आप सभी ने एक कहावत तो सुनी ही होगी कि अक्सर लोग कहते हैं, जो जीतता है, इतिहास वही बनाता है। ये सत्य है, और इसे सत्य सिद्ध करने में वामपंथियों ने अपने प्रयासों में कोई कमी नहीं रखी। ब्रेवहार्ट जैसे विश्वप्रसिद्ध फिल्म में तो एक संवाद भी हैं, “इतिहास वे लिखते हैं, जो नायकों को लटका देते हैं”। परंतु इतिहास केवल पुस्तकों तक ही सीमित नहीं है, और कभी-कभी कुछ ऐसी भी घटनाएँ होती हैं, जिन्हे सुनकर प्रथम प्रतिक्रिया यही होगी, “हैं, ऐसा भी हुआ था?”
ऐसी ही एक कथा है हिमालय के एक क्षेत्र कांगड़ा की, जो वर्तमान भारत के हिमाचल प्रदेश का हिस्सा है। यहाँ निवास था कटोच राजपूतों का, जो माँ भवानी के उज्ज्वल स्वरूप, ज्वाला माई के अनन्य उपासक थे। परंतु जब इनकी माटी पर कुछ दुष्टों की कुदृष्टि पड़ी, तो इन्होंने आत्मरक्षा में शस्त्र उठा लिए, और फिर एक ऐसा युद्ध हुआ, जिसने इतिहास, और भूगोल, दोनों ही पलट दिया, पर जिसका उल्लेख आज भी भारत के आधुनिक इतिहास में कहीं भी दूर-दूर तक नहीं है।
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मुसलमानों के खोखले दावे
जहां पर वो दावे करते हैं कि उन्होंने 800 वर्षों तक भारत पर राज किया था, और कोई उन्हे चुनौती तक नहीं दे पाया था। अकबरुद्दीन ओवैसी से लेकर मौलाना महमूद मदनी तक हर नेता अपने कथित इस्लामिक राज को अपना सीना ठोंकने से कतई नहीं पीछे हटते, विशेषकर दिल्ली सल्तनत के बारे में तो बिल्कुल भी नहीं। परंतु इसी सल्तनत में एक ऐसे संग्राम की नींव भी पड़ी थी, जो इस बात को परिलक्षित करती है कि भारतीयता का अर्थ क्या है। वामपंथी आपको बड़े चाव से बताएंगे कि दिल्ली सल्तनत ने कैसे-कैसे भवन दिल्ली को दिए, वामपंथी आपको बताएंगे कि कैसे सूफी संस्कृति से भारत की गंगा जामुनी तहज़ीब को बढ़ावा मिला, परंतु दिल्ली सल्तनत के स्याह पहलू से यह कभी आपको परिचित नहीं कराएंगे। यह कभी आपको परिचित नहीं कराएंगे कि कैसे मोहम्मद ग़ोरी से लेकर घियासुद्दीन बलबन तक, अलाउद्दीन खिलजी से लेकर गाजी मलिक तक, भारत के कोने-कोने में, अनंत प्रकार के अत्याचार ढाए गए।
परंतु हर वस्तु की अति होती है, और इसी अति की प्रतिमूर्ति थे फक्र मलिक जूना खान, जिन्हे इतिहास मुहम्मद बिन तुग़लक के नाम से बेहतर जानता है। कुछ के लिए वह उलुग़ खान था, तो कुछ के लिए वह फख्र मलिक। इनके पिता तुर्क थे, तो माँ तुर्क हरम से निकली एक हिन्दू दासी, जिन्हे लोग मखदूमा ए जहां भी कहते थे। राजामुंदरी के एक अभिलेख में मुहम्मद तुग़लक़ (जौना या जूना ख़ाँ) को दुनिया का ख़ान कहा गया है। मध्यकालीन सभी सुल्तानों में मुहम्मद तुग़लक़ सर्वाधिक शिक्षित, विद्वान एवं योग्य व्यक्ति था। इसीलिए अपनी सनक भरी योजनाओं, क्रूर-कृत्यों एवं दूसरे के सुख-दुख के प्रति उपेक्षा का भाव रखने के कारण इसे ‘स्वप्नशील’, ‘पागल’ एवं ‘रक्त-पिपासु’ कहा गया है। बरनी, सरहिन्दी, निज़ामुद्दीन, बदायूंनी एवं फ़रिश्ता जैसे इतिहासकारों ने सुल्तान को अधर्मी घोषित किया गया है।
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मुहम्मद बिन तुगलक कौन था ?
मुहम्मद बिन तुगलक इतना क्रूर था कि अपनी सनक में उसने समस्त कन्नौज के नरसंहार का आदेश दे दिया। जी हाँ, जहां मुहम्मद गोरी, अलाउद्दीन खिलजी जैसे क्रूर शासक भी एक बार को अपने कदम पीछे खींच ले, मुहम्मद बिन तुगलक उनसे मीलों आगे बढ़कर क्रूरता और बर्बरता दिखाने का प्रयास करता, और प्रारंभ में वह सफल भी हुआ। कन्नौज का सम्पूर्ण विध्वंस करवाकर उसने फिर दिल्ली से अपनी राजधानी देवगिरि [दौलताबाद] स्थानांतरित करने का निर्णय लिया। तो इसमें समस्या क्या थी? समस्या ये थी कि केवल राजधानी और अफसर ही नहीं, सभी लोगों को तलवार की नोक पर तुगलक स्थानांतरित करना चाहते थे, और उसने वास्तव में ऐसा किया, जिसके कारण असंख्य निर्दोषों को अपने प्राण गँवाने पड़े। कल्पना कीजिए कि राहुल गांधी को असीमित शक्तियां मिली हो, वह सत्ता में दुर्भाग्यवश है, और उसे चुनौती देने वाला कोई नहीं है। तुगलक यही राहुल गांधी थे।
ये कटोच राजपूत कहाँ से आए?
ये कथा है 1333 की, जब ओट्टोमन साम्राज्य का प्रभुत्व और दिल्ली सल्तनत, दोनों ही अपने शिखर पर थे। मुहम्मद बिन तुग़लक ने अपना अलग नगर ही बसा रखा तक, जिसका नाम भी रखा था– जहाँपनाह। इनका स्वप्न था– जो मुहम्मद गोरी और अलाउद्दीन खिलजी न कर सके, वे स्वयं करेंगे– सिकंदर को पीछे छोड़कर दिग्विजयी बनना, जिसके लिए वह चीन पर विजय प्राप्त करने निकल पड़े। मुहम्मद बिन तुगलक के लिए मँगोल सरदर्द से कम नहीं थे, और उन्हे नियंत्रित करने का एक विकल्प था– चीन पर आधिपत्य प्राप्त करना। परंतु इसके लिए उन्होंने हिमालय का कठिन मार्ग चुना, और इसके पीछे इसका तर्क पढ़िए– क्योंकि हिमालय के पर्वत जितने ऊंचे हैं, इसलिए उन्हे पार करना तनिक भी कठिन न होगा। अब इस बात पर भी इन मूर्खों का उपहास न उड़ाया जाए तो किस बात पर उड़ाया जाए? इसीलिए कहा जाता है, कुछ भी पालें, पर भ्रम नहीं।
बदायूनी और फरिश्ता जैसे इतिहासकारों ने इस बात की पुष्टि करते हुए कहा, इसी भ्रम में रमे मुहम्मद बिन तुगलक ने एक लाख से अधिक की विशाल सेना हिमालय की ओर भेज दी, क्योंकि चीन की विजय बस ‘हिमालय को फांदकर पार करने’ की देर ही तो थी। यही अति आत्मविश्वास मुहम्मद बिन तुगलक को बहुत भारी पड़ने वाला था, क्योंकि उन्हे तनिक भी आभास नहीं था कि उनका सामना किस्से होगा। इस अभियान का समाचार कांगड़ा में स्थित कटोच राजपूतों को भी पहुंचा, जो नगरकोट प्रांत में निवास करते थे। इनके राजा थे पृथ्वी चंद द्वितीय, जिनके पास दो विकल्प थे– या तो सुल्तान तुगलक के लिए मार्ग प्रशस्त करें, या फिर अंतिम श्वास तक लड़ें। परंतु कटोच राजपूतों की योजना तो कुछ और ही थी।
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वामपंथी आज भी महानायकों का नाम लेने से कतराते है
आधुनिक इतिहास के परिप्रेक्ष्य में अमेरिका के सेनाध्यक्ष रहे जनरल पैटन ने सत्य कहा है, “युद्ध का उद्देश्य ये नहीं कि एक सैनिक वीरगति को प्राप्त हो, अपितु आपके समक्ष जो शत्रु है, उसे धाराशायी करना अति आवश्यक है”। इस पद्वति को शायद कांगड़ा के कटोच राजपूतों प्रारंभ से जानते थे, और इसीलिए उन्होंने अपने भूगोल का उचित प्रयोग करने का निर्णय किया। संयोग भी खूब था, तुगलक की सेना ने उसी समय धावा बोला, जब वर्षा ऋतु ने अपना प्रचंड रूप धारण करना प्रारंभ किया था। ऐसे में कटोच राजपूतों के लिए कार्य आवश्यकता से अधिक सरल हो गया। जब तुगलक की सेना ने धावा बोला, तो चारों ओर से घेरते हुए कटोच राजपूतों ने उन्हे कहीं का नहीं छोड़ते हुए पटक पटक के धोया। एक ओर तो कांगड़ा के दुर्ग के मार्ग इतने तंग थे कि दो लोग एक साथ भी नहीं जा सकते थे। उसके अतिरिक्त प्रकृति के प्रकोप ने तुगलक की सेना के लिए मानो कोढ़ में खाज का काम कर दिया। लाखों की सेना लेकर जो तुगलक के लड़ाके चीन पर विजयी होने निकले थे, वह मात्र कुछ सौ दो सौ सैनिक लेकर किसी तरह दिल्ली आने में सफल हो पाए थे।
इसी पराजय से नींव पड़ी तुर्की सल्तनत के अभेद्य दुर्ग में संदेह की। कहीं न कहीं तो भारत के निवासियों में ये संदेश अवश्य गया होगा, कि यदि पर्वत में बसे चंद कटोच राजपूत ये कर सकते हैं, तो हम क्यों नहीं। इस पराजय से एक ऐसे संग्राम के बीज बोए गए, जिसने न केवल तुर्की सल्तनत के पतन की नींव रखी, अपितु भारत के कुछ महानायकों को स्थापित रखी, जिनका नाम लेने से आज भी वामपंथी कतराते हैं। पर उनके बारे में फिर कभी।
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