9 जून 1964, जब देश एक भीषण त्रासदी से जूझ रहा था। जवाहरलाल नेहरू के चुनाव से वैचारिक मतभेद लोगों को चाहे जितने रहे हों, परंतु 27 मई को उनकी मृत्यु के पश्चात भारतीय राजनीति के समक्ष एक अजीब दुविधा आन पड़ी थी और वो दुविधा थी कि देश का नेतृत्व अब किसके हाथों में होगा? अधिकतम लोगों के लिए प्रथम विकल्प तो इंदिरा गांधी ही थीं, परंतु वह सत्ता संभालने को प्रारंभ में तैयार नहीं थीं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मोरारजी देसाई सत्ता संभालने को आतुर थे, परंतु पार्टी हाईकमान एक ऐसे व्यक्ति के हाथ में देश नहीं सौंपना चाहते थे जिनके स्वभाव पर किसी को भरोसा न हो।
स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से जुड़ गए थे शास्त्री जी
ऐसे में एक ऐसे व्यक्ति के हाथ में भारत की बागडोर सौंपी गई जिन पर किसी को कोई संदेह न था और न ही किसी को अंदेशा था कि यह कभी पार्टी के शांतिवादी नीतियों के उलट भी जा सकेंगे। परंतु मुगलसराय का ‘लाल’ अलग ही मिट्टी का बना था और इस माटी के लाल को आज भी देश के सबसे उत्कृष्ट प्रधानमंत्रियों में से एक माना जाता है।
ये कथा है लाल बहादुर शास्त्री की जिन्होंने एक डूबते हुए भारत को न केवल संवारा अपितु एक सशक्त भारत की नींव भी रखी। प्रारम्भिक शिक्षा मुगलसराय से प्राप्त करने के पश्चात उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के अंतर्गत असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। उसके बाद आचार्य जे बी कृपलानी के मार्गदर्शन में उन्होंने काशी विद्यापीठ से अपनी शिक्षा पूर्ण की और स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से जुड़ गए।
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लालबहादुर शास्त्री कांग्रेस के सक्रिय सदस्य थे और विशुद्ध गांधीवादी थे, परंतु समय समय पर आक्रामक राष्ट्रवाद को बढ़ावा भी देते थे। उदाहरण के लिए भारत छोड़ो आंदोलन के समय 9 अगस्त 1942 के दिन शास्त्री जी ने इलाहाबाद पहुंचकर इस आंदोलन के गांधीवादी नारे को चतुराई पूर्वक “मरो नहीं, मारो!” में बदल दिया और अप्रत्याशित रूप से क्रान्ति की दावानल को पूरे देश में प्रचण्ड रूप दे दिया। पूरे ग्यारह दिन तक भूमिगत रहते हुए यह आंदोलन चलाने के बाद 19 अगस्त 1942 को शास्त्री जी गिरफ्तार हो गये। कहते हैं कि लाल बहादुर शास्त्री क्रांतिकारियों के भी बहुत बड़े समर्थक थे। यहां तक कि उन्होंने भगत सिंह के फांसी पर उचित कार्रवाई न किए जाने के लिए कांग्रेस पार्टी का विरोध भी किया।
[Source : Without Fear, Kuldip Nayar]
शास्त्री जी के राजनीतिक दिग्दर्शकों में पुरुषोत्तमदास टंडन और पण्डित गोविंद बल्लभ पंत के अतिरिक्त जवाहरलाल नेहरू भी शामिल थे। इसके बाद तो शास्त्री जी का कद निरन्तर बढ़ता ही चला गया और एक के बाद एक सफलता की सीढियां चढ़ते हुए वे नेहरूजी के मंत्रिमण्डल में गृहमंत्री के प्रमुख पद तक जा पहुंचे। इतना ही नहीं, नेहरू के निधन के पश्चात भारतवर्ष के प्रधानमंत्री भी बने।
कहते हैं कि राजनीति और नैतिकता का कोई नाता नहीं हो सकता। परंतु लाल बहादुर शास्त्री इस ‘मिथक’ को तोड़ने के लिए उद्यत थे। जब उनके रेल मंत्री रहते दुर्घटना हुई तो नैतिक रूप से दायित्व लेते हुए उन्होंने त्यागपत्र सौंप दिया। ऐसे थे हमारे लाल बहादुर परंतु उनके परीक्षा की घड़ी तो अभी बाकी थी।
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सर्वसम्मति से लाल बहादुर शास्त्री को प्रधानमंत्री चुना गया
वर्ष था 1964, नेहरू की चिता को ठंडा हुए अभी एक माह भी न बीता कि उनके उत्तराधिकारी का प्रश्न कांग्रेस के समक्ष खड़ा हुआ। तत्कालीन कांग्रेस और पार्टी कार्यकर्ता चाहते थे कि इंदिरा गांधी ही प्रधानमंत्री बने, परंतु किन्हीं कारणों से उन्होंने ये पद स्वीकारने से मना कर दिया। मोरारजी प्रधानमंत्री बनने को तत्पर थे परंतु कांग्रेस उनके स्वभाव से भली भांति परिचित थे और वे देश को ऐसे व्यक्ति के हाथ में कतई नहीं सौंपना चाहती थी। ऐसे में तत्कालीन अध्यक्ष के कामराज ने सर्वसम्मति से लाल बहादुर शास्त्री को प्रधानमंत्री के रूप में चुना –
शास्त्री जी इस पद के लिए तैयार नहीं थे, परंतु जब उन्हें दायित्व सौंपा जा रहा था तब इस कर्तव्य से पीछे हटना किसी पाप से कम भी न होता। परंतु इस पद पर रहते हुए कदम कदम पर उन्हें अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। एक तरफ देश की अर्थव्यवस्था संकट में थी, दूसरी ओर देश के समक्ष न कोई नीति, न कोई विचार और फिर चीन और पाकिस्तान जैसे धूर्त शत्रु मुंह बाये खड़े थे।
1965 में पाकिस्तान भारत पर छल से कब्जा करने को तैयार था। ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ नामक इस ऑपरेशन के अंतर्गत कश्मीर को रक्तरंजित करने की पूरी प्लानिंग हो चुकी थी। ये बात भारतीय सेना के विश्वसनीय सूत्रों को भी पता चली। जब पाकिस्तान ने भारत पर हवाई हमला किया, तो परंपरानुसार राष्ट्रपति ने आपात बैठक बुला ली जिसमें तीनों रक्षा अंगों के प्रमुख व मंत्रिमंडल के सदस्य शामिल थे। प्रधानमंत्री उस बैठक में कुछ देर से पहुंचे। उनके आते ही विचार-विमर्श प्रारम्भ हुआ।
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शास्त्री जी ने जब कहा- “आप देश की रक्षा कीजिए”
तीनों प्रमुखों में सैन्य प्रमुख, जनरल जयंतो नाथ चौधुरी ने उनसे सारी वस्तुस्थिति समझाते हुए पूछा: “सर! क्या हुक्म है?” शास्त्री जी ने एक वाक्य में तत्काल उत्तर दिया: “आप देश की रक्षा कीजिए और मुझे बताइए कि हमें क्या करना है?” शास्त्री जी ने इस युद्ध में नेहरू के मुकाबले राष्ट्र को उत्तम नेतृत्व प्रदान किया और जय जवान जय किसान का नारा दिया। इससे भारत की जनता का मनोबल बढ़ा और सारा देश एकजुट हो गया।
भारत पाक युद्ध के दौरान 6 सितम्बर को भारत की 15वी पैदल सैन्य इकाई ने द्वितीय विश्व युद्ध के अनुभवी मेजर जनरल प्रसाद के नेत्तृत्व में इच्छोगिल नहर के पश्चिमी किनारे पर पाकिस्तान के बहुत बड़े हमले का डटकर मुकाबला किया। जो कोई सोच भी नहीं सकता था वो सब हुआ। पहले असल उत्तर के टैंक युद्ध में भारत से अपने से कहीं अधिक समृद्ध पाकिस्तानी थलसेना को पटक पटक कर धोया और फिर बरकी गांव के समीप नहर को पार करने में सफलता अर्जित की। इससे भारतीय सेना लाहौर के हवाई अड्डे पर हमला करने की सीमा के भीतर पहुंच गयी। इस अप्रत्याशित आक्रमण से घबराकर अमेरिका ने अपने नागरिकों को लाहौर से निकालने के लिए कुछ समय के लिये युद्धविराम की अपील की और स्थिति ऐसी थी कि यदि भारत चाहता तो वह लाहौर और सियालकोट को पुनः स्वतंत्र करा सकता था।
परंतु दुर्भाग्यवश शास्त्री जी अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर तब उतने परिपक्व नहीं थे। ताशकंद समझौते में भारत ने जो कुछ भी प्राप्त किया वह सब खो दिया और इसके साथ ही रहस्यमयी परिस्थतियों में लालबहादुर शास्त्री की ताशकंद में ही 11 जनवरी 1966 को मृत्यु हो गई। यदि वे थोड़े अधिक सशक्त हुए होते तो सम्पूर्ण कश्मीर भी अपना होता, भारत का कद विश्व में कुछ और ही होता और संभव है कि आधा पाकिस्तान भी विश्व के मानचित्र से गायब हो चुका होता!
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