जो देश के भविष्य के लिए बेहतर होगा अगर शासक उस दिशा में काम न करे तो वो कभी देश का हितैषी नहीं कहलाएगा। यूं तो भारत तेल आयात और निर्यात दोनों के लिए अपने विभिन्न स्त्रोतों के साथ आज सक्षम हो चला है। वहीं देखा जाए तो उत्तम से सर्वोत्तम की राह पर हर देश चलना चाहता है, ऐसे में जो भी माध्यम उसके सर्वांगीण उन्नति का वाहक बने उसे अपनाने में किसी देश को क्षणभर भी नहीं सोच-विचार करना चाहिए। कुछ ऐसा ही भारत अब करने जा रहा है जहां वो ईरान की पेशकश पर ओएनजीसी ईरान में अपना संयंत्र लगाने जा रहा है।
30% हिस्सेदारी की पेशकश
दरअसल, ईरान ने ओएनजीसी विदेश लिमिटेड और उसके भागीदारों को फरजाद-बी गैस क्षेत्र को विकसित करने में 30% हिस्सेदारी की पेशकश की है, जिसे भारत ने फारस की खाड़ी में खोजा था। 3,500 वर्ग किलोमीटर फ़ारसी अपतटीय ब्लॉक में, ओएनजीसी विदेश लिमिटेड ने 2008 में एक विशाल गैस क्षेत्र की खोज की थी। इसने अप्रैल 2011 में एक मास्टर डेवलपमेंट प्लान (एमडीपी) प्रस्तुत किया था, जिसे फरजाद-बी के नाम से जाना जाता है। इसे बाद में उत्पादन में लाया गया, लेकिन ईरान पर उसकी परमाणु महत्वाकांक्षाओं के कारण अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के परिणामस्वरूप बातचीत बंद हो गई। चूंकि अमेरिका ईरान की इस महत्वकांक्षा का शुरुआत से विरोधी था तो उसी के परिणामस्वरूप अमेरिका ने एक के बाद एक प्रतिबंध लगाए।
इन प्रतिबंधों में सबसे ज़्यादा प्रभावशाली काटसा था। काटसा की बात करें तो अमेरिका द्वारा अपने प्रतिद्वंद्वियों के विरोध हेतु बनाए गए दंडात्मक अधिनियम CAATSA (Countering America’s Adversaries Through Sanctions Act) को वर्ष 2018 में लागू किया गया था, इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य दंडनीय उपायों के माध्यम से ईरान, रूस और उत्तर कोरिया की आक्रामकता का सामना करना था। हालांकि विशेषज्ञ मानते हैं कि यह अधिनियम प्राथमिक रूप से रूसी हितों जैसे कि तेल और गैस उद्योग, रक्षा क्षेत्र और वित्तीय संस्थानों पर प्रतिबंध लगाने से संबंधित है।
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भारत का रुख तटस्थ रहा है
गौरतलब है कि अमेरिका ने जब से यह कानून अधिनियमित किया है, तभी से भारत-रूस रक्षा संबंधों पर इसके संभावित प्रभावों का मुद्दा काफी चर्चा में रहा है, विशेष रूप से S-400 मिसाइल प्रणाली की खरीद के संदर्भ में। भारत काटसा के अंतर्गत आता तो है पर सब बातों पर नहीं सहमति हो सकती है और न ही होगी। रूस-यूक्रेन संघर्ष में भारत पर अमेरिका ने बहुत तरह के दबाव डालने चाहे पर भारत ने न ही विरोध किया और न ही किसी का समर्थन, भारत का रुख इस पूरे संघर्ष में तटस्थ ही रहा है। यही अमेरिका को नागवार गुज़रा। इसका मुख्य कारण यह है कि CAATSA को अधिनियमित करने का उद्देश्य ही रूस के रक्षा क्षेत्र के साथ व्यापारिक लेन-देन में संलग्न संगठनों और व्यक्ति विशिष्ट पर प्रतिबंध लागू करके रूस को दंडित करना था।
अब जब तेल से संबंधित ईरान की पेशकश सामने आई है तब भी अमेरिका अवश्य परेशान होगा और चाहेगा कि उसके प्रतिबंधित नियमों का भारत एक बार और उल्लंघन न करे। पर वहीं भारत इस बार भी इस पर फैसला अपने पक्ष में लेते हुए अमेरिका को एक और झटका देगा क्योंकि यह उसके लिए महत्वपूर्ण है। ज्ञात हो कि 2011 में वार्ता रुकने के बाद 2015 में वार्ता फिर से शुरू हुई, लेकिन राष्ट्रीय ईरानी तेल कंपनी (एनआईओसी) ने फरवरी 2020 में घोषणा की कि ईरानी सरकार ने क्षेत्र को विकसित करने के लिए एक स्थानीय कंपनी को अनुबंध देने का विकल्प चुना है।
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अन्वेषण सेवा अनुबंध का हवाला दिया गया
रिपोर्टों के अनुसार, ओवीएल और उसके भागीदारों को फ़ारसी ब्लॉक में गैस भंडार खोजने की अनुमति देने वाले अन्वेषण अनुबंध ने निर्धारित किया कि खोजकर्ता क्षेत्र के विकास में भाग लेगा। इसके अनुसार, ईरान ने अन्वेषण सेवा अनुबंध का हवाला देते हुए भारतीय संघ से न्यूनतम 30% हिस्सेदारी तक विकास अनुबंध में भाग लेने के अपने अधिकारों का प्रयोग करने का अनुरोध किया। तेहरान ने भारतीय फर्मों से अनुरोध प्राप्त करने के 90 दिनों के भीतर अपने अधिकारों का प्रयोग करने का अनुरोध किया, ऐसा न करने पर इसे अनुरोध की अस्वीकृति के रूप में देखा जाएगा। अब जब मामला भारत के पाले में था तो उसको स्वीकृति प्रदान न करना एक भारी गलती के समान होता।
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जब भी भारत के हितों की बात आई है तब-तब अमेरिका ने किसी न किसी रोड़े को अटकाने का काम किया है। इस बार ईरान जिसे अमेरिका ने पूर्णतः प्रतिबंधित किया हुआ है उसकी पेशकश भारत के लिए अत्यंत ज़रूरी थी और अब भारत उसका उपयोग करने जा रहा है। परिणामस्वरूप ओएनजीसी अब अमेरिका द्वारा प्रतिबंधित ईरान में अपना संयंत्र लगाएगी।
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