बिहार में बहार नहीं बिहार में सत्ता बनाने में भी भ्रष्टाचार है और नीतीश कुमार जैसे नेता इस बात को चरितार्थ करते हैं। आज बिहार में पुनः सत्ता परिवर्तन होने को है और इसकी विवशता पुनः उन्हीं नीतीश कुमार की देन है जो वर्ष 2015 में भी ऐसा ही कर गए थे। लोभ की राजनीति करते-करते नीतीश ने न केवल एक “सुशासन बाबू” वाली छवि को “कुशासन बाबू” वाली छवि में परिवर्तित कर लिया बल्कि अपनी लोकप्रियता को भी अंधकार में डाल लिया। आलम यह है कि बिहार विधानसभा में अंकिय गणित के मुताबिक जेडीयू तीसरे नंबर की पार्टी है पर महत्वकांक्षाएं पहले नंबर की पार्टी वाली हैं। एनडीए गठबंधन से अलग होने के साथ ही नीतीश कुमार ने सरकार बनाने के लिए आरजेडी से गठबंधन कर लिया है। नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बनने वाले हैं तो वहीं तेजस्वी यादव उपमुख्यमंत्री होंगे। अब चूंकि नीतीश कुमार एनडीए से नाता तोड़ आरजेडी+कांग्रेस के होने जा रहे हैं तो इनके बीच क्या सौदा हुआ यह जानना आवश्यक है।
नीतीश कुमार के लिए राजनीतिक महत्वकांक्षा सबसे ऊपर है
दरअसल, नीतीश कुमार का भाजपा से नाता आज टूटने के साथ ही नीतीश कुमार तेजस्वी यादव के साथ दूसरी बार काम कर पाएंगे। 2015 से 2017 तक, नीतीश की पार्टी और आरजेडी, कांग्रेस, सरकार के तीन घटक थे। तब नीतीश कुमार ने इस गठबंधन को लात मार पुनः भाजपा के साथ जुड़ गए। यह सब उसी राजनीतिक महत्वकांक्षा की वजह से हुआ जो नीतीश कुमार जन्मजन्मांतर से पाले बैठे हुए थे। बस समय एक बार पुनः अपने आपको दोहरा रहा है और नीतीश कुमार अपने राजनीतिक जीवन में लगे “पल्टूराम” के टैग को जीवंत कर रहे हैं।
अब उस सौदे या डील को समझ लें जो नीतीश की जेडीयू और आरजेडी+कांग्रेस के बीच हुई है ताकि एनडीए गठबंधन की सरकार गिरकर उनकी सरकार बन जाए। पहली बात तो यह कि नीतीश कुमार एक बार पुनः सीएम बने रहेंगे और अगले चुनाव अर्थात 2025 तक उन्हीं के हाथ में कमान रहेगी। यहां एक अहम पेंच यह है कि सीएम भले ही नीतीश बाबू बनेंगे पर सभी अहम मंत्रालय लालू के होनहार पूत तेजस्वी और आरजेडी+कांग्रेस के पास रहेंगे। यह तो हुआ नीतीश का पहला सरेंडर।
यहां संभावना यह भी है कि आगामी 2024 के लोकसभा चुनाव में नीतीश उतरेंगे और दिल्ली की राजनीति की ओर कदम बढ़ाकर सांसद बन अपनी राष्ट्रीय राजनीति की महत्वकांक्षा को भुनाएंगे। इसके बाद 2025 में ढोल-मंजीरे के साथ नीतीश के स्थान पर लालू प्रसाद के लाल तेजस्वी यादव को लॉन्चिंग मिल जाएगी। यह भी जान लिया जाए की नीतीश कुमार का अपना कोई वोट बैंक नहीं है। जिस कुर्मी जाति से वो स्वयं आते हैं उसकी राज्यभर में कुल 2 प्रतिशत की आबादी है ऐसे में न नीतीश पर कल कोई निर्धारित वोट बैंक था, न आज है और न आगे कभी रहने वाला है।
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नीतीश कुमार के खिलाफ कौन सा फैक्टर है?
जो फैक्टर नीतीश कुमार के खिलाफ जा रहा है वो स्वयं उनके विधायकों का असंतोष और भाजपा के प्रति झुकाव है। नीतीश कुमार की पार्टी के विधायक अब भी भाजपा के पक्ष में जा सकते हैं ऐसा उनको भय रहता है। ऐसे में बमुश्किल तीसरे नंबर की पार्टी बने रहना भी नीतीश कुमार को अभाव का एहसास करा रहा है। यह सब नीतीश कुमार की घटती लोकप्रियता के कारण ही हुआ, यदि नीतीश कुमार वास्तव में “सुशासन बाबू” वाली छवि के साथ चलते रहते तो न ही उनकी लोकप्रियता में कमी आती और न ही “पल्टूराम” का टैग माथे लगता।
यूं तो नीतीश स्वयं ही बीते विधानसभा चुनाव में रैलियों में चिंघाड़-चिंघाड़ कर यह कह रहे थे कि यह उनका अंतिम चुनाव है पर यह सर्वविदित है कि कोई भी नेता आराम से बैठने या सन्यास की बात ऐसे ही नहीं कहता। राज्यस्तर पर ख़त्म हो चुकी साख के बाद भी नीतीश कुमार आज भी राष्ट्रीय राजनीति में स्वयं को स्थापित करने के सपनों को पानी देते रहते हैं। यह सन्यास और बैठने की बात के पीछे आगामी भविष्य में किसी भी तरह राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति बनने के स्वप्न को नीतीश आज भी हवा देते रहते हैं। नीतीश पल्टूराम बनकर राष्ट्रीय राजनीति का चेहरा बनना चाहते हैं जिस पर लोग सिर्फ हंस सकते हैं, संजीदगी से लेना तो बहुत दूर की बात है।
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तो कुछ इस तरह नीतीश बाबू उर्फ़ पल्टूराम अपनी सियासी बिसात बिछाने के लिए पुनः आरजेडी के शरणागत हो गए और पुनः औने-पौने दाम में अपना ज़मीर बेच दिया।
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