बाला साहेब ठाकरे द्वारा बनाई गई ‘लक्ष्मण रेखा’ को पार करना ही उद्धव सरकार के पतन की शुरुआत थी

क्या उद्धव अपने पिता के सिद्धांतों को भूल गए हैं ?

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Source - TFIPOST.in

महाविकास अघाड़ी सरकार की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी हैं। महज ढाई साल के भीतर ही उद्धव का किला ध्वस्त होने की कगार पर पहुंच गया और इसके पीछे का कारण कोई और नहीं बल्कि उनकी खुद की ही पार्टी शिवसेना बन रही हैं। शिवसेना में इस वक्त दो फाड़ की स्थिति बनी हुई है। एकनाथ शिंदे ने शिवसेना के 40 विधायकों को अपने साथ लाकर उद्धव ठाकरे को अपनी ताकत का एहसास करा दिया। जिसके चलते उद्धव ठाकरे के हाथों से अब केवल सरकार ही नहीं बल्कि उनकी पार्टी तक फिसलती हुई दिख रही है।

महाराष्ट्र में यह जो सियासी संकट गहराया है और शिवसेना में टूट की स्थिति बनी उसका जिम्मेदार कोई और नहीं स्पष्ट तौर पर उद्धव ठाकरे ही नजर आते हैं। कांग्रेस और एनसीपी के साथ बेमेल गठबंधन बनाकर उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री की कुर्सी तक तो पहुंचने में कामयाब हुए। परंतु इसके साथ ही उन्होंने शिवसेना के मूल सिद्धांतों को ताक पर रख दिया। देखा जाए तो उद्धव ठाकरे की उल्टी गिनती उसी दिन शुरू हो गई थी, जब उन्होंने अपने पिता और दिवगंत नेता बाला साहेब ठाकरे द्वारा बनाई गई “लक्ष्मण रेखा” को पार कर दिया था।

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बाला साहेब से परे है उद्धव ठाकरे के विचार

बाला साहेब ठाकरे और उद्धव ठाकरे और इन दोनों के व्यक्तित्व में जमीन आसमान का अंतर है। दोनों एक दूसरे से एकदम विपरीत है। जहां बाला साहेब अपनी बेबाकी और कट्टर हिंदूवादी के तौर पर जाने जाते थे। वो किसी भी मुद्दे में अपने राय रखने से जरा भी नहीं झिझकते। पूरे महाराष्ट्र में उनकी तूती बोलती थी। कहा तो यह तक जाता है कि मुंबई में बाला साहेब की इजाजत के बिना एक पत्ता तक भी नहीं हिल सकता था। इसके विपरित उद्धव ठाकरे का स्वभाव शांत हैं। सही मायने में देखा जाए तो बाला साहेब ठाकरे के बाद शिवसेना के असली उत्तराधिकारी उनके भतीजे राज ठाकरे थे।

राज ठाकरे के हावभाव और तेवर भी ठीक बाला साहेब की ही तरह थे। परंतु तब पुत्र मोह के चक्कर में बाला साहेब ने उद्धव ठाकरे को आगे बढ़ा दिया। उद्धव के हाथों में जैसे ही शिवसेना की कमान आई, पार्टी की पकड़ राज्य से कम होती चली गई। शिवसेना और मातोश्री का वो प्रभाव महाराष्ट्र की राजनीति पर नहीं रहा जो बाला साहेब के समय हुआ करता था। यह तक तो सबकुछ फिर भी ठीक था। परंतु फिर 2019 में उद्धव ठाकरे ने सत्ता और मुख्यमंत्री पद के लालच में जो कुछ किया, वो शिवसेना के मौजूदा हालातों की असल वजह बना। केवल मुख्यमंत्री बनने के चक्कर में उद्धव ठाकरे ने शिवसेना के मूल सिद्धांतों से समझौता कर लिया और कांग्रेसएनसीपी जैसी पार्टियों के साथ बेमेल गठबंधन तैयार कर लिया।

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बाला साहेब ने हमेशा हिन्दुत्व को प्राथमिकता दी

दशकों तक शिवसेना जिन कांग्रेस और एनसीपी के साथ लड़ती रही, उद्धव ने उन्हीं के साथ हाथ मिला लिया। बाला साहेब कभी भी कांग्रेस के साथ गठबंधन के लिए तैयार नहीं थे। एक बार तो उन्होंने यह तक कह दिया था – ‘शिवसेना को कभी कांग्रेस जैसा नहीं होने दूंगा, कभी नहीं। मुझे मालूम होगा कि ऐसा हो रहा है तो मैं अपनी दुकान बंद कर लूंगा। शिवसेना चुनाव नहीं लड़ेगी।’ फिर पिछले ढाई सालों में तीन पहियों वाली महाविकास अघाड़ी सरकार के साथ सरकार चलाते चलाते वे शिवेसना के हिंदुत्व वाले सिद्धांतो को पीछे छोड़ते चले गए। जबकि बाला साहेब ने अंतिम वक्त तक हिंदुत्व को नहीं छोड़ा।

यह सबकुछ उद्धव ठाकरे ने केवल मुख्यमंत्री पद की लालसा में किया और इसके साथ ही उन्होंने ठाकरे परिवार की परंपरा को भी तोड़ दिया। दरअसल, बाला साहेब ठाकरे ने ना तो कभी चुनाव लड़ा और ना ही कभी कोई राजनीतिक पद संभाला। महाराष्ट्र में सरकार किसी की भी हो, परंतु उसका रिमोट बाला साहेब के हाथों में ही होता था। रिमोट कंट्रोल के माध्यम से पूरे महाराष्ट्र पर उन्होंने अपना दबदबा बना रखा था। उद्धव ने जिन दिन अपने दिवंगत पिता की इस परंपरा को तोड़ा उन्होंने शिवसेना के पतन की कहानी लिख दी। उद्धव की इसी गलती और पार्टी संभालने की नाकामी ने शिवसेना की लुटिया डुबो दी। इन सबको देखकर पता चलता है कि शिवसेना के मौजूदा हालातों के सबसे बड़े जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ उद्धव ठाकरे हैं।

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