पिछले कुछ समय में जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग जैसे पर्यावयरणीय मुद्दों के प्रति लोगों की जागरुकता बढ़ी है। वर्तमान में जिस तरह से विश्व में ईंधन का उपयोग बढ़ रहा है, यह हमारे भविष्य को बड़े खतरे में भी डाल रहा है। इन कारणों से ऊर्जा का नया वैकल्पिक स्त्रोत हरित ऊर्जा आज के समय की आवश्कता बनती जा रही है। सभी देशों द्वारा हरित ऊर्जा के विकल्प को अपनाने पर तेजी से काम भी किया जा रहा है। परंतु पश्चिमी देश जो पर्यावरण पर सबसे ज्यादा चिंता करने का दिखावा करते है, वो अपने घटिया रवैये और दोगला कृत्यों से बाज नहीं आ रहे हैं। पश्चिमी देश पर्यावरण के मुद्दे पर विश्व को केवल ज्ञान ही देते रहते हैं और स्वयं ही वाहवाही करते हुए स्वयं की पीठ भी थपथपाते हैं लेकिन उनकी तमाम योजनाएं, नीतियां सिर्फ और सिर्फ कागजों तक ही सीमित नजर आती है। जमीनी स्तर पर इसका कोई खास असर देखने को नहीं मिलता है।
पश्चिमी देशों की बातें सिर्फ और सिर्फ दिखावा है
दरअसल, जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों को कम करने के लिए वर्ष 2015 में 196 देश साथ आए थे और इसी दौरान पेरिस समझौता अस्तित्व में आया था। इस समझौते का उद्देश्य ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने वाली गैसो के उत्सर्जन को कम करना और इसके साथ ही इसके लिए विकसित देश, अल्प विकसित और विकासशील देशों को वित्तीय मदद उपलब्ध कराना है। इस समझौते का मकसद ग्लोब का तापमान औद्योगिक क्रांति से पहले के तापमान से 2 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा न बढ़ने देना था।
परंतु यह पश्चिमी देशों का दोगलापन ही है जो पर्यावरण पर ज्ञान तो खूब बांटते फिरते हैं लेकिन वे इस पेरिस समझौते को लेकर कुछ खास काम करते नजर नहीं आए। अमेरिका ने तो इस समझौते से हाथ ही पीछे खींच लिए और इससे स्वयं को अलग कर लिया। हालांकि, बाइडन के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका दोबारा इस समझौते का हिस्सा बना। फ्रांस, जर्मनी जैसे अन्य देशों ने शुरुआत में तो इसे लेकर कदम उठाए परंतु फिर बाद में यह भी अपने वादों से मुकरते चले गए। मौजूदा समय में रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण उत्पन्न हुए ऊर्जा संकट से निपटने के लिए फ्रांस कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्र को दोबारा शुरू करने पर विचार कर रहा है। वहीं, तापमान में कमी के लक्ष्य से अभी ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा और यूरोपीय यूनियन काफी दूर हैं।
इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि हरित ऊर्जा के मुद्दे पर पश्चिमी देशों की बातें महज दिखावा है। दूसरी ओर देखा जाए तो भारत वो देश है जो वास्तव में इस दिशा में तेजी से काम कर रहा है। भारत दुनिया के उन गिने-चुने देशों में शुमार है जो जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए लगातार अपनी ओर से अधिक प्रयास कर रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमेशा से ही पर्यावरण की रक्षा के लिए विश्व को जागरूक करते रहे हैं और यह सब केवल बातों तक ही सीमित नहीं है बल्कि मोदी सरकार इस दिशा में तेजी से कार्य भी करती नजर आ रही है।
अपने लक्ष्यों को पूरा करने की ओर कदम बढ़ा चुका है भारत
बताते चलें कि भारत ने वर्ष 2005 के स्तर की तुलना में 2030 तक उत्सर्जन को 33-35 फीसदी तक कम करने का लक्ष्य रखा है। भारत इस लक्ष्य में 22 फीसदी से अधिक की कटौती कर चुका है। साथ ही भारत का लक्ष्य 2030 तक अतिरिक्त वनों के जरिए 2.5-3.0 अरब टन कार्बन डाई ऑक्साइड के बराबर कार्बन में कमी लाना भी है। अपने इन अपने लक्ष्यों को पूरा करने की दिशा में देश तेजी से आगे बढ़ रहा है।
देश में सौर ऊर्जा उपकरणों और इलेक्ट्रिक वाहनों के प्रयोग को बढ़ाया जा रहा है। सरकार द्वारा देश को अगले पांच वर्षों में पेट्रोल डीज़ल से निजात दिलाने का लक्ष्य रखा गया है। हाल ही में केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने अपने एक बयान के जरिए यह स्पष्ट भी कर दिया कि देश में पेट्रोल को खत्म कर दिया जाएगा और इस पर प्रतिबंध लग जाएगा। उन्होंने कहा, “मैं पूरे विश्वास के साथ कहता हूं कि 5 वर्ष बाद देश में पेट्रोल की आवश्यकता समाप्त हो जाएगी। वो दिन अब दूर नहीं जब आपकी कार और स्कूटर या तो ग्रीन हाइड्रोजन पर चलेंगे या फिर एथोनल फ्लेक्स फ्यूल, सीएनजी या एलएनजी पर चलेंगे।”
इसके अलावा भारतीय रेलवे ने 2030 तक प्रदूषण मुक्त संचालन करने वाला दुनिया का पहला रेल नेटवर्क बनने का लक्ष्य तय किया है। भारत जिस तरह से कदम उठा रहा है वो जल्द ही पेरिस समझौते से जुड़े लक्ष्य को हासिल कर लेगा। जबकि दूसरी ओर स्वयं को विकसित बताने वाले पश्चिमी देश केवल इसपर बड़ी बड़ी बातें ही करते दिखाई देते हैं। दुनिया देख रही है कि उनके द्वारा जलवायु परिवर्तन को लेकर कोई सख्त कदम नहीं उठाए जा रहे हैं।
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