किसी राजनीतिक पार्टी की शक्ति होती है उस पार्टी की कार्यशैली, एक परिपक्व चेहरा और कार्यकर्ताओं का समर्पण पर कांग्रेस के साथ आज तीनों ही नहीं है। मूल रूप से गुजरात की बात करें तो यह सिद्ध हो चुका है कि कांग्रेस गुजरात में अधर में लटकी हुई है और विधानसभा चुनाव होने से पूर्व ही वो आत्मसमर्पण और हार का सामना कर चुकी है।
जो भाजपा पिछले चुनाव में व्यापारी और आदिवासी वर्ग की नाराजगी का सामना कर रही थी इस बार चुनाव के समय वो अड़चन भी साफ होती दिख रही है। तो वहीं कांग्रेस का चेहरा विहीन होने से लेकर उसकी आखिरी उम्मीद भी धराशाई हो गई। इस लेख में जानेंगे कि कैसे गुजरात के विधानसभा चुनाव में लड़ने से पहले ही कांग्रेस बुरी तरह से हार गयी है और उसके हाथ कुछ बचा है तो वो है केवल झुनझुना।
कांग्रेस पुराने ग्राफ को बढ़ाने के लिए जूझ रही है
दरअसल, इस साल के अंत तक गुजरात में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। एक ओर भाजपा अपने अभेद्य किले को पुनः जीतने के प्रयास में है तो वहीं कांग्रेस पुराने ग्राफ को बढ़ाने के लिए लड़ रही है। भाजपा पिछले चुनाव में जिन बिंदुओं के कारण अनुमान के मुताबिक कम प्रदर्शन कर पाई थी उसमें सबसे बड़ा रोड़ा था वो नाराज़ व्यापारी वर्ग जो राज्य की आर्थिक रीढ़ को मजबूत करता है। ऐसे कई प्रावधान और नीति थीं जिनसे गुजरात का व्यापारी वर्ग भाजपा से रुष्ट था।
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2017 की राजनीतिक परिस्थिति की बात करें तो तब पाटीदार आंदोलन के चेहरे के रूप में गुजरात में ख्याति पा चुके हार्दिक पटेल ने कांग्रेस के प्रचार प्रसार और समर्थन करने का मन बनाया और चुनाव बाद वो पार्टी में शामिल भी हो गए। इसके बाद कांग्रेस ने उन्हें गुजरात इकाई का कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त कर दिया। दायित्व मिलने के बाद भी हार्दिक को वो ताकत और स्वतंत्रता नहीं मिली जो एक पार्टी की राज्य इकाई के प्रमुख को मिलनी चाहिए थी। परिणामस्वरूप हाल ही में अपने दर्द को साझा करते हुए हार्दिक ने कहा कि “पार्टी में उनकी हालत बिलकुल वैसी है, जैसी किसी दूल्हे की शादी के तुरंत बाद नसबंदी करा दी हो।” ऐसी स्थिति में इसी वर्ष मई माह में हार्दिक पटेल ने कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखकर पार्टी की अपनी प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा देकर कांग्रेस से अपने रास्ते अलग कर लिए थे। जून आते-आते हार्दिक पटेल ने भाजपा ज्वाइन कर ली और भाजपाई हो गए।
कांग्रेस की आशाएं बुरी तरह टूट गयीं
इस झटके के बाद कांग्रेस नए चेहरे के रूप में एक और ‘पटेल’ की ओर आशान्वित होकर उनके कांग्रेस में शामिल होने का इंतज़ार कर रही थी और वो भी हो न सका। विधानसभा चुनाव से पूर्व एक अंतिम उम्मीद के रूप में बचे प्रमुख पाटीदार नेता नरेश पटेल, जो श्री खोदलधाम ट्रस्ट (एसकेटी) के अध्यक्ष भी हैं, जिन्होंने कांग्रेस समेत दलगत राजनीति में जाने में अपनी असमर्थता व्यक्त की है। नरेश पटेल की जड़ें अपने समाज और गुजरात के एक वर्ग में बड़ी मजबूत हैं। उनकी कांग्रेस में न जाने की बात ने सौराष्ट्र क्षेत्र में कांग्रेस पार्टी की वापसी की उम्मीदों पर ठंडा पानी डाल दिया है। इस क्षेत्र में 182 सदस्यीय विधानसभा में कम से कम 48 सीटें हैं जिसपर नरेश पटेल हार-जीत को प्रभावित कर सकते हैं ।
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ऐसे में भाजपा के लिए सोने पे सुहागा यह हुआ कि आदिवासी वोट बैंक जिस पर अब तक कांग्रेस का ही एकछत्र राज था भले ही क्यों न नरेंद्र मोदी का सीएम कार्यकाल रहा हो या किसी और का लेकिन अब इस वोटबैंक को अब भाजपा ने विभिन्न योजनाओं को लागू कर अपने पाले में लाने के सारे बिंदु बना लिए हैं। बीते कई दिनों से पीएम मोदी की गुजरात में चलहकदमी और उनकी योजनाओं की बरसात इस बात को प्रमाणित भी करती है।
ऐसे में पटेल तो पटेल कांग्रेस अब आदिवासी वोट बैंक से भी हाथ धोती दिख रही है। परिणामस्वरूप अब कांग्रेस गुजरात में निल बटे सन्नाटा के साथ ही नेतृत्व त्रास से जूझ रही है, एक अंतिम उम्मीद नरेश पटेल थे वो भी अब अपना मन राजनीतिक दल से दूर रहने का बना चुके हैं। अब तो बस कांग्रेस औपचारिकता के चुनाव लड़ने वाली है क्योंकि हार कांग्रेस को भी दिख रही है, बस कहने से बच रही है।
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