“जिया है तू बिहार के लाला…”
ये बोल सुनकर यदि आपके मुख पर मुस्कान की चमकान न आई, तो विश्वास मानिए, आपको या तो भारतीय सिनेमा की या तो तनिक भी समझ नहीं है, या फिर आप पृथ्वी लोक से नहीं है। इस फिल्म के बारे में न जानना अपने आप में किसी आश्चर्य से कम नही होगा। कौन कह सकता है कि केवल प्रतिभा के दम पर एक फिल्म को सफल बनाया जा सकता है? लेकिन 10 वर्ष पहले, एक फिल्म ने सिद्ध किया, कि एक फिल्म से आप बहुत कुछ कर सकते हैं। इस फिल्म का नाम है ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’, जो आज भी भारतीय सिनेमा के सबसे महत्वपूर्ण फिल्मों में से एक है, विशेषकर गैंगस्टर फिल्मों में से एक है।
‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ ने सारे मिथकों को किया ध्वस्त
अब माफिया, गैंगस्टरों पर तो अनेक फिल्में बनी थी, परंतु उनमें असली भारत जैसा कुछ नहीं था। वह सभी या तो मुंबई के अंडरवर्ल्ड तक सीमित थी, और यदि तनिक भी आगे बढ़ती थी, तो थोड़ा बहुत चम्बल घाटी तक जाती थी। इस मिथक को तोड़ने में ‘शूल’, ‘गंगाजल’ जैसी फिल्मों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, परंतु उनके प्रयास कहीं न कहीं पूरे नहीं पड़े। परंतु ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ ने सभी समीकरणों को ध्वस्त कर दिया। इतिहास, राजनीति, संगीत, समीकरण, इस फिल्म ने सभी का ऐसा समावेश किया कि आज भी इसका तोड़ मिलना कठिन है। इस फिल्म का मूल संस्करण लगभग साढ़े 5 घंटे से अधिक लंबा था, तो निर्देशक अनुराग कश्यप को इसे दो भागों में प्रदर्शित कराना पड़ा, जिसमें प्रथम भाग आज यानि 22 जून 2012 को प्रदर्शित हुआ, और दूसरा भाग 8 अगस्त 2012 को प्रदर्शित हुआ।
तो इस फिल्म में ऐसा भी क्या महत्वपूर्ण था, जिसके कारण ये फिल्म इतनी विश्व प्रसिद्ध हुई? इसने बिहार-झारखंड के कुख्यात कोयला माफिया और ट्रेड यूनियन माफिया के गठजोड़ को बिना किसी लाग लपेट के दिखाया, जिसके कारण धनबाद कोयला माफिया का फलता फूलता गढ़ बन गया, और वासेपुर, धीरे-धीरे इस गोरखधंधे का इस महत्वपूर्ण हिस्सा। जिस प्रकार रामाधीर सिंह से वर्चस्व की लड़ाई में सरदार खान और उसका परिवार जूझता हुआ दिखाई देता है, वास्तव में कांग्रेसी राजनेता सूर्यदेव सिंह और खान परिवार के बीच की तनातनी से जुड़ा है, जो आज तक चली आ रही है, और खत्म नहीं हुई है। परंतु इतिहास के साथ कश्यप बंधु थोड़ा खेल गए, क्योंकि जहां फिल्म में सरदार खान को मनमौजी पर आदर्शों का पक्का दिखाया है, वास्तव में यही काम सिंह परिवार करता था, और फिल्म के ठीक उलट फैजल यानि फहीम खान जीवित है, और अपने कर्मों का दंड जेल में भुगत रहे हैं।
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‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ का प्रभाव आज तक बना हुआ है
खैर, ये तो हुई राजनीति और इतिहास की बात, परंतु इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस फिल्म के लेखन में बड़ा दम था। हो भी क्यों न, इसे लिखा भी उसी ने, जो स्वयं इस क्षेत्र से जुड़ा था, जीशान कादरी, जो वासेपुर का निवासी था, और इस फिल्म का एक प्रभावशाली किरदार भी बना, डेफ़िनिट। बॉलीवुड में ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ से पूर्व एक धारणा थी कि फिल्में या तो स्टार पावर पर चलती हैं और यदि अगर गलती से एक्टिंग के बल पर चल गई, तो आपको श्याम बेनेगल या गोविंद निहलानी के स्तर की फिल्म बनानी होगी, जिसमें से आधी फिल्में तो जनता के समझ में ही नहीं आए।
‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में किसी चीज़ पर कोई रोकटोक नहीं थी, परंतु हर दृश्य का अपना महत्व था, हर संवाद मानो प्रतीत हुआ कि सीधा हमारे और आपके बीच की बात हो। दशकों बाद वर्सोवा से बांद्रा वाली मानसिकता से बाहर निकलकर गाँव के चिंटू तक पहुँच बनाने का प्रयास किया गया। हर संवाद इतना स्वाभाविक था, मानो सीधा धनबाद के मोहल्ले से निकला हो। उदाहरण के लिए जब एक सब इंस्पेक्टर बूचड़खाने में जांच पड़ताल करने आते हैं, तो उनके स्वागत में सुल्तान कुरेशी ये दमदार संवाद कहते हैं, “ये वासेपुर कहते हैं, यहाँ कबूतर भी एक पंख से उड़ते हैं और दूसरे से अपना इज्जत बचाते हैं, समझ गए?”
अभी बात यहीं पर खत्म नहीं होती। जितना ही इस फिल्म में गालियां भरी हैं, उतना ही इस फिल्म में ऐसे संवाद है, कि बिना गाली के भी भयानक बेइज्ज़ती हो जाए। जो मजा ‘बेटा तुमसे हो न पाएगा’ बोलने में मिले, वो किसी अपशब्द से भरे संवाद में मिलेगा? परंतु ऐसे ही उत्कृष्ट उपलब्धियों से परिपूर्ण है ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’, जो आज सोशल मीडिया पर मीम मेकर्स के लिए किसी रत्न सागर से कम नहीं। जितना डूबिए, उससे कहीं अधिक मिलेगा इस फिल्म, है ही इतनी अद्भुत। ‘Goodfellas’, ‘Godfather’ से यदि बेहतर नहीं, तो उनके प्रति भारत का उत्तर तो अवश्य हो सकती है ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’। ये और बात है कि इसके बजाए ऑस्कर के लिए उस वर्ष नामांकित किया गया अनुराग बासु की ‘बर्फ़ी’ को।
परंतु इस फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण धरोहर है अभिनय। इस फिल्म से पूर्व स्टार पावर ही बॉलीवुड में सर्वोपरि था, जिसके कारण योग्य अभिनेता और योग्य फिल्मों को सर्वदा बैकसीट लेनी पड़ती थी। परंतु गैंग्स ऑफ वासेपुर के साथ ऐसा नहीं थी। मनोज बाजपेयी हो, पंकज त्रिपाठी हो, जयदीप अहलावत हो, पीयूष मिश्रा हो, जमील खान, ऋचा चड्डा हो, विपिन शर्मा हो, यहाँ तक कि तिग्मांशु धूलिया जैसे निर्देशक भी अभिनेता के रूप में अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे थे। दूसरे भाग में राजकुमार राव, जीशान कादरी और आदित्य कुमार जैसे अभिनेताओं ने अपनी अलग पहचान बनाई, और अन्य कलाकारों ने भी अपनी अमिट छाप छोड़ी।
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परंतु क्या ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में हिन्दू चरित्र को नकारात्मक और मुस्लिम को सकारात्मक नहीं दिखाया गया है? सतही तौर पर देखें तो अवश्य लगेगा, परंतु अगर कभी इसके मूल पोस्टरों पर ध्यान देते, तो पता चलता, ‘यहाँ कोई नहीं है हीरो, सभी हैं विलेन!’ कोई माने या न माने, परंतु ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ आज भी देश के सबसे महत्वपूर्ण गैंगस्टर फिल्मों में से एक है, 10 वर्ष बाद भी इस फिल्म का प्रभाव कम नहीं हुआ है।
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