विशेष राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) के न्यायाधीश परवीन सिंह ने जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के प्रमुख यासीन मलिक को आतंकी फंडिंग और राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने के मामले में सश्रम आजीवन कारावास की सजा सुनाई। मलिक को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 121 के तहत राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने के लिए दोषी ठहराया गया, जिसमें अधिकतम सजा मृत्युदंड की है। हालांकि, न्यायाधीश परवीन सिंह के अनुसार यासीन मालिक पर मृत्युदंड का मामला बनता ही नहीं।
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विशेष लोक अभियोजक और न्यायमित्र का तर्क
एनआईए का प्रतिनिधित्व करने वाले विशेष लोक अभियोजक नीलकमल ने कहा कि सजा को एक निवारक के रूप में कार्य करना चाहिए ताकि भविष्य में ऐसा करने का कोई दुस्साहस न कर सके और मलिक के पक्ष में क्षमा करने हेतु कोई परिस्थितियां भी नहीं थी। वहीं, मलिक की ओर से न्यायमित्र अखंड प्रताप सिंह ने तर्क दिया कि एक बार आरोपी को आरोपों के लिए दोषी ठहराए जाने के बाद प्रतिशोध के आधार पर सजा नहीं हो सकती है। मलिक ने न्यायाधीश के समक्ष कहा था कि उसने 1994 के बाद से ही राजनीतिक स्पेक्ट्रम में भारतीय नेताओं के साथ बातचीत करते हुए हिंसा को रोक दिया था। उसने 1994 से महात्मा गांधी के शांतिपूर्ण मार्ग पर चलने के अपने निर्णय पर जोर दिया था।
मृत्युदंड न देने के पीछे न्यायालय का तर्क
शुरुआत में, न्यायाधीश ने कहा कि यह अच्छी तरह से तय हो गया है कि केवल इसलिए कि अपराध में मृत्युदंड का प्रावधान है, इसे एक नियमित मामले में या एक नियम के रूप में दोषी पर अनिवार्य रूप से लागू नहीं किया जा सकता। उन्होंने इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों – ‘बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य’ और ‘मच्छी सिंह बनाम पंजाब राज्य’ का तर्क दिया। इसी केस के आधार पर वो इस निष्कर्ष पर पहुंचें कि मामला मौत की सजा देने के लिए उपयुक्त नहीं है।
अदालत ने कहा, “न्यायिक घोषणाओं का शुद्ध परिणाम यह है कि मृत्युदंड उन असाधारण मामलों में दी जानी चाहिए जहां अपराध अपनी प्रकृति से समाज की सामूहिक चेतना को झकझोरता है और जो बेजोड़ क्रूरता और भीषण तरीके से किया गया हो।” मृत्युदंड मानदंडों के उदाहरण पर चर्चा करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने बताया कि वर्तमान मामला ‘दुर्लभ से दुर्लभतम’ श्रेणी में क्यों नहीं आता?
कोर्ट ने कहा, “मौजूदा मामले में अपराध साजिश के रूप में था, जिसमें उकसाने, पथराव और आगजनी करके विद्रोह का प्रयास किया गया था। इस अपराध में बहुत बड़े पैमाने पर हिंसा के कारण सरकारी तंत्र को बंद कर दिया गया। यह भारत संघ से जम्मू-कश्मीर को अलग करने का प्रयास था। हालांकि, अपराध करने का तरीका, अपराध में इस्तेमाल किए जाने वाले हथियार मुझे इस निष्कर्ष पर ले जाते हैं कि विचाराधीन अपराध सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित दुर्लभतम मामले के परीक्षण में विफल हो जाएगा।”
NIA के वकील ने तर्क दिया था कि सजा सुनाते समय अदालत को यह विचार करना चाहिए कि दोषी कश्मीरी पंडितों के नरसंहार और उनके पलायन के लिए जिम्मेदार था। हालांकि, कोर्ट ने कहा कि वह इस मामले में उस मुद्दे पर विचार नहीं कर रहा है। इस मुद्दे पर कोर्ट का तर्क था कि “एनआईए ने अदालत को यह समझाने की कोशिश की है कि सजा सुनाते समय अदालत को यह विचार करना चाहिए कि दोषी कश्मीरी पंडितों के नरसंहार और उनके पलायन के लिए जिम्मेदार था। हालांकि, मुझे लगता है कि यह मुद्दा न तो इस अदालत के समक्ष है और न ही इस पर फैसला सुनाया गया है। अतः अदालत इस तरह तर्क से प्रभावित नहीं होगा।”
जज साहब के हाथ में मृत्युदंड
गौरतलब है कि ‘दुर्लभ से दुर्लभतम’ (Rare of the rarest) सिद्धांत को लागू करने के लिए भारतीय कानून में कोई स्ट्रेट-जैकेट फॉर्मूला नहीं है। एक आपराधिक मामले वाले मुकदमे में दो मुख्य अनिवार्यताएं होती हैं- अपराध की प्रकृति और गंभीरता। दो अनिवार्यताओं के आधार पर सजा की भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है। उदहारण से समझते हैं-
- मट्टू मर्डर केस- संतोष कुमार सिंह बनाम केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली के आश्चर्यजनक उदाहरण में संतोष कुमार सिंह को एक महिला के साथ बलात्कार करने और उसके शरीर की प्रत्येक हड्डी को तोड़ने के लिए दोषी ठहराया गया था। पर फिर भी उसके आचरण को “दुर्लभ से दुर्लभतम” की श्रेणी में नहीं रखा गया।
- केहर सिंह बनाम दिल्ली प्रशासन- शीर्ष अदालत ने निचली अदालत द्वारा दी गई मृत्युदंड की पुष्टि की और उच्च न्यायालय द्वारा तीन अपीलकर्ताओं केहर सिंह, बलबीर सिंह और सतवंत सिंह को साजिश की योजना बनाने और श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या को प्राप्त करने के लिए IPC की धारा 302, 120B, 34, 107 और 109 के तहत एक दुर्लभ से दुर्लभतम मामला मानते हुए मृत्युदंड दिया।
यह उदहारण स्वयं में बताता है कि स्वयं सर्वोच्च न्यायालय भी इस सिद्धांत को लेकर भ्रम में है और इसी भ्रम के कारण यासीन मलिक को सिर्फ उम्रकैद की सजा सुनाई गई है।
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