कार्ल मार्क्स ने किसी जमाने में कहा था कि “धर्म जनमानस के लिए अफीम समान है।” अब पता नहीं वो कौन सा अफीम खुद चाट कर बैठे थे परंतु विश्वास मानिए, आज के वोकवाद और सेक्युलरिज़्म से कम घातक नशे तो बिल्कुल नहीं थे। कुछ ऐसे ही मानसिकता से ग्रसित थे महोदय धनपत राय श्रीवास्तव, जो “नवाब राय” के नाम से लिखते थे और जिनपर उर्दू में लिखने का भूत कुछ अधिक सवार था। पर एक दिन महोदय को ज्ञानोदय हुआ और उन्होंने इस भाषा में रचना करनी बंद कर दी। परंतु क्या यह यूं ही हुआ? नहीं, इसका कारण एक ऐसी घटना थी, जिसने धनपत राय (प्रेमचंद) का सारा उर्दू प्रेम उड़नछू कर दिया था। इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि कैसे इस्लामिस्ट बुद्धिजीवियों ने धनपत राय श्रीवास्तव के उर्दू प्रेम को एक नाटक के पीछे हवा कर दिया और कैसे इस घटना के पीछे उन्हें विवशता में ही सही परंतु हिन्दी साहित्य का पुरोधा “मुंशी प्रेमचंद” बनना पड़ा।
हाल ही में चर्चित साहित्यकार और फिल्म क्रिटिक अनंत विजय ने मुंशी प्रेमचंद पर अपने विचार साझा करते हुए दैनिक जागरण में एक संपादकीय लिखा, जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया कि कैसे कभी उर्दू में रचना करने वाले धनपत राय श्रीवास्तव, जो प्रारंभ में नवाब राय के नाम से लिखते थे, वो बाद में मुंशी प्रेमचंद के नाम से हिन्दी में लिखने लगे।दैनिक जागरण में छपे उनके लेख के अनुसार, “इस बात की चर्चा कम होती है कि प्रेमचंद ने जब ‘कर्बला’ नाम का नाटक लिखा था तो उस दौर के मुस्लिम लेखकों ने उनका जमकर विरोध किया था। ये तर्क दिया गया था कि हिंदू लेखक मुसलमानों के इतिहास को आधार बनाकर कैसे लिख सकते हैं?”
और पढ़ें: शरत चंद्र चटोपाध्याय: एक ओवररेटेड साहित्यकार, जिन्होंने ‘लवर्स’ को ‘FOSLA का रोग’ लगा दिया
इस्लामिस्टों ने हवा कर दिया प्रेमचंद का उर्दू प्रेम
अरे, ये कैसे हो सकता है भैया? प्रेमचंद तो बड़े उर्दू प्रेमी थे न, उन्होंने तो ब्राह्मण विरोधी लेख लिखे थे, उन्होंने सदैव सनातन संस्कृति को नीचा दिखाया था, वो तो मनहूसियत में बंगाली बाबू शरत चंद्र चट्टोपाध्याय को टक्कर देते थे? परंतु सत्य तो यह भी है कि धनपत राय को अपनी आलोचना सुनकर उर्दू प्रेम से विश्वास उठने लगा था। कभी “तिलिस्म ए होशरुबा”, मिर्जा हादी रुसवा की पुस्तकों को कंठस्थ करने वाले और अपने चाचा से कुंठा में उन्हीं के एक प्रसंग को अपनी रचना बनाने वाले धनपत राय का सारा उर्दू प्रेम इस्लामिस्टों ने हवा कर दिया।
अनंत विजय के इसी विश्लेषणात्मक लेख के अनुसार, “प्रेमचंद इस तरह की बातों के आधार पर अपनी आलोचना से बेहद खिन्न हुए थे। इस बात की चर्चा हिंदी के प्रगतिशील लेखकों ने बिल्कुल ही नहीं की है बल्कि उनके जीवनीकार ने भी इसका उल्लेख नहीं किया। कमलकिशोर गोयनका जैसे प्रेमचंद साहित्य के अध्येता इस बात को रेखांकित करते रहे हैं। 1964 में साहित्य अकादमी से एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी जिसका नाम है प्रेमचंद रचना संचयन। इस पुस्तक का संपादन निर्मल वर्मा और कमलकिशोर गोयनका ने किया था। इस पुस्तक में 1 सितंबर 1915 का प्रेमचंद का अपने मित्र मुंशी दयानारायण निगम को लिखे एक पत्र का अंश प्रकाशित है।”
इस पत्र में प्रेमचंद ने लिखा है कि “अब हिंदी लिखने की मश्क (अभ्यास) भी कर रहा हूं। उर्दू में अब गुजर नहीं। यह मालूम होता है कि बालमुकुंद गुप्त मरहूम की तरह मैं भी हिंदी लिखने में जिंदगी सर्फ (खर्च) कर दूंगा। उर्दू नवीसी में किस हिंदू को फैज (लाभ) हुआ है, जो मुझे हो जाएगा।” इस वाक्यांश को ध्यान से समझने की आवश्यकता है, उर्दू में अब गुजर नहीं है और उर्दू नवीसी में किस हिंदू को लाभ हुआ है।
‘उर्दू लिखने से किसी का लाभ नहीं हो सकता’
इससे प्रेमचंद के आहत मन का पता चलता है कि वो उर्दू वालों या अपने समकालीन मुसलमान लेखकों के विरोध से कितने खिन्न थे। वो स्पष्ट रूप से प्रश्न की शक्ल में कह रहे थे कि उर्दू में लिखने से किसी हिंदू को लाभ नहीं हो सकता। प्रेमचंद के इस आहत मन को प्रगतिशील आलोचकों और लेखकों ने या तो समझा नहीं या समझबूझ कर योजनाबद्ध तरीके से दबा दिया। इस बात की संभावना अधिक है कि जानबूझकर इस प्रसंग को नजरअंदाज किया गया। प्रेमचंद को प्रगतिशील जो साबित करना था। अब कुछ लोगों को लगेगा, क्या बकवास है? प्रेमचंद ने सदैव वामपंथी प्रेमी साहित्य रचा था परंतु पंच परमेश्वर में ही इस परिवर्तन की झलक देखी जा सकती थी, जिसे 1916 में सरस्वती प्रकाशन में प्रकाशित किया गया।
हालांकि, नई पीढ़ी को ये जानना चाहिए कि वर्ष 1920 में प्रकाशित कृति ‘वरदान’ को प्रेमचंद ने राजा हरिश्चंद्र को समर्पित किया था। उसको बाद के संस्करणों में हटा दिया गया। इसी तरह प्रेमचंद के कालजयी उपन्यास ‘गोदान’ का नाम ही बदल दिया गया। पंडित जनार्दन झा ‘द्विज’ ने अपनी ‘पुस्तक प्रेमचंद की उपन्यास कला’ में स्पष्ट किया है कि प्रेमचंद ने पहले अपने उपन्यास का नाम गौ-दान रखा था।
ज्ञात हो कि यह वही प्रेमचंद हैं, जो कभी तैमूर लंग से लेकर नादिर शाह तक की स्तुति में अजीबोगरीब कथाएं लिखते थे परंतु 1920 आते आते इनमें एक अजीबोगरीब परिवर्तन हुआ और यह पिछड़े वर्ग एवं स्त्रियों के उत्थान के साथ साथ सनातन संस्कृति के ऊपर भी चर्चा करने लगे थे। कभी जबरन धर्मांतरण के विरोध में लेख लिखते तो कभी भारत की संस्कृति के भी गुण गाते, चाहे वो कम से कमतर कथाओं में ही क्यों न हो। यह संयोग तो बिल्कुल नहीं हो सकता कि जो व्यक्ति कभी ‘नवाब राय’ के नाम से ‘सोज़ ए वतन’ रचता हो, वह अचानक से हिन्दी साहित्य का पुरोधा बन जाए?
और पढ़ें: मूल महाभारत के निकट भी नहीं थे, परंतु प्रयास तो सार्थक था बलदेव राज चोपड़ा का
TFI का समर्थन करें:
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ‘राइट’ विचारधारा को मजबूती देने के लिए TFI-STORE.COM से बेहतरीन गुणवत्ता के वस्त्र क्रय कर हमारा समर्थन करें।