां से निकलना लगभग असंभव प्रतीत होते दिखे रहा है। तुर्की मुद्रा ‘लीरा’ ऐतिहासिक रूप से निम्नतम स्तर पर पहुंच चुकी है। CNBC के अनुसार, तुर्की में मुद्रास्फीति 20 फीसदी के करीब पहुँच गई, जिसका अर्थ है कि बुनियादी वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं और तुर्की की स्थानीय मुद्रा का गंभीर रूप से अवमूल्यन हो रहा है।
ऐसे में तुर्की जिस प्रकार अन्न के लिए भारत के समक्ष हाथ फैलाए खड़ा है, वह न केवल भारत की आर्थिक ताकत का परिचायक, अपितु इस बात का भी सूचक है कि समय और लोग बदलते देर नहीं लगती, तो फिर एरदोगन किस खेत की मूली ठहरे।