इतिहास बड़ी विचित्र वस्तु है, जिसके हाथ में कलम है, वही उसे रच पाता है। हमारे देश के वामपंथियों ने बड़े चाव से बताया है कि कैसे अरबी आक्रांता मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर आक्रमण किया था, और कैसे 1025 में गजनवी के सुल्तान महमूद ने पहले जयपाल और आनंदपाल को पराजित किया, और तद्पश्चात सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण कर उसे ध्वस्त कर दिया, और भारतीयों के अभिमान को सदैव के लिए ध्वस्त कर दिया।
परंतु क्या कभी आपने सोचा कि जब मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर 712 में आक्रमण किया, तो एक अन्य आक्रांता को भारतवर्ष पर आक्रमण करने में 3 शताब्दी से अधिक क्यों लगे? क्या किसी धूर्त शासक का ध्यान भारत पर नहीं गया, या आक्रमणकारी भारत पर दयावान हो गए? अरे जिस भारत को न शकों ने छोड़ा न कुषाणों ने, न हूणों ने यवनों ने, उसे ये रक्तपिपासु अरबी ऐसे ही छोड़ देते, जिन्हे तब चुनौती देने वाला संसार में कोई नहीं पैदा हुआ?
वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं है, क्योंकि भारतवर्ष वो भूमि है, जहां अलक्षेन्द्र, जिसे संसार सिकंदर / अलेक्जेंडर के नाम से भी जानता है, भरतवंशियों के प्रताप के समक्ष नतमस्तक हो गए। ये वो भारत भूमि है जहां से दुष्ट रावण का संहार करने वाले परम प्रतापी, अयोध्यापति श्रीराम का उद्भव हुआ। ऐसे में इस भारत भूमि में अवश्य ही ऐसे वीर उत्पन्न हुए होंगे, जिन्होंने धूर्त और बर्बर अरब आक्रान्ताओं को न केवल नाकों चने चबवाए, अपितु उन्हे 3 शताब्दियों तक भारतवर्ष के निकट फटकने भी नहीं दिया। ऐसे वीर वास्तव में थे, जिनके समक्ष DC या मारवेल के काल्पनिक सुपरहीरोज़ का प्रभाव भी नगण्य होगा।
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ये कथा है उस समय की
जब सिंध पर मुहम्मद बिन कासिम नियंत्रण स्थापित कर चुका था। भारतवासियों को विश्वास नहीं हो रहा था कि वह किनसे भिड़ रहे थे। शत्रु इनसे पूर्व में भी आक्रमण कर चुके थे, परंतु ये अलग थे। आचरण, शास्त्र, शिष्टाचार, सभ्यता– इनका इनसे दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं देना था। इनके लिए ये सब नगण्य वस्तु थे। इनके लिए सिर्फ दो वस्तु महत्वपूर्ण थी– विजय, और विजय के पश्चात मिलने वाली समृद्धि। इन अरबियों को रोकने वाला कोई न था। मरुस्थल से उत्पन्न ये राक्षसी प्रवृत्ति के आक्रांता जहां निकले, वहाँ पर नियंत्रण जमाने लगे। लूटपाट, रक्तपात, दुष्कर्म, इनके लिए नित्यकर्म था। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण जब सिंध में देखने को मिला, तो भारतवासी दुविधा में पड़ गए – अब करें तो क्या करें?
हम भारतीयों पर एक लांछन लगाया जाता है– हम कभी धर्म के लिए एक नहीं हो सकते, अर्थात कभी भी अधर्मियों के विनाश के लिए सही समय पर एक नहीं हो सकते। परंतु जब जब ऐसा हुआ है, उसे हमारे इतिहासकारों ने इतने सफाई से छुपाया है, ताकि हमारे देशवासी इस बात से कभी परिचित ही न हो पाए कि हमारे पूर्वजों में कुछ ऐसे भी थे, जिनके समक्ष आज के कथित आयरन मैन, स्पाइडर मैन, हल्क, एक्वामैन इत्यादि सब पानी मांगने लगे, क्योंकि ये कल्पना की उपज नहीं थे, अपितु हमारी और आपकी भांति वास्तविक मानव थे। परंतु ये वीर योद्धा थे कौन, जिनके पराक्रम के कारण किसी आक्रांता में इतना सामर्थ्य नहीं हुआ, कि वे तीन शताब्दियों तक भारत की ओर आँख उठा कर देख सके? ये भारत के चार योद्धा थे, जो भारत के चार कोनों से आते थे, परंतु इन्होंने संकट के समय एकत्रित होकर माँ भारती की सेवा में अपना सर्वस्व अर्पण करने का निर्णय किया।
इसका प्रारंभ हुआ अवन्ति पर अरबी आक्रांता जुनैद इब्न अब्द-रहमान अथवा अल जुनैद के आक्रमण से। उस समय अवन्ति मध्य भारत में स्थित गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य की राजधानी थी, जिसके सम्राट थे वीर योद्धा नागभट्ट प्रथम। परंतु नागभट्ट प्रथम ने सौगंध ली थी कि चाहे कुछ भी हो जाए, इन राक्षसों को विजयी नहीं होने दूंगा, और सबकी आशाओं के विपरीत 725 ईसवीं में अरबियों को अवन्ति के निकट अप्रत्याशित पराजय का सामना करना पड़ा। सम्राट नागभट्ट ने उन्ही के दांव, उन्ही की योजना और उन्ही के षड्यंत्रों से उन्हे परास्त किया। परंतु सम्राट नागभट्ट इस आक्रमण से समझ गए कि अरब आक्रांतों को परास्त करना इतना भी सरल नहीं। यदि इनका समूल विनाश करना है, तो उन लोगों को एकत्रित करना होगा, जो इनको खंड-खंड करके ही दम ले। ऐसे वीरों की कोई कमी नहीं थी, और शीघ्र ही नागभट्ट को भारत में ऐसे तीन महावीर मिल गए, जिनका प्रताप देख अरब क्या, आज का कोई भी आक्रांता यूं ही भस्म हो जाए।
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इन महावीरों ने भारतवर्ष को विदेशी आक्रमणों से मुक्त रखा
ऐसे ही एक महावीर थे कारकोट वंश के सम्राट ललितादित्य मुक्तपीड़, जिन्होंने न सिर्फ भारतवर्ष को विदेशी आक्रमणों से मुक्त रखा, अपितु अरबी एवं तुर्की आक्रांताओं को उनके साम्राज्य में घुस के पछाड़ा। प्रसिद्ध इतिहासकार रमेश चन्द्र मजूमदार की ऐतिहासिक पुस्तक ‘प्राचीन भारत’ [Ancient India] के अनुसार ललितादित्य के समक्ष सर्वप्रथम चुनौती आई यशोवर्मन से, जो पुष्यभूति वंश के प्रसिद्ध शासक हर्षवर्धन के उत्तराधिकारी माने जाते थे। ललितादित्य मुक्तपीड़ ने यशोवर्मन के राज्य अंतर्वेदी पर आक्रमण किया, और एक भीषण युद्ध के पश्चात यशोवर्मन को शांतिवार्ता के लिए विवश भी किया। इसी अंतर्वेदी राज्य की राजधानी कान्यकुब्ज हुआ करती थी, जिसे आज हम कन्नौज के नाम से भी जानते हैं।
ललितादित्य यशोवर्मन को परास्त करने के पश्चात विंध्याचल की तरफ निकल पड़े, जहां उन्हें कर्णात वंश की महारानी रत्ता मिली। रत्ता की समस्या को समझते हुये कर्णात वंश की ललितादित्य ने न केवल विदेशी आक्रमणकारियों से रक्षा की, अपितु उनके समक्ष मित्रता का हाथ भी बढ़ाया। कई लोगों के अनुसार रत्ता कोई और नहीं वरन राष्ट्रकूट वंश की रानी भवांगना ही थी। विंध्याचल की रक्षा करने के उपरांत पश्चात ललितादित्य ने अपना ध्यान उत्तर की ओर केन्द्रित किया। ललितादित्य मुक्तपीड़ ने लद्दाख और कुछ पश्चिमी प्रांत, जो तब तिब्बतियों के अधीन थे उन पर भी आक्रमण कर तिब्बतियों को पूरी तरह से अपने अधीन कर लिया था। यही वो समय था जब मुहम्मद बिन कासिम ने मुल्तान पर आक्रमण किया था, अरब आक्रांताओं का एकमात्र ध्येय भारत राज्य को इस्लाम के अधीन करना था।
अल-बरूनी अपनी किताब में लिखते हैं कि बुखारा के संचालक मोमिन को कश्मीरी राजा मुथाई ने हराया था। मुथाई की पहचान मुक्तपीड़ के रूप में की जाती है, जो ललितादित्य का ही दूसरा नाम था। संभवतः पामीर क्षेत्र पर उनका अभियान विजयी रहा था। यहाँ विजयोपरांत वे बाद अगले गंतव्य के लिए कूच कर गए। और इस बार आक्रमण सीधा अरबों के मर्मस्थान पर था। अरबों पर विजय उतनी सरल नहीं थी। ललितादित्य मुक्तपीड़ ने वीरता के साथ-साथ कूटनीति का भी प्रयोग किया। उन्होंने चीन के तांग राजवंश से संपर्क किया था जो 7वीं शताब्दी के दौरान सत्ता के शीर्ष पर था। ललितादित्य अरबों और तिब्बतियों के खिलाफ लड़ाई में उन्हें अपनी ओर करने में कामयाब रहे। दोनों ने मिल कर तिब्बतियों को हराया साथ ही तत्कालीन बांग्लादेश और अन्य पूर्वी क्षेत्रों पर नियंत्रण कर लिया था।
उन्होंने तुर्केस्तानंद ट्रान्सोक्सियाना पर भी विजय प्राप्त की, जो मध्य एशिया यानि आधुनिक उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, दक्षिणी किर्गिस्तान और दक्षिण-पश्चिम कजाकिस्तान था। इसके बाद ललितादित्य ने काबुल के रास्ते तुर्केस्तान पर आक्रमण किया। चार भीषण युद्ध हुए और चारों ही युद्धों में ललितादित्य का विजयश्री ने वरन किया। मोमिन बुखारा परास्त हुआ। मोमिन को परास्त कर ललितादित्य मुक्तपीड़ ने अपने राज्य की सीमाएं कैस्पियन सागर तक विस्तृत कर दी जो कालांतर में काराकोरम पर्वत श्रृंखला के सुदूरवर्ती कोने तक जा पहुँचा। अरबों के प्रति उनका रोष ऐसा था कि उन्हे परास्त करने के बाद वह उनके आधे सिर मुंडवाने देते थे। परंतु इस महान सम्राट के एक परम मित्र भी थे, जिनके वंशज आज भी देश के लिए देवतुल्य हैं। कभी कालभोज का नाम सुना है? नहीं सुना है, परंतु बप्पा रावल का तो सुना होगा। जिस माटी से महाराणा प्रताप जैसे परम वीर निकले, जिस माटी से महाराणा हम्मीर, महाराणा कुम्भ जैसे परम प्रतापी योद्धा निकले, उसी पवित्र मेवाड़ की नींव स्थापित करने थे सम्राट कालभोज, जिन्हे इतिहास बप्पा रावल के नाम से बेहतर जानता है।
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अपनी संस्कृति को बचाने के लिए एकत्र हुए तीनों महावीर
किसी ने सत्य ही कहा है, ‘पशु को मारने के लिए स्वयं पशु होना पड़ता है!’ अरब आक्रान्ताओं के क्रूर और असभ्य संस्कृति को देखते हुए भारतीय शासक एकत्रित हुए और उन्होंने संकल्प लिया – ‘राष्ट्रधर्म से बढ़कर कुछ नहीं।’ इस संकल्प के तीन स्तम्भ के रूप में तीन महावीर योद्धा उभरकर सबके समक्ष आये– प्रतिहार वंश के नागभट्ट, कार्कोट के प्रख्यात सम्राट ललितादित्य मुक्तपीड़ एवं मेवाड़ राज बप्पा रावल। बप्पा रावल इस त्रिमूर्ति के सबसे मजबूत स्तंभों में से एक थे। वे स्पष्ट जानते थे– आत्मरक्षा में आक्रामकता ही अंतिम विकल्प है, अन्यथा शत्रुओं को उनके भारत भूमि को क्षत-विक्षत करने में तनिक भी समय नहीं लगेगा।
प्रसिद्ध इतिहासकार रमेश चन्द्र मजूमदार की ऐतिहासिक पुस्तक ‘प्राचीन भारत’ [Ancient India] के अनुसार ललितादित्य यशोवर्मन को परास्त करने के पश्चात विंध्याचल की तरफ निकल पड़े, जहां उन्हें कर्णात वंश की महारानी रत्ता मिली। रत्ता की समस्या को समझते हुये कर्णात वंश की ललितादित्य मुक्तपीड़ ने न केवल विदेशी आक्रमणकारियों से रक्षा की, अपितु उनके समक्ष मित्रता का हाथ भी बढ़ाया। कई लोगों के अनुसार रत्ता कोई और नहीं वरन राष्ट्रकूट वंश की रानी भवांगना ही थी, और फलस्वरूप उनके पुत्र, युवराज दाँतिदुर्ग धर्मयुद्ध हेतु सेवा में उपस्थित हुए।
परन्तु चित्रकूट यानी चित्तौड़ को अरब शासन से स्वतंत्र कराना कोई सरल कार्य नहीं था। सम्राट नागभट्ट प्रथम ने अरबों को पश्चिमी राजस्थान और मालवे से मार भगाया। बप्पा रावल ने यही कार्य मेवाड़ और उसके आसपास के प्रदेश के लिए किया। जो मोरी करने में असमर्थ थे , वो बप्पा ने सफलतापूर्वक सिद्ध किया और साथ ही चित्तौड़ पर भी अधिकार कर लिया। सम्राट नागभट्ट, सम्राट बप्पा और सम्राट ललितादित्य मुक्तपीड़ के संयुक्त नेतृत्व ने अरबी सेना पर जो त्राहिमाम किया, उसके कारण अगली तीन शताब्दियों तक अरब छोडिये, किसी आक्रान्ता के अन्दर साहस नहीं हुआ कि वह तीन शताब्दियों तक भारत की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखे।
बप्पा रावल और महाराणा हम्मीर में एक समान बात जानते हैं क्या है? दोनों ही भगवान् शिव के बहुत अनन्य उपासक थे, और दोनों ही भगवान शिव को भारतवर्ष का प्रतिबिम्ब मानते थे। इसीलिए जब शताब्दियों बाद महाराणा हम्मीर ने मेवाड़ के गौरव को पुनर्स्थापित किया, तो उन्होंने मेवाड़ का सिंहासन अपने लिए ग्रहण करने के स्थान पर भगवान शिव, यानी एकलिंग महाराज को मेवाड़ और समस्त राजपूताना का अधिपति माना और उन्होंने उनके नेतृत्व में म्लेच्छों यानी तुर्कों से लड़ने का आवाहन करते हुए राणा यानि मेवाड़ का प्रथम सेवक होने का निर्णय लिया।
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अरबियों ने आक्रमण किया था कि 712 ईसवीं में थे, परंतु कोई यह नहीं बताता कि 750 आते-आते इनके पाँव उखड़ने लगे थे, और जितने भी क्षेत्रों पर नियंत्रण इन्होंने स्थापित किया था, वह सब इनके हाथ से रेत की भांति फिसल गया। जिस गांधार भूमि पर म्लेच्छों ने आधिपत्य स्थापित करने का प्रयास किया, वहाँ पर भी परिवर्तन लाने में समय नहीं लगा। परंतु 11 वीं शताब्दी तक आते-आते इस एकता की भावना को भारतवासी भूलने लगे, और परिणाम स्वतः सुल्तान महमूद गजनवी के आक्रमण के समय सिद्ध हुआ।
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