ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वेक्षण जितनी तेजी से आगे बढ़ रहा है उतनी ही तेजी से 31 साल पुराना एक क़ानून चर्चा में आ रहा है। यह एक ऐसा क़ानून है जो कहता है कि अगर ये सिद्ध भी होता है कि मौजूदा धार्मिक स्थल को इतिहास में किसी दूसरे धार्मिक स्थल को तोड़कर बनाया गया था, तो भी उसके अभी के वर्तमान स्वरूप को बदला नहीं जा सकता। इस अधिनियम का नाम है ‘प्लेस ऑफ़ वर्शिप एक्ट’।
“Places of Worship Act” 1991 सर्वोच्च न्यायालय का वह फैसला था। जिसके अनुसार 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता। यदि कोई इस एक्ट का उल्लंघन करने का प्रयास करता है तो उसे जुर्माना और तीन साल तक की जेल भी हो सकती है। आसान शब्दों में, यदि 1947 से पहले किसी मंदिर पर कब्ज़ा कर वहां जबरन नमाज़ अदा की गयी है तो उस मंदिर पर से हिन्दुओं का अधिकार हटकर मुस्लिमों का अधिकार माना जायेगा। वह मंदिर न होकर बल्कि मस्जिद हो जायेगा। ‘प्लेस ऑफ़ वर्शिप एक्ट’ किसी भी धर्म के लोगों को अपना पूजास्थल वापस माँगने से रोकता है।
जिस तरह से ज्ञानवापी मस्जिद ज्ञानव्यापी मंदिर हुआ करती थी, लेकिन फिर उस पर जबरन अधिकार कर नमाज़ अदा की गई और मस्जिद के रूप में उसे इस्तेमाल किया जाने लगा। ऐसे में यह जानते हुए भी कि यह मस्जिद कभी मंदिर हुआ करती थी। इसे पुनः प्राप्त करने में 1991 का यह अधिनियम एक बड़ा रोड़ा बन रहा है। इसी पर आपत्ति जताते हुए बीते कुछ दिनों में कई लोगों ने याचिकाएं दायर की हैं। जो इस अधिनियम में संशोधन की मांग करती हैं।
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छह नई याचिकाएं
अब 1991 के अधिनियम को चुनौती देते हुए छह नई याचिकाएं दायर की गई है। आने वाले दिनों में इन प्रावधानों की वैधता को चुनौती देती इन छह याचिकाओं पर सुनवाई शुरू होगी। याचिकाओं को न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की पीठ के समक्ष सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया गया है। शीर्ष अदालत सेवानिवृत्त सेना अधिकारी अनिल काबोत्रा, अधिवक्ता चंद्रशेखर और रुद्र विक्रम सिंह, देवकीनंदन ठाकुर जी, स्वामी जितेंद्रानंद सरस्वती और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व सांसद चिंतामणि मालवीय द्वारा दायर याचिकाओं की जांच करेगी।
इन दायर याचिकाओं में से एक याचिका ने 1991 के अधिनियम पर ‘आक्रमणकारियों की अवैध और बर्बर कार्रवाई को मान्य करने’ का आरोप लगाया है। सुप्रीम कोर्ट में अनिल काबोत्रा द्वारा दायर याचिका में कहा गया है कि “मस्जिदों का निर्माण ‘कानूनी रूप से स्वामित्व’ और ‘नयी भूमि’ पर किया जाना चाहिए। केवल मंदिर की छत, दीवार, खंभों, नींव और यहां तक कि नमाज अदा करने के बाद भी मंदिर का धार्मिक चरित्र नहीं बदलता है। देवकीनंदन ठाकुर की एक याचिका ‘ऐतिहासिक गलत’ की समान धारणाओं को प्रतिध्वनित करती है।
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पहले भी उठाई गयी है आवाज़
मार्च 2021 में, शीर्ष अदालत ने पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991 के विभिन्न प्रावधानों के खिलाफ अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा दायर एक याचिका पर केंद्रीय गृह, कानून और संस्कृति मंत्रालयों को औपचारिक नोटिस जारी किया था। श्री उपाध्याय ने तर्क दिया था कि “कट-ऑफ तिथि (15 अगस्त, 1947 ) मनमाना और तर्कहीन थी।“ उन्होंने कहा कि “लगाए गए अधिनियम को, केंद्र ने मनमाने ढंग से एक तर्कहीन पूर्वव्यापी कट-ऑफ तिथि तय करके बनाया है। यह अधिनियम अवैध रूप से हिंदुओं, जैनियों, बौद्धों और सिखों को अपने पूजा स्थलों पर पुनः दावा करने के लिए अदालतों में जाने से रोकता है, जो कट्टरपंथी बर्बर आक्रमणकारियों द्वारा आक्रमण और अतिक्रमण का शिकार हुए थे।”
उन्होंने 1991 के अधिनियम की धारा 2, 3 और 4 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए कहा कि “वे धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं।” उनका कहना था, “धारा 2, 3, 4 न केवल प्रार्थना करने, अपने धर्म का अभ्यास और प्रचार करने का अधिकार (अनुच्छेद 25), पूजा-तीर्थों के प्रशासन के प्रबंधन के अधिकार (अनुच्छेद 26), संस्कृति के संरक्षण के अधिकार (अनुच्छेद 29) के विपरीत है, बल्कि ऐतिहासिक स्थानों की रक्षा करने के राज्य के कर्तव्य के विपरीत भी है। (अनुच्छेद 49) और धार्मिक सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करना (अनुच्छेद 51ए) के भी खिलाफ है।” अब सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिनियम में संशोधन की ओर पहला कदम बढ़ाते हुए इस पर चर्चा सुनना स्वीकारा है।
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