लखीमपुरी खीरी मामले में BBC और Reuters की रिपोर्टिंग को ‘केला पुरस्कार’ से पुरस्कृत करना चाहिए

मुस्लिम आरोपी, हिंदू जाति व्यवस्था पर सवाल खड़े हो रहे हैं- है न चमत्कारिक रिपोर्टिंग!

BBC

झूठों का कुनबा बहुत बड़ा तो नहीं होता है पर होता तो है, इस कुनबे के लोगों के प्रपंच की कहानी इतनी है कि यह पैसों के भूखे होते हैं, जो दाना डाल दे उसके हो जाते हैं फिर चाहे झूठे साक्ष्य प्रस्तुत कर झूठ का अंबार ही क्यों न खड़ा करना हो, इन तत्वों की उसमें सदा से ही मास्टरी है। उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में हाल ही में 2 नाबालिग बेटियों के साथ हुई दरिंदगी को अपने एजेंडे का हथियार बना पश्चिमी मीडिया और मूलतः वामपंथी मीडिया समूहों ने ऐसे प्रस्तुत किया कि ऐसी तुच्छ रिपोर्टिंग के लिए बीबीसी और रॉयटर्स जैसे समूहों को विशेष रूप से पुरस्कृत करना चाहिए।

हिन्दू जातीय व्यवस्था के उल्लेख की कोई आवश्यकता ही नहीं थी

दरअसल, यूपी के लखीमपुर खीरी जिले के निघासन इलाके के एक गांव के बाहर 14 और 17 वर्ष की दो दलित लड़कियों के पेड़ से लटके पाए जाने के एक दिन बाद पुलिस ने गुरुवार को अपराध में शामिल सभी छह आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया था। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में मौत की वजह रेप और गला घोंटने को बतायी गयी थी। एक ओर इस मामले के लिए फास्ट ट्रैक सुनवाई की मांग की जा रही है तो वहीं कुछ नीच तत्व इस मामले के मुख्य आरोपितों से ध्यान भटकाने का प्रयास करने में जुटे हुए हैं और तो और जिस मामले में हिन्दू जातीय व्यवस्था का कोई अर्थ ही नहीं था उसको भी जबरन इसमें घुसाया गया।

मालूम हो कि 6 आरोपियों में से 5 मुस्लिम समुदाय के थे। वहीं जो 1 हिंदू था, छोटू (गौतम) उसने मृत बहनों को अन्य आरोपियों से मिलवाया था। दुष्कर्म और हत्या को अन्य आरोपियों ने अंजाम दिया था जिनका परिचय लड़कियों के पड़ोसी छोटू ने बहनों से कराया था पर उन पांचों को छोड़ हिन्दू जातीय व्यवस्था के बारे में चाहे बीबीसी हो या रॉयटर्स, सभी ने लिखा और यह दर्शाने की कोशिश की कि यह जो कुछ हुआ उसमें हिन्दू जातीय व्यवस्था का दोष है जबकि कृत्य करने वाले प्रमुख रूप से 5 मुस्लिम समुदाय के थे पर इन वामपंथी समूहों के पेट का पानी तब तक नहीं हिलता जब तक ये किसी भी मुद्दे में हिन्दू समुदाय को न ले आएं।

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चाहे, बीबीसी हो या द वाशिंगटन पोस्ट या रॉयटर्स इन सभी ने इस मामले पर विशेष रूप से हिन्दू जातीय व्यवस्था का वर्णन किया, जिसमें “भेदभावपूर्ण हिंदू जाति व्यवस्था” का स्पष्ट संदर्भ दिया गया है और विशेष रूप से उन आरोपी पुरुषों के नामों को छोड़ दिया गया है, जिन्हें अधिकारियों द्वारा खुले तौर पर आरोपी घोषित किया गया था।

बीबीसी की एक रिपोर्ट में कहा गया कि “लड़कियों को निशाना बनाया गया क्योंकि वे दलित थीं।” बीबीसी की इस कहानीपरक रिपोर्ट में भरभरकर तथ्यात्मक अशुद्धियां हैं। पहली यह कि उसने असल आरोपियों की पहचान तक गुप्त रखी जिसे पुलिस ने सार्वजानिक कर दिया है। बीबीसी के अनुसार, “18 साल से कम उम्र की लड़कियां, दलित जाति की थीं जो एक गहरे भेदभावपूर्ण हिंदू पदानुक्रम में सबसे नीचे थीं।” हिंदुओं को “अत्यधिक भेदभावपूर्ण” के रूप में चित्रित करके बीबीसी ने यह इंगित करने का प्रयास किया कि घटना इसलिए हुई क्योंकि मृत बेटियां वर्ण-व्यवस्था के अंतिम पायदान से सरोकार रखती थीं। ऐसी रिपोर्टिंग के लिए “छी” से बेहतर और कोई शब्द नहीं हो सकता है।

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कई महत्वपूर्ण तथ्य लुप्त हैं

रॉयटर्स ने 15 सितंबर को इस घटना के बारे में लिखा तो सही पर कई महत्वपूर्ण तथ्य खा गया। इस रिपोर्ट में कहा गया कि पुलिस ने छह लोगों को “निम्न-जाति समुदाय की दो लड़कियों के कथित बलात्कार और हत्या के सिलसिले में” गिरफ्तार किया। आश्चर्य की बात यह है कि रॉयटर्स ने पूरी रिपोर्ट में उन आरोपियों के नामों का कोई उल्लेख ही नहीं किया है जिन्हें पुलिस ने घटना के बाद तत्काल गिरफ्तारी के कुछ घंटों के भीतर सार्वजनिक कर दिया था। हां उसने यह अवश्य किया कि घूम-फिरकर उसने सारा ठीकरा हिन्दू जातीय व्यवस्था पर फ़ोड़ दिया बिलकुल कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा भानुमति ने कुनबा जोड़ा, स्टाइल में। रिपोर्ट में यह उल्लेख किया गया है कि भारत में लोग और परिवार “एक प्राचीन जाति व्यवस्था का पालन करते हैं।” किसलिए लिखा गया पता नहीं पर यह रॉयटर्स की घृणित सोच का प्रत्यक्ष उदाहरण है कि जो आरोपी थे उनका नाम उल्लेख तक नहीं किया और जिस हिन्दू जातीय व्यवस्था का दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं था उसको भी ऐसे दिखाया गया जैसे सारा कसूर हिन्दू जातीय व्यवस्था का था।

रॉयटर्स के बाद अगला नंबर वाशिंगटन पोस्ट का था। यहां वाशिंगटन पोस्ट ने शुरू-शुरू में तो सुचिता बनाए रखी जहां उसने छह के छह आरोपियों का उल्लेख करते हुए कहा कि, “उत्तर प्रदेश पुलिस ने जुनैद, सोहेल, आरिफ, हाफिज, करीमुद्दीन और छोटू उर्फ गौतम नाम के छह लोगों को लड़कियों का यौन शोषण करने और उनकी बेरहमी से हत्या करने के आरोप में गिरफ्तार किया है।” लेकिन आगे बढ़ते ही वाशिंगटन पोस्ट अपने असल तिरिया-चरित्र पर आ गया। वाशिंगटन पोस्ट ने आगे उल्लेख किया कि लड़की दलित समुदाय से थी, “भारत की कठोर जाति पदानुक्रम का सबसे निचला पायदान।” वाशिंगटन पोस्ट ने जानबूझकर मृत लडकियों जो जाति का संदर्भ दिया जैसे मानों उन 2 नाबालिग बेटियों की जाति ही उनके काल का कारक थी।

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ऐसी छद्म सोच के लिए इन दोनों समूहों को इनकी लेखनी के लिए “केला” पुरस्कार दिया जाना चाहिए क्योंकि यह उसी के लायक हैं। असल आरोपियों को ऐसे संरक्षण देना जैसे इनके घर-कुनबे के हों यह सब बीबीसी, रॉयटर्स और वाशिंगटन पोस्ट जैसे समूह ही कर सकते हैं। इनसे बेहतरी की उम्मीद करना अपने समय को व्यर्थ करने जैसा है।

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