“बोल बम!”
“चल रे कावड़िया!”
“हर हर महादेव!”
श्रावण मास की पावन बेला आते ही ऐसी बोलियों से वातावरण गुंजायमान हो जाता है। अब कांवड़ यात्रा होती ही इतनी अनोखी है। श्रद्धालु भोलेनाथ के रुद्राभिषेक हेतु नंगे पैर अपने घर से विभिन्न तीर्थ स्थलों तक गेरुआ वस्त्र धारण किए महादेव का नाम अधरों पर धारण किए अनवरत चलते रहते हैं। परंतु आखिर क्या अनोखा है इस कांवड़ यात्रा में? ऐसी क्या बात है कि कोई भी व्यक्ति जब कांवड़ यात्रा का संकल्प उठा लेता है तो उसे पूरा किए बिना न रुकता है और न थकता है।
टीएफआई प्रीमियम में आपका स्वागत है। आइए प्रकाश डालते हैं उस कांवड़ यात्रा पर जिसकी चर्चा देवघर के बाबा बैद्यनाथ से लेकर केदारनाथ तक व्याप्त है और जिसके लिए हर वर्ष श्रावण मास में करोड़ों की संख्या में सनातनी अनुयायी भगवा चोला ओढ़ अपने आराध्य भगवान शिव को गंगाजल अर्पित करने निकल पड़ते हैं। कांवड़ यात्रा धार्मिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से काफी महत्वपूर्ण मानी जाती है। श्रावण की चतुर्दशी के दिन गंगाजल से अपने निवास के आसपास शिव मंदिरों में भगवान शिव का अभिषेक किया जाता है। यात्रा शुरू करने से पहले भक्त बांस की लकड़ी पर दोनों ओर टिकी हुई टोकरियों के साथ किसी पवित्र स्थान पर पहुंचते हैं। इन्हीं टोकरियों में गंगाजल लेकर लौटते हैं। इस कांवड़ को यात्रा के दौरान अपने कंधे पर रखकर यात्रा करते हैं, इस यात्रा को कांवड़ यात्रा और श्रद्धालुओं को कांवडिया कहा जाता है।
कहने को तो ये धार्मिक आयोजन भर है लेकिन इसके सामाजिक सरोकार भी हैं। कांवड के माध्यम से जल की यात्रा का यह पर्व सृष्टि रूपी शिव की आराधना के लिए है। पानी आम आदमी के साथ साथ पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, धरती में निवास करने वाले हजारो लाखों तरह के कीडे-मकोडों और समूचे पर्यावरण के लिए बेहद आवश्यक वस्तु है। उत्तर भारत की भौगोलिक स्थिति को देखें तो यहां के मैदानी इलाकों में मानव जीवन नदियों पर ही आश्रित है। परंतु कांवड़ यात्रा प्रारंभ कैसे हुई? इसमें कोई शंका नहीं कि भगवान परशुराम महादेव के परम भक्त थे। कहा जाता है कि वो सर्वप्रथम कांवड़ लेकर बागपत जिले के निकट पुरा महादेव गए थे। उन्होंने गढ़मुक्तेश्वर से गंगा का जल लेकर भोलेनाथ का जलाभिषेक किया था। उस समय श्रावण मास चल रहा था। इसी परंपरा को निभाते हुए श्रद्धालु सावन मास में कांवड़ यात्रा निकालने लगे।
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वहीं, कुछ लोगों का मानना है कि त्रेतायुग में श्रवण कुमार ने कांवड़ यात्रा की थी। उनके अंधे माता-पिता ने हरिद्वार में गंगा स्नान करने की इच्छा जताई थी। श्रवण कुमार ने माता-पिता की इच्छा को पूरा करते हुए उन्हें कांवड़ में बैठाकर हरिद्वार में स्नान कराया। वापस लौटते समय श्रवण कुमार गंगाजल लेकर आए और उन्होंने शिवलिंग पर चढ़ाया। इसे भी कांवड़ यात्रा का आरंभ माना जाता है।
इसी भांति कुछ जनश्रुतियों के अनुसार, अगर प्राचीन ग्रंथों और इतिहास की मानें तो कहा जाता है कि पहला कांवड़िया रावण था। वेद कहते हैं कि कांवड़ की परंपरा समुद्र मंथन के समय ही पड़ गई और जब मंथन में विष निकला तो संसार इससे त्राहि-त्राहि करने लगा। तब भगवान शिव ने इसे अपने गले में रख लिया लेकिन इससे शिव के अंदर जिस नकारात्मक ऊर्जा ने जगह बनाई, उसे दूर करने का काम रावण ने किया। रावण ने तप करने के बाद गंगा के जल से पूरे महादेव मंदिर में भगवान शिव का अभिषेक किया जिससे शिव इस ऊर्जा से मुक्त हो गए।
आधुनिक इतिहास में अंग्रेजों ने 19वीं सदी की शुरुआत से भारत में कांवड़ यात्रा का जिक्र अपनी किताबों और लेखों में किया। कई पुराने चित्रों में भी ये दिखाया गया है लेकिन कांवड़ यात्रा 1960 के दशक तक बहुत तामझाम से नहीं होती थी। कुछ साधु और श्रृद्धालुओं के साथ धनी मारवाड़ी सेठ नंगे पैर चलकर हरिद्वार या बिहार में सुल्तानगंज तक जाते थे और वहां से गंगाजल लेकर देवघर जाते थे जिससे शिव का अभिषेक किया जाता था। 80 के दशक के बाद ये बड़े धार्मिक आयोजन में बदलने लगा और अब तो ये काफी बड़ा आयोजन हो चुका है।
कांवड़ यात्रा भी तीन प्रकार के होते हैं –
- खड़ी कांवड़
- झांकी कांवड़
- डाक कांवड़
प्रथम कांवड़ यात्रा यानी खड़ी कांवड़- इसमें भक्त कंधे पर कांवड़ लेकर पदयात्रा पर निकल पड़ते हैं। ये सबसे कठिनतम यात्रा होती है एवं इसके नियम काफी कठिन होते हैं क्योंकि इसमें कांवड़ को न तो जमीन पर रखा जाता है और न ही कहीं टांगा जाता है। यदि कांवड़ियों को भोजन करना है या आराम करना है तो वे कांवड़ को या तो स्टैंड में रखेंगे या फिर किसी अन्य कांवड़िए को पकड़ा देंगे।
द्वितीय शैली वाली यात्रा यानी झांकी कांवड़- समय के अनुसार आजकल लोग झांकी वाली कांवड़ यात्रा भी निकालने लगे हैं। इस यात्रा के दौरान कांवड़िए झांकी लगाकर चलते हैं। वे किसी ट्रक, जीप या खुली गाड़ी में शिव प्रतिमा रखकर भजन चलाते हुए कांवड़ लेकर जाते हैं। इस दौरान शिव भक्त भगवान शिव की प्रतिमा का श्रृंगार करते हैं और गानों पर थिरकते हुए कांवड़ यात्रा निकालते हैं। ये आजकल सबसे प्रचलित यात्राओं में से एक है।
तीसरा विकल्प यानी डाक कांवड़- वैसे तो यह भी झांकी कांवड़ की तरह ही होता है और इसमें भी किसी गाड़ी में भोलेनाथ की प्रतिमा को सजाकर रखा जाता है। भक्त शिव भजनों पर झूमते हुए जाते हैं लेकिन जब मंदिर से दूरी 36 घंटे या 24 घंटे की रह जाती है तो कांवड़िए कांवड़ में जल लेकर दौड़ते हैं। दौड़ते हुए कांवड़ लेकर जाना काफी मुश्किल होता है लेकिन भोले की भक्ति और कांवडियों के संकल्प आगे भला किसकी चली है।
आपके मन में यह भी सवाल होगा कि क्या कांवड़ियों के कुछ नियम परंपरा भी होते हैं? अवश्य होते हैं, जिसके बिना ये यात्रा अधूरी अथवा निष्फल मानी जाती है। अब जैसे कि शास्त्रानुसार कांवड़ियों को एक साधु की तरह रहना होता है। गंगाजल भरने से लेकर उसे शिवलिंग पर अभिषेक करने तक का सफर वे नंगे पांव करते हैं। यात्रा के दौरान किसी भी तरह के मांसाहार की मनाही होती है। इसके अलावा यात्रा के दौरान किसी को अपशब्द भी नहीं बोला जाता। साथ ही इन्हें चारपाई, बेड आदि पर बैठने की मनाही होती है। आमतौर पर परंपरा तो यही रही है। ध्यान देने वाली बात है कि बिहार, झारखंड और बंगाल या उसके करीब के लोग सुल्तानगंज जाकर गंगाजल लेते हैं और कांवड़ यात्रा करके झारखंड में देवघर के वैद्यनाथ मंदिर या फिर बंगाल के तारकनाथ मंदिर के शिवालयों में जाते हैं। कुछ लोग तो लघु कांवड़ यात्रा अब इलाहाबाद और बनारस के बीच भी करने लगे हैं।
माना तो यह जाता है कि श्रावण की चतुर्दशी के दिन किसी भी शिवालय में जल चढ़ाना फलदायक है लेकिन आमतौर पर कांवड़िए मेरठ के औघड़नाथ, पुरा महादेव, वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर, झारखंड के वैद्यनाथ मंदिर और बंगाल के तारकनाथ मंदिर में पहुंचना ज्यादा पसंद करते हैं। कुछ अपने गृहनगर या निवास के करीब के शिवालयों में भी जाते हैं।
आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2010 और इसके पश्चात प्रतिवर्ष लगभग 1.2 करोड़ कांवड़िए पवित्र गंगाजल लेने हरिद्वार आते हैं और फिर इसे अपने सुविधानुसार शिवालयों में लेकर जाते हैं। वहां इस जल से भगवान शिव का अभिषेक करते हैं। आमतौर पर कांवड़िए उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड से अब हरिद्वार पहुंचने लगे हैं। कांवड़ यात्रा कहने को कुछ ‘सेक्युलर’ बुद्धिजीवियों को भारत की ‘गंगा जमुनी तहज़ीब’ पर हमला प्रतीत होती है परंतु वास्तव में यह एक ऐसी यात्रा है, जो न केवल अनोखी है अपितु इससे यदि लोग जुड़े और समझें तो यह संस्कृति के साथ-साथ शारीरिक शिक्षा का एक उच्चतम स्त्रोत भी हो सकता है।
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