दुनिया लगातार ध्रुवीकृत हो रही है। दिलचस्प बात यह है कि यह ध्रुवीकरण अमेरिका विरोधी है। अब लगभग हर विकासशील और विकसित देश अपनी शर्तों और राष्ट्रीय हितों पर बात करने की कोशिश कर रहे हैं। भारत इस मामले में लीडर के रूप में उभरा है। इन वैश्विक मंचों के सदस्यों के बीच अब भारत का दबदबा है। G7 भी इससे अलग नहीं है, 2019 के बाद से लगातार चौथी बार भारत को G7 शिखर सम्मेलन के लिए आमंत्रित किया गया है।
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जर्मनी में पीएम मोदी
पीएम मोदी के पास एक अद्भुत काबिलियत है। वो समस्या को अवसर के रूप में देखते हैं। आज भारत जिस स्थिति में खड़ा है वहां दुनिया का हर उभरता हुआ राष्ट्र भारत को अपना नेता मानता है और उसके साथ अपना नाम जोड़ने की भरसक कोशिश करता है। उदाहरण के लिए आप G7 के तुरंत बाद के मोदी के विदेश दौरों को ही देख लें। G7 वार्षिक शिखर बैठक में भाग लेने के उद्देश्य से पीएम मोदी 26 जून और 27 जून को जर्मनी में होंगे। विदेश मंत्रालय के एक बयान में कहा गया है कि “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चांसलर के निमंत्रण पर जर्मनी के श्लॉस एलमौ का दौरा करेंगे।“
भारत के बढ़ते महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पीएम मोदी दो सत्रों में बोलेंगे। विदेश मंत्रालय ने कहा, “शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री के दो सत्रों में बोलने की उम्मीद है जिसमें पर्यावरण, ऊर्जा, जलवायु, खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य, लैंगिक समानता और लोकतंत्र शामिल हैं।” जाहिर है G7 मात्र एक शिखर सम्मेलन नहीं है। G7 से पहले माननीय प्रधानमंत्री ब्रिक्स और राष्ट्रमंडल शिखर सम्मेलनों में भी भाग लेंगे। उसके बाद वो UAE जायेंगे।
भारत के लिए G7 पहल के कारण
तो स्पष्ट सवाल यह है कि वास्तव में यह हुआ कैसे? रूस से नफरत करने वाले और भारत पर रूस का समर्थन करने का आरोप लगाने वाले देशों के समूह ने लगातार चौथी बार भारत को कैसे आमंत्रित किया? इसमें किसी एक विशिष्ट कारण को इंगित करना कठिन है। लोकतांत्रिक संस्थाएं निर्बाध रूप से काम करने के लिए सामूहिक प्रयास करती हैं। लेकिन श्रेय का एक बड़ा हिस्सा हमेशा नेता को जाता है। पिछले 8 वर्षों से पीएम मोदी और उनकी कैबिनेट वैश्विक मंच पर भारत की विकास गाथा के हर मिनट पहलू को उजागर करने में सक्रिय रही है।
पीएम मोदी और संबंधित मंत्रालयों, विशेष रूप से विदेश मंत्रालय ने यह सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है कि भारत जब वैश्विक लोकतंत्र के पथ पर आगे बढ़ता हैं तो उसकी शक्ति को दरकिनार नहीं किया जा सकता है। स्वर्गीय सुषमा स्वराज के नेतृत्व में भारत ने सार्क जैसे मंचों को अप्रासंगिक बनाकर अपने बहुपक्षीय दृष्टिकोण की शुरुआत की थी। उधर, पीएम मोदी ने संयुक्त राष्ट्र जैसे संगठनों को उसकी ही मांद में फटकार लगानी शुरू कर दी।
मंत्रालयों ने अपना काम किया
वैश्विक मंचों पर पश्चिमी देशों की क्लास लगाने की शुरूआत पीएम मोदी ने की। यह उनके कैबिनेट मंत्रियों के लिए अनुवर्ती कार्रवाई का समय था। वित्त मंत्रालय ने भारत की आत्मनिर्भरता को बढ़ाकर अपनी भूमिका निभाई। खेल मंत्रालय ने ओलंपिक में भारत के पदकों की संख्या बढ़ाकर अपनी भूमिका निभाई। वाणिज्य मंत्रालय ने भारत के हितों को प्रभावित करने वाले विभिन्न मुद्दों पर अडिग रहकर अपनी भूमिका निभाई। लेकिन ये सभी पहल सफल नहीं होते अगर विदेश मंत्रालय ने अपना उचित प्रयास नहीं किया होता। एक तरफ सुषमा स्वराज ने दुनिया को संकेत दिया था कि वह अपने नागरिकों को कभी भी संकट में नहीं छोड़ेंगी, वहीं दूसरी ओर अब जयशंकर ने अपनी दृढनिश्चयता से स्पष्ट संकेत दिया है कि भारत झुकेगा नहीं।
जयशंकर के आगे सब फेल हैं!
वो जयशंकर ही थे जिन्होंने भारत के पक्ष को वैश्विक मंच पर मजबूती से रखा। हालांकि, वाणिज्य मंत्रालय ने पहले ही भारत को आरसीईपी सौदे से बाहर निकालकर अपना रुख स्पष्ट कर दिया था, पर यह जयशंकर ही थे जिन्होंने अपनी शारीरिक भाषा और शब्दों से उस विश्वास को मूर्त रूप दिया था। जाहिर है, इससे पहले कि भारत ने चीन को गलवान में हराया तब भारत को 2019 में G7 द्वारा आमंत्रित किया गया था। इसी बीच जयशंकर ने सुनिश्चित किया कि भारत भी प्रकाशिकी के इस खेल में विजेता के रूप में उभरे।
वैश्विक मंचों पर उन्होंने पश्चिमी देशों को बाएं, दाएं और केंद्र में हराया। भारत का प्रभुत्व इतना विशाल था कि रूस के साथ भारत के बढ़ते संबंधों पर अमेरिका की निंदा बहुत ही शांत स्वर में हुई। आज G7 जानता है कि भारत को इसकी जरूरत नहीं है। इसके बजाय, समूह के प्रत्येक देश को द्विपक्षीय समर्थन के लिए भारत की आवश्यकता है। वे जानते हैं कि अगर वे भारत को आमंत्रित नहीं भी करते हैं, तो इससे उसके हितों पर कोई असर नहीं पड़ेगा। किन्तु, इससे उनके आर्थिक और सामरिक हित ही प्रभावित होंगे।
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