यूपीए2 कार्यकाल में भारत को अल्पसंख्यक मंत्रालय के रूप में एक नया मंत्रालय वर्ष 2006 में मिला था। यूं तो स्वतंत्रता और संविधान निर्माण के बाद ऐसे मंत्रालय के गठन की कोई आवश्यकता तब महसूस नहीं हुई थी पर यूपीए सरकार में यह कारनामा भी हो गया था।
हालिया घटनाक्रम की बात करें तो निवर्तमान केंद्रीय अल्पसंख्यक मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी का राज्यसभा सांसद के रूप में कार्यकाल समाप्त हो गया साथ ही उन्होंने अपने मंत्री पद से भी इस्तीफा दे दिया था। ऐसे में नये अल्पसंख्यक मंत्री की खोज स्मृति ज़ुबिन ईरानी के नाम पर समाप्त हुई और उन्हें इस मंत्रालय की बागडोर सौंप दी गयी। इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे स्मृति ईरानी को केंद्रीय अल्पसंख्यक मंत्री का पद देना मोदी सरकार का एक मास्टरस्ट्रोक है।
और पढ़ें- कांग्रेस से एक और गढ़ छीनने की राह पर स्मृति ईरानी!
अपने हितों को साधने के लिए यूपीए ने लिया निर्णय
यूं तो भारतीय राजनीति में अपने स्वार्थों और अपने हितों को साधने के लिए बहुत कुछ होता रहा है। ऐसा ही कुछ यूपीए ने 2006 में अल्पसंख्यक मंत्रालय का गठन कर किया था। जब 1950 में संविधान निर्माण के बाद से ही बिना अल्पसंख्यक मंत्रालय के देश चल रहा था तो कोई औचित्य न होते हुए भी वोटबैंक की आड़ में कांग्रेस ने इस मंत्रालय का गठन कर दिया। निश्चित रूप से जब देश सेक्युलर है तो उसको वही रहने देने में क्या दिक्कत है? अल्पसंख्यक मंत्रालय की आवश्यकता केवल उस देश को होती है जो एक धर्म के प्रभाव में चलता हो जैसे इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान। भारत यदि सेक्युलर राष्ट्र है तो उसमें एक ही धर्म विशेष के हितों की रक्षा नहीं बल्कि सबके धर्म की समान रूप से रक्षा करने का अधिकार संविधान का आर्टिकल 21 देता है। ऐसे में ये तो सबसे बड़ी बात है कि अल्पसंख्यक मंत्रालय की इस देश को कोई आवश्यकता है नहीं।
स्मृति ज़ुबिन ईरानी को नया अल्पसंखयक मंत्री बना इस रीत को भी ध्वस्त कर दिया गया है जो 2006 से चली आ रही थी। अब तक कोई भी गैर मुस्लिम देश का अल्पसंख्यक मंत्री नहीं बना था। इस निर्णय से ये सिद्ध होता है कि “अल्पसंखयक” का टैग लगाए घूम रहे समुदाय विशेष को अब उससे वंचित करने का समय आ गया है और सरकार ने इस परिप्रेक्ष्य में कदम भी बढ़ा लिए हैं।
अब यदि मंत्रालय बन भी गया तो 21 करोड़ की आबादी वाला समुदाय कैसे अल्संख्यक हो सकता है इसका विश्लेषण अवश्य होना चाहिए। भारत में जैन, पारसी, सिख, और बौद्ध जैसे समुदाय भी हैं जो वास्तव में अल्पसंख्यक हैं। उन्हें इस मंत्रालय के तहत वो प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए था जिसकी वास्तव में उन्हें आवश्यकता थी। स्मृति ईरानी को कार्यभार सौंप पीएम मोदी ने मास्टरस्ट्रोक ऐसे चला है क्योंकि वो पारसी होने के साथ-साथ वैवाहिक जीवन से पूर्व पंजाबी थीं। इसके बाद संघ से बचपन से जुड़ाव ने स्मृति को भाजपा का फायर ब्रांड नेता बना दिया।
और पढ़ें- स्मृति ईरानी : अभिनय से राजनीति तक एक अनोखा सफर
एक ही समुदाय विशेष को मिला अल्पसंख्यक वाला टैग
भारत में जिस प्रभाव के साथ एक ही समुदाय विशेष को अल्पसंख्यक-अल्पसंख्यक का टैग दिया गया वो शायद यह भूल गए कि 21 करोड़ की आबादी वाले मुस्लिम समुदाय के अलावा देश में वास्तव में कई अन्य समुदाय भी अल्पसंख्यक हो सकता है। जिस पारसी समुदाय से स्मृति आती हैं, वर्ष 2011 के आंकड़ों के अनुसार देश में 57,264 पारसी समुदाय के लोग हैं। सिख समुदाय की बात करें तो वर्ष 2011 के आंकड़ों के अनुसार कुल 20,833,116 सिख समुदाय के लोग भारत में हैं। इसके अलावा बौद्ध धर्म के अनुयायियों की बात करें तो 2011 के आंकड़ों के अनुसार भारत में कुल 84 लाख ही बौद्ध धर्म को मानने वाले लोग हैं। अब तक इनमें से किसी को भी अल्पसंख्यक मंत्री नहीं बनाया गया।
स्मृति ईरानी के आने के बाद देश के अल्पसंखयक मंत्रालय को मिसाल मिली है कि कैसे तथाकथित अल्पसंख्यकों के अतिरिक्त भी अल्पसंख्यक मंत्री का दायित्व किसी वास्तविक अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति को मिल सकता है। इस निर्णय को नींव के रूप में देखा जा सकता है कि कैसे देश के छिटके हुए वास्तविक अल्पसंख्यक समुदाय को अब प्रतिनिधित्व मिलने और निर्णायक भूमिका में रहने का अवसर मिल सकता है।
और पढ़ें- ‘सिद्धार्थ और बुल्ली’ जैसे मुद्दे पर बेबाक बोलने वाली स्मृति ईरानी 2014 वाले ‘मूड’ में वापस आ गई हैं
TFI का समर्थन करें:
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ‘राइट’ विचारधारा को मजबूती देने के लिए TFI-STORE.COM से बेहतरीन गुणवत्ता के वस्त्र क्रय कर हमारा समर्थन करें।