भारत और नेपाल के बीच सैन्य साझेदारी सदा से एक गलत प्रक्रिया रही है

भारत को तत्काल प्रभाव से अब इस पर ध्यान देना चाहिए!

Gorkha Regiment

Source- TFI

यह सबसे बड़ी नासमझी होती है कि आप अपने घर की सुरक्षा उसके हाथ में दे दो जो स्वयं आपके दुश्मनों के दयाभाव पर आश्रित हो। भारत ने आज़ादी का अमृत महोत्सव तो मना लिया पर क्या सच में भारत उस आज़ादी को बनाए रखने के लिए संकल्पित है? यदि हां तो भारत को तत्काल प्रभाव से सात दशक पहले किए गए अनुबंध को ख़ारिज करना चाहिए और अपने देश की सुरक्षा के लिए अन्य देशों से सैन्यकर्मी लाने बंद करने चाहिए। आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि आधुनिक क्षेत्रीय और राजनीतिक राज्य की अवधारणा में जहां राष्ट्र की सुरक्षा और संप्रभुता को लगातार खतरा है, क्या किसी विदेशी देश के सैनिकों को स्वीकार करना सही है?

1947 में स्वतंत्रता के बाद ब्रिटेन-भारत-नेपाल त्रिपक्षीय समझौते के अनुसार, ब्रिटिश भारतीय सेना की गोरखा रेजिमेंट को भारतीय सेना का हिस्सा बनाया गया था। इसके अलावा, स्वतंत्रता के बाद भारत और नेपाल के बीच शांति और मित्रता की संधि ने नेपाल के पहाड़ी जिलों से आंशिक रूप से भर्ती करके “गोरखा रेजिमेंट” को बढ़ाने की प्रक्रिया को मजबूत किया। वर्तमान में नेपाल के लगभग 32,000 गोरखा सैनिक भारतीय सेना में कार्यरत हैं और सेवानिवृत्त सभी सैनिकों को वो तमाम सुविधाएं मिल रही हैं जो एक मूल रूप से भारतीय सैनिक को दी जाती है।

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नेपाल ने पीछे खींच लिए हाथ

यह ज़रूरी नहीं है कि जो स्थिति और विवशता स्वतंत्रता उपरांत देश के सामने बनी हुई थी, जिसके कारण कई महत्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए वो आज भी प्रासंगिक हैं या वो विवशता आज भी देश के समक्ष हैं। एक समय-काल-परिस्थिति का भी खेल होता है, जहां साथी देशों से मैत्रीपूर्ण समझौते किए जाते हैं। स्वतंत्रता उपरांत जब अंग्रेजों को भारत से खदेड़कर बाहर निकाल दिया गया था, तब ब्रिटेन और भारत की सेना में गोरखाओं के अधिकारों के संबंध में भारत, नेपाल और ग्रेट ब्रिटेन के बीच 1947 में ब्रिटेन-भारत-नेपाल त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे। त्रिपक्षीय समझौते के अनुसार, दस में से छह रेजिमेंट भारतीय सेना के हिस्से के रूप में रहे, जबकि चार ब्रिटिश सेना में शामिल हो गए। तब से भारतीय सेना नियमित रूप से विशेष रिक्तियों के साथ नेपाल से गोरखाओं की भर्ती करती आई है।

अब यह गोरखाओं की बात यूं अचानक इसलिए की जाने लगी है क्योंकि हाल ही में मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक नेपाल ने ‘अग्निपथ योजना’ के तहत भारतीय सेना में गोरखाओं की भर्ती पर अस्थायी रूप से रोक लगा दी है। नेपाल के विदेश मंत्री नारायण खड़का ने नेपाल में भारत के राजदूत नवीन श्रीवास्तव को इसकी जानकारी देते हुए कहा कि अग्निपथ योजना के तहत गोरखाओं की भर्ती नेपाल, भारत और ब्रिटेन के बीच हुए 1947 वाले त्रिपक्षीय समझौते के अनुरूप नहीं है। उन्होंने आगे कहा कि राजनीतिक दलों और सभी हितधारकों के साथ व्यापक परामर्श के बाद अंतिम निर्णय लिया जाएगा।

रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत ने भर्ती प्रक्रिया के लिए सहयोग और अनुमोदन के लिए नेपाल से संपर्क किया था। नेपाल ने अग्निपथ के तहत चार साल की भर्ती पर चिंता जताते हुए कहा कि यह योजना 1947 के त्रिपक्षीय समझौते के प्रावधानों के अनुरूप नहीं है। अब अगर बात उठ ही गई है तो यह भारत के लिए विचारणीय विषय है कि क्या सच में नेपाल से अब भी गोरखाओं की भर्ती आवश्यक है? जबकि यह सबको पता है कि नेपाल हर ओर खेलना चाहता है। उसे भारत का सहयोग भी चाहिए,पाकिस्तान का साथ भी चाहिए और चीन से तो उसकी मैत्री किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में जब समय बदल गया है, कूटनीति बदल गई है तो यह भारत की सुरक्षा के लिए कितना घातक हो सकता है उसका अनुमान आज नहीं लगाया गया तो बहुत बड़ा नुकसान झेलना पड़ सकता है।

75 वर्ष पहले अलग थी स्थिति

गोरखा के इतिहास की बात करें तो उनकी लड़ाई की भावना, सेना के प्रति उनकी वफादारी और उनकी बहादुरी निर्विवाद है। लेकिन राष्ट्र की आधुनिक अवधारणा में जहां संप्रभुता को दुश्मनों से लगातार खतरा है, क्या अन्य संप्रभु देशों के लोगों को नियमित बलों में स्वीकार करना सही है? भारत की ही बात करें तो हमारे पास बहादुर लोगों की कोई कमी नहीं है जो सेना में शामिल होने के लिए दिन-रात प्रशिक्षण ले रहे हैं। 75 वर्ष पहले जब हमने त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, तब स्थिति अलग थी।

अब स्थितियां पूरी तरह से अलग है। जब हमने नेपाल के प्रति सद्भावना का संकेत दिया तो शांति और मित्रता की संधि का एक अलग अर्थ था। नेपाल एक सम्राट शासक के अधीन था और उनकी विदेश नीति और सुरक्षा वास्तव में भारत पर निर्भर थी। लेकिन अब आलम यह है कि वे चीन के साथ गठबंधन कर रहे हैं और साथ ही पाकिस्तान के साथ अच्छे संबंध बनाए रखते हैं। यहां तक कि कई भारतीय अलगाववादी ताकतें वहां से संचालित भी होती हैं।

ऐसे में समय है कि आंतरिक शक्ति को जगह दी जाए न कि देश के बाहर से सैनिकों का आवंटन किया जाए। जो नेपाल अभी अग्निवीर योजना से ही रुष्ट है, कल को उसके भेजे गए सैनिक अगर भारत की जड़ें खोदने में लग गए तो देश कहां जाएगा? किसी अन्य संप्रभु देश से सैन्य कर्मियों की भर्ती के लिए इस नीति को सदा-सर्वदा के लिए रोकना ही भारत के पक्ष में होगा। न केवल अग्निपथ योजना के तहत बल्कि नियमित भर्ती प्रक्रियाओं को भी भारत द्वारा रोक दिया जाना चाहिए और भारतीयों के लिए अवसरों को बढ़ाया जाना चाहिए।

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