आप अजमेर जाते हैं तो सर्वप्रथम कहां जाने की सोचते हैं? निस्संदेह ख्वाजा गरीब नवाज़ की दरगाह और कभी अगर पुष्कर मेला लगा तो ‘असली राजस्थान’ का स्वाद लेने हेतु पुष्कर। परंतु अजमेर केवल इन दोनों के लिए ही तो प्रसिद्ध नहीं है। अजमेर में ब्रह्मदेव का मंदिर भी है जो ब्रह्मांड में उनका एकमात्र मंदिर है परंतु जितनी चर्चा एक दरगाह की होती है, जो आज कट्टरपंथ का एक स्त्रोत भी है, उतनी इस पवित्र तीर्थधाम की दुर्भाग्यवश नहीं होती। टीएफआई प्रीमियम में आपका स्वागत है। इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि कैसे अजयमेरु के पवित्र पुष्कर महातीर्थ के भव्य स्वरूप पर अजमेर शरीफ का ग्रहण लगा और कैसे एक दरगाह ने देखते ही देखते एक पावन महातीर्थ के प्रभाव को निष्फल कर दिया।
आज अजमेर केवल अजमेर दरगाह के नाम से ही जाना जाता है जो आजकल अपने कट्टरपंथी विचारधारा के कारण जन विद्रोह के निशाने पर है। परंतु क्या आपको ज्ञात है कि अजमेर का नाम कभी अजयमेरु भी था तथा यह ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के लिए कम और ब्रह्मदेव के पावन मंदिर एवं पुष्कर सरोवर के महातीर्थ के लिए अधिक जाना जाता था। ऐसा क्या हुआ कि अजयमेरु के पावन तीर्थस्थल पर साम्राज्यवाद का ग्रहण लग गया और पुष्कर सरोवर के पावन तीर्थ को अजमेर शरीफ के छलावे ने ढक लिया? इसका संपूर्ण विश्लेषण अति आवश्यक है परंतु पुष्कर के महातीर्थ का अवलोकन भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
पुष्कर के उद्भव का वर्णन पद्म पुराण में मिलता है। कहा जाता है ब्रह्मा ने यहां आकर यज्ञ किया था परंतु उन्होंने देवी सरस्वती के स्थान पर देवी गायत्री का आह्वान किया, इसलिए सरस्वती आक्रोशित हो गईं और उन्होंने श्राप दिया कि पुष्कर को छोड़कर संसार में उनकी कहीं पूजा नहीं होगी। कुछ जनश्रुतियों का यह भी मानना है कि एक समय त्रिमूर्ति ने संसार की परिक्रमा करने का निर्णय लिया परंतु जब भगवान विष्णु और महादेव को पता चला कि ब्रह्मदेव तो केवल एक बार परिक्रमा कर अपने मूल स्थान पर लौट गए और उन्हें माया से भ्रमित कर रहे हैं तब क्रोध में महादेव ने उन्हें श्राप दिया कि न संसार में उनका कोई वर्णन होगा, न ही कोई उनकी पूजा करेगा। एक जनश्रुति तो सभी को ज्ञात है जो तिरुपति स्वामी के उत्पत्ति के पीछे विश्वप्रसिद्ध है, जिसमें अपने क्रोध के लिए चर्चित दुर्वासा मुनि की भी महत्वपूर्ण भूमिका है।
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भारत के राजस्थान राज्य में स्थित पुष्कर अरावली श्रेणी की घाटी में अजमेर नगर से पांच मील पश्चिम अजमेर जिले का एक नगर तथा स्थानीय मंडी है। इसके निकटवर्ती क्षेत्र में ज्वार, बाजरा, मक्का, गेहूं तथा गन्ने की उपज होती है। कलापूर्ण कुटीर-वस्त्र-उद्योग, काष्ठ चित्रकला तथा पशुओं के व्यापार के लिए यह विख्यात है। यहां पवित्र पुष्कर झील है तथा समीप में ब्रह्मा जी का पवित्र मंदिर भी है, जहां प्रति वर्ष अनेक तीर्थयात्री आते हैं। यह सागरतल से २,३८९ फुट की ऊंचाई पर स्थित है। यहां कई प्रसिद्ध मंदिर हैं, जो औरंगजेब द्वारा ध्वस्त करने के बाद पुन: निर्मित किए गए हैं। पुष्कर में पाण्डवों के अज्ञातवास के समय पाण्डवों द्वारा निर्मित पांच कुण्ड भी हैं जो कि नगर से पूर्व की ओर नाग पहाड़ पर स्थित है। ध्यान देने वाली बात है कि नाग पहाड़ करीब 11 किमी लंबा है यह पहाड़ अनेक ऋषि-मुनियों की तपोस्थली रहा है। इस पर महर्षि अगस्त्य एवं वाम देव की गुफा भी है और इसी नाग पहाड पर राजा भर्तृहरि की तपोस्थली भी है। यह पर्वत नगर के पूर्व से दक्षिण में स्थित है जो कि अनेक जड़ी-बूटियों से युक्त है। इस पहाड के ऊपर से एक ओर अजमेर तो दूसरी तरफ पुष्कर का मनोरम द्रश्य देखा जा सकता है। वर्ष में एक बार इसी पहाड़ पर लक्ष्मी पोळ नामक स्थान पर हरियाली अमावस्या के दिन भारी मेला लगता है!
हिंदुओं के प्रमुख तीर्थस्थानों में पुष्कर ही एक ऐसी जगह है जहां भगवान ब्रह्मा का मंदिर स्थापित है। भगवान ब्रह्मा के मंदिर के अतिरिक्त वहां सावित्री, बद्रीनारायण, वाराह और शिव आत्मेश्वर के मंदिर है, किंतु वे आधुनिक हैं। वहां के प्राचीन मंदिरों को मुगल सम्राट औरंगजेब ने नष्टभ्रष्ट कर दिया था। पुष्कर का उल्लेख रामायण में भी हुआ है। वाल्मीकि रामायण के सर्ग ६२ श्लोक २८ में कहा गया है कि “विश्वामित्रो ऽपि धर्मात्मा भूयस्तेपे महातपाः। पुष्करेषु नरश्रेष्ठ दशवर्षशतानि च।“ वाल्मीकि रामायण में बालकाण्ड के अनुसार ऋषि विश्वामित्र के यहां तप करने की बात कही गई है और यहीं पर अप्सरा मेनका पावन जल में स्नान के लिए भी आई थीं।
ध्यान देने वाली बात है कि पुष्कर केवल सनातन धर्म के लिए ही नहीं बल्कि बौद्ध धर्म के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण है। साँची स्तूप दानलेखों में (जिनका समय ई. पू. दूसरी शताब्दी है) कई बौद्ध भिक्षुओं के दान का वर्णन मिलता है जो पुष्कर में निवास करते थे। पांडुलेन गुफा के लेख में जो ई. सन् १२५ का माना जाता है उषमदवत्त का नाम आता है। यह विख्यात राजा नहपाण के दामाद थे जिन्होंने पुष्कर आकर ३००० गायों एवं एक गांव का दान किया था।
इन लेखों से पता चलता है कि ई. सन् के आरंभ से या उसके पहले से पुष्कर तीर्थस्थान के लिए विख्यात था। स्वयं पुष्कर में भी कई प्राचीन लेख मिले हैं जिनमें सबसे प्राचीन लगभग ९२५ ई. सन् का माना जाता है। पुष्कर को तीर्थों का मुख माना जाता है। जिस प्रकार प्रयाग को “तीर्थराज” कहा जाता है, उसी प्रकार से इस तीर्थ को “पुष्करराज” कहा जाता है। पुष्कर की गणना पंचतीर्थों व पंच सरोवरों में की जाती है। पुष्कर सरोवर तीन हैं-
- ज्येष्ठ (प्रधान) पुष्कर
- मध्य (बूढ़ा) पुष्कर
- कनिष्क पुष्कर
ज्येष्ठ पुष्कर के देवता ब्रह्माजी, मध्य पुष्कर के देवता भगवान विष्णु और कनिष्क पुष्कर के देवता रुद्र हैं। पुष्कर का मुख्य मन्दिर ब्रह्मा जी का मन्दिर है, जो कि पुष्कर सरोवर से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है। मन्दिर परिसर में चतुर्मुख ब्रह्मा जी की दाहिनी ओर सावित्री एवं बायीं ओर गायत्री का मन्दिर है। पास में ही एक ओर सनकादि की मूर्तियां हैं तो एक छोटे से मन्दिर में नारद जी की मूर्ति भी है। इसके साथ ही एक मन्दिर में हाथी पर बैठे कुबेर तथा नारद की मूर्तियां हैं।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में उल्लेखित है कि अपने मानस पुत्र नारद द्वारा सृष्टिकर्म करने से इन्कार किए जाने पर ब्रह्मा ने उन्हें रोषपूर्वक शाप दे दिया कि “तुमने मेरी आज्ञा की अवहेलना की है, अतः मेरे शाप से तुम्हारा ज्ञान नष्ट हो जाएगा और तुम गन्धर्व योनि को प्राप्त करके कामिनियों के वशीभूत हो जाओगे।” तब नारद ने भी दुःखी पिता ब्रह्मा को शाप दिया “तात! आपने बिना किसी कारण के सोचे-विचारे मुझे शाप दिया है। अतः मैं भी आपको शाप देता हूं कि तीन कल्पों तक लोक में आपकी पूजा नहीं होगी और आपके मंत्र, श्लोक कवच आदि का लोप हो जाएगा।” तभी से ब्रह्मा जी की पूजा नहीं होती है। मात्र पुष्कर क्षेत्र में ही वर्ष में एक बार उनकी पूजा-अर्चना होती है। हमे विश्वास है कि अब आप यह अच्छे से समझ होंगे कि आखिर ब्रह्मा जी की पूजा क्यों नहीं होती?
पूरे भारत में केवल एक यही ब्रह्मा जी का मन्दिर है। इस मन्दिर का निर्माण ग्वालियर के महाजन गोकुल प्राक ने अजमेर में करवाया था। ब्रह्मा मंदिर की लाट लाल रंग की है तथा इसमें ब्रह्मा जी के वाहन हंस की आकृतियां हैं। चतुर्मुखी ब्रह्मा देवी गायत्री तथा सावित्री यहां मूर्तिरूप में विद्यमान हैं। हिन्दुओं के लिए पुष्कर एक पवित्र तीर्थ व महान पवित्र स्थल है।
परंतु यह इस देश का दुर्भाग्य है कि जिस अजयमेरु का प्रतीक पुष्कर का महातीर्थ होना चाहिए, उसे अजमेर शरीफ के नाम से पहचाना जाता है। इसके तीन कारण हैं – ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक। अजमेर शरीफ किसके नाम पर बनी थी? मोइनुद्दीन चिश्ती के नाम पर, जिसे कोई संत, कोई फकीर तो कोई ख्वाजा गरीब नवाज़ कहता है और जिसके नाम पर सदियों से यह दरगाह चलती आई है। आखिर मोहनुद्दीन चिश्ती वास्तव में कौन था? कहने को मोइनुद्दीन चिश्ती एक सूफी धर्मगुरु था परंतु वास्तव में उसके उद्देश्य कुछ और ही थे। मोइनुद्दीन चिश्ती और उसके जायरीन यानी अनुयायी वास्तव में अजयमेरु में ‘दीक्षा’/इबादत के नाम पर जासूसी करते थे और उनकी कृपा से ही तुर्की आक्रांताओं को काफी आवश्यक जानकारी भी मिली थी। उसने ही सुल्तान मोहम्मद गोरी को भारत पर पुनः आक्रमण करने के लिए उत्साहित किया, जो गुजरात में पटखनी खाने के पश्चात लगभग हतोत्साहित चुका था। परंतु इस राजद्रोही का हम गुणगान भी करते हैं और इसके कब्र पर हर वर्ष चादर भी चढ़ाई जाती है।
हालांकि, ऐसा युगों युगों से नहीं था। यह बीच में कुछ समय के लिए बंद भी हुआ था परंतु पुनः प्रारंभ भी हुआ। वो कैसे? सांस्कृतिक जड़ें यहीं से प्रारंभ होती हैं, जिसमें बॉलीवुड की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। आज जो बॉलीवुड मुगलों के दिन रात गुणगान करता है, जिस मुगल साम्राज्य की जय किये बिना उनका भोजन नहीं पचता, उसी मुगल साम्राज्य ने लगभग खंडहर पड़ चुके मोइनुद्दीन चिश्ती के मज़ार का पुनरुउद्धार कराया। असल में अजमेर पर तुर्की सल्तनत ने कब्जा अवश्य जमाया परंतु जब महाराणा हम्मीर के नेतृत्व में समूचे राजपूताना ने सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक को सिंगौली के नेतृत्व में पराजित किया तो रिहाई के शर्तानुसार समूचे राजपूताना को स्वतंत्र कराना पड़ा और अजयमेरु को उसका खोया गौरव पुनः प्राप्त हुआ। मुगलों के आगमन तक किसी ने मोइनुद्दीन चिश्ती की मज़ार को पानी तक नहीं पूछा था परंतु मुगलों के आते ही उसे संरक्षित किया गया और वहां ‘चादर चढ़ाने की प्रथा’ भी प्रारंभ हुई।
यहीं से एक ऐसी कुरीति प्रारंभ हुई जिसमें सभी ने अपनी रोटियां सेंकी, चाहे वो राजनेता हो या फिर अभिनेता। तुष्टीकरण की राजनीति के लिए अजमेर शरीफ का जो उपयोग हुआ और उसे बॉलीवुड ने जिस प्रकार से बढ़ावा दिया, उससे अजमेर शरीफ की ‘चादर’, पुष्कर के महातीर्थ से अधिक महत्वपूर्ण हो गई और यही सनातन संस्कृति की पराजय भी है, जो इस भ्रम के चक्रव्यूह को भेदने में असफल रही।
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