कोई संकट आता है, तो आप क्या करोगे? आप सामना करोगे, या भाग जाओगे? अधिकतर लोग भागते हैं, क्योंकि संकट का सामना करके अपने समय और संसाधन की बर्बादी क्यों करना। वैसे भी जान है तो जहां है, यही तो बचपन से सीखा है हम सभी ने। परंतु आखिर संकटों से कोई कब तक मुंह मोड़ेगा?
इसी दुविधा में एक व्यक्ति और भी था, जब उनका हवाई जहाज़ श्रीनगर हवाई अड्डे पर एक एक सर्द रात को उतरा। आपातकालीन स्थिति में उन्हे राज्य की कमान सौंपी गई थी, लेकिन उन्हे आभास भी नहीं था, कि जिस संकट से वे वर्षों पूर्व भागे थे, उसी संकट के एक और वीभत्स रूप से उनका फिर सामना होने वाला था। ये कथा है जम्मू कश्मीर के पूर्व राज्यपाल और कश्मीरी हिंदुओं के रक्षक माने जाने वाले प्रशासक, जगमोहन अमीरचंद मल्होत्रा की, जो पिछले वर्ष आज ही के दिन, यानि 3 मई 2021 को एक लंबी बीमारी के पश्चात स्वर्गलोक सिधारे थे।
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जीवन परिचय
जगमोहन मल्होत्रा का जन्म 25 सितंबर 1927 को गुजरांवालाविभाग के हफीज़ाबाद जिले में हुआ, जो अब पाकिस्तानी पंजाब प्रांत का हिस्सा है। जगमोहन 20 के ही हुए थे, जब भारत पर विभाजन का ग्रहण पड़ा, और लाखों हिंदुओं एवं सिखों की भांति उन्हे भी अपना घर बार छोड़कर भारत में शरण लेनी पड़ी। परंतु उन्होंने पराजय नहीं मानी और जल्द ही वे भारतीय प्रशासनिक सेवा का भाग बन गए।
जगमोहन जल्द ही केन्द्रीय प्रशासन, विशेषकर नेहरू गांधी परिवार के प्रिय बन गए, और उन्हे काफी सुविधाएँ प्राप्त हुई। 1971 में ही उन्हे प्रशासनिक सेवाओं के लिए पद्मश्री प्राप्त हुआ, और इसी बीच वे संजय गांधी के काफी निकट आ गए थे। ये निकटता उनके बहुत काम आई, जब 1975 में भारत पर आपातकाल लागू हुआ, और संजय गांधी का वर्चस्व केन्द्रीय प्रशासन पर बहुत अधिक था। तब जगमोहन मल्होत्रा दिल्ली की बागडोर संभालते थे, क्योंकि तब दिल्ली में सरकार की व्यवस्था नहीं थी, और दिल्ली विकास प्राधिकरण ही सरकार समान थी। ये जगमोहन ही थे जिन्होंने संजय गांधी के कई ‘सुन्दरिकरण’ नीतियों को लागू किया था, और ये जगमोहन ही थे, जिनके कारण इंदिरा गांधी की सरकार को काफी आलोचना का सामना भी करना पड़ा था। परंतु जगमोहन की लोकप्रियता पर तनिक भी अंतर नहीं पड़ा।
इस का प्रमाण 1982 में दिखता है, जब जगमोहन को दिल्ली प्रांत की कमान सौंपी गई। ये वो समय था, जब खालिस्तान अपने फन फैला रहा था, और उसी समय एशियन गेम्स का भी आयोजन होना था। संजय गांधी अब नहीं थे, पर ऐसे में इंदिरा गांधी की दृष्टि जगमोहन की ओर गई, जिन्होंने न केवल कुशलता से दिल्ली को संभाला, अपितु एशियाई खेलों का सफलतापूर्वक आयोजन भी कराया। लेकिन जगमोहन मल्होत्रा का भाग्य तब बदला जब उन्हे 1984 में जम्मू कश्मीर का राज्यपाल बनाकर भेजा गया। यूं तो यह नियुक्ति इंदिरा गांधी के कार्यकाल में हुई, परंतु जगमोहन जम्मू कश्मीर के बदलते राजनीतिक परिदृश्य के साक्षी थे, और प्रारंभ में जो उनके लिए मात्र एक सरकारी पोस्टिंग थी, वह शनै शनै जीवन और मरण का प्रश्न बन गया।
वो कैसे? जब जगमोहन मल्होत्रा को दोबारा राज्यपाल बनाया गया, तो वो दिन था 19 जनवरी 1990। ये वो दिन था जब लाखों कश्मीरी हिंदुओं के विरुद्ध फरमान निकाला गया कि या तो वे कश्मीर छोड़ दें, नहीं तो उनके साथ वो होगा जो किसी ने सोचा भी नहीं। ‘रलीव, गलीव या चालीव’ पूरे कश्मीर घाटी में गूंजने लगा, यानि अपना धर्म बदलो, भागों या मर जाओ। तो जगमोहन ने ऐसा क्या किया, जिसके लिए उन्हे आज भी याद किया जाता है, और आज भी वामपंथी उन्हे घृणा और तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं?
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इसके बारे में स्वयं जगमोहन ने तत्कालीन राष्ट्रपति आर वेंकटरमण को पत्र लिखते हुए कहा,
“आदरणीय राष्ट्रपति जी,
ठीक दस दिन पहले मैंने अपना कार्यभार संभाला था। तब से अब तक मैं एक छोटी रिपोर्ट लिखने के लिए दस मिनट का समय भीनहीं निकाल सका। स्थिति इतनी गंभीर और संकट पूर्ण थी। यह वाकई चमत्कार था कि 26 जनवरी को काश्मीर बचा लिया गया और हम राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय शर्मिंदगी उठाने से बच गए। इस दिन की कहानी लम्बी है और यह बाद में पूरे ब्यौरे के साथ बताई जानी चाहिए। काम चलाऊ समाधानों या सुगम रास्तों का सहारा लेना आत्मघाती नहीं तो गलत जरूर होगा। विष महत्वपूर्ण अंशों तक पहुँच चुका है। जब तक कि उसे पूरी तरह समाप्त नहीं किया जाता, हम एक संकट पूर्ण स्थिति से दूसरी में ही लड़खड़ाते रहेंगे।
आपका –जगमोहन”
मतलब स्पष्ट था, यदि जगमोहन ने सूझबूझ नहीं दिखाई होती, तो न केवल 26 जनवरी तक कश्मीर का सम्पूर्ण इस्लामीकरण हो जाता, और भारत के ‘मुकुट’ से हिंदुओं का समूल नाश हो जाता। विवेक अग्निहोत्री ने ‘द कश्मीर फाइल्स’ में जो दिखाया, वो शायद सच का अंश मात्र भी नहीं है, क्योंकि जो जगमोहन मल्होत्रा ने देखा, और जिसका अनुभव उन्होंने किया होगा, उसे हम और आप तो शायद ही महसूस कर पाएंगे। लेकिन ये उन्ही के मेहनत का प्रताप है कि आज कश्मीर की माटी से अनुच्छेद 370 का कलंक हट चुका है, और कश्मीरी मुसलमानों का एकाधिकार अब धीरे धीरे समाप्ति की ओर है। यदि जगमोहन जैसे कर्मठ, निष्कपट सेवक न होते, तो न जाते हमारे देश का क्या होता।
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