एक प्रसिद्ध कहावत है कि इतिहास विजेताओं द्वारा लिखा जाता है लेकिन यही बात दोहराने वाले संभवतः यह भूल चुके हैं कि भविष्य को सुगम भी विजेता ही बनाते हैं। यह बात केवल कुछ खास व्यवहारिक लोग ही जानते हैं और एक विशेष बात यह है कि वर्तमान में मोदी सरकार इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ है। वहीं, जो देश अतीत में मिली अपनी विजय के कारण अभी भी घमंड में हैं उनका यह घमंड अब चूर हो रहा है क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बनी वैश्विक व्यवस्था और अब 21वीं सदी में उनकी प्रासंगिकता खत्म हो रही है जिसमें भारत के उदय की एक अहम भूमिका है।
संकटों का सामना करने में सक्षम
केंद्रीय आवास और शहरी मामलों एवं पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने हाल ही में भारत की विदेश नीति, ईंधन की खपत के बदलते पैटर्न के साथ-साथ भारत के द्विपक्षीय और साथ ही बहुपक्षीय संबंधों को बदलने वाले हर चीज पर अपने दृष्टिकोण को समझाया है। जब उनसे पूछा गया कि अमेरिका विभिन्न संकटों को हल करने के लिए कदम उठाने को तैयार नहीं है तो उन्होंने सूक्ष्मता से संकेत दिया कि मुद्दे आपस में जुड़े हुए हैं और अमेरिका उन्हें हल करने की स्थिति में नहीं है। उन्होंने अपने तर्क को पुष्ट करने के लिए 46 वर्षों में उच्चतम मुद्रास्फीति दर के साथ अमेरिका के संघर्ष का हवाला दिया है जिसके कारण अमेरिका अपने सबसे बुरे आर्थिक स्थिति से गुजर रहा है।
हरदीप सिंह पुरी ने कहा कि यूरोप भी अपने आप में व्यस्त है। उन्होंने विश्व व्यवस्था को बदलने की आवश्यकता का जिक्र करते हुए कहा, “वैश्विक व्यवस्था जिसे द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्थापित किया गया था, मुझे लगता है कि अब मूल्यांकन का समय है कि क्या दुनिया आज भी उसी वैश्विक व्यवस्था से चल सकती है।” हरदीप सिंह पुरी विदेश मामलों के एक कुशल अधिकारी रह चुके हैं लेकिन उनके इस बयान ने खलबली मचा दी है। हालांकि, अगर मोदी सरकार के वैश्विक रोड मैप को देखें तो पूरी की पूरी बात स्पष्ट होती दिखती है।
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आर्थिक मोर्चे पर बुनियादी मजबूती
भारत अब नीतिगत पक्षाघात की चपेट में आने वाली अर्थव्यवस्था नहीं है। समाजवादी युग के नौकरशाह अब प्रासंगिकता नहीं रखते हैं। भारत में व्यवसाय स्थापित करने की आधिकारिक प्रक्रिया को सुव्यवस्थित किया गया है। ईज ऑफ डूइंग बिजनेस रैंकिंग में भारत की छलांग इसका एक प्रमुख उदाहरण है। भारतमाला, सागरमाला और राष्ट्रीय बुनियादी ढांचा पाइपलाइन (NIP) जैसी बुनियादी परियोजनाओं के माध्यम से कच्चे माल के हस्तांतरण और अंतिम उत्पाद के लिए कनेक्टिविटी की समस्या अब हल हो गई है।
इसने निवेशकों को भारत में अपना पैसा डालने के लिए प्रेरित किया है। विशेष रूप से महामारी के बाद की विश्व व्यवस्था में भारत, चीन से प्रतिस्थापन के बाद एक बेहतरीन विकल्प के तौर पर उभर रहा है। युवा कार्यबल और उन्हें कुशल बनाने की दिशा में सरकार का अभियान एक प्रमुख कारक है। आत्मनिभर भारत, मेक-इन-इंडिया, स्टैंड अप इंडिया और स्टार्ट-अप इंडिया जैसी पहलों ने सुनिश्चित किया है कि स्थानीय कंपनियां इन परिवर्तनों में सबसे आगे हैं। देसी यूनिकॉर्न भारत में बड़ा चर्चित शब्द है और इन सभी से देश की आर्थिक स्थिति मजबूत हो रही है।
कूटनीतिक मोर्चे पर राष्ट्रीय हितों की कटिबद्धता
ध्यान देने वाली बात है कि भारत जमीनी स्तर पर या यूं कहें कि स्वयं को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में द्रुत गति से आगे बढ़ रहा है तो वही दूसरी ओर वैश्विक कूटनीति में भी भारत की स्थितियां मजबूत हो रही हैं। भारत अब सोवियत या अमेरिकी ब्लॉक को संतुलित करने को तैयार नहीं है। वर्तमान में वैश्विक व्यवस्था से संबंधित मुद्दों पर भारत का अपना स्टैंड है।
रूस-यूक्रेन संकट इसका एक प्रमुख उदाहरण है। भारत ने पक्ष लेने से इनकार कर दिया। इसके अलावा जब वैश्विक प्रतिबंधों ने रूस को मारा तो भारत ने स्थिति का ‘व्यापार लाभ’ उठाया और विभिन्न नवाचारों के माध्यम से देश सस्ते रूसी तेल का लाभ उठा रहा है। इसी बीच भारत ने गैर-अब्राहम धर्मों के खिलाफ खुले भेदभावपूर्ण प्रस्ताव के लिए संयुक्त राष्ट्र की निंदा भी की। संयुक्त राष्ट्र के आधिपत्य को समाप्त करने के लिए अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन, G77 और BRICS जैसे अन्य बहुपक्षीय मंचों को भी प्रोत्साहित किया जा रहा है।
अब आप यह सोच रहे हैं कि आखिर ये सब कैसे? तो आपको बता दें कि ये सभी घटनाक्रम अचानक नहीं हुए। भारत अपने हितों की रक्षा के लिए विशेष इंतजाम कर रहा है जो पहले दूसरे देशों पर निर्भर थे। एक तो हम डिफेंस मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनते जा रहे हैं। इसी तरह भारत ओपेक पर अपनी निर्भरता कम करने और अंततः इसे खत्म करने के लिए तेल की खोज को युद्ध स्तर पर ले जा रहा है। हरित ऊर्जा के लिए जोर एक और कारण है जिससे भारत गर्व से अपने दम पर खड़ा हो सकता है। 21वीं सदी एशिया की होने जा रही थी और चीन एशिया की भलाई के लिए भारत से हाथ मिला सकता था लेकिन विस्तारवाद और अपनी अकड़ के चलते चीन खोखला होता जा रहा है और उसका सीधा लाभ भारत को ही मिलता दिख रहा है।
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