पीर बाबा और ‘ताबीज़ संस्कृति’ की ओर हिंदू इतना आकर्षित क्यों हो रहे हैं?

इसके पीछे कई कारण हैं लेकिन मनौवैज्ञानिक कारण सबसे महत्वपूर्ण है।

पीर बाबा

“भर दे झोली मेरी”

“शिरडी वाले साईं बाबा, आया है तेरे दर पे सवाली”

“तू मेरी हीर मेरी मैंने दिल से माना तुझे

हर वीरवार पीर बाबा से भी मांगा तुझे!”

ऐसे अनेक गीत कभी न कभी आपने कहीं न कहीं तो सुने ही होंगे। इन गीतों को यदि गुनगुनाया न हो, तो कभी न कभी आपके कानों में ये गूंजा अवश्य होगा। परंतु क्या कभी सोचा आपने कि इन सब में समान बात क्या है? क्या ये सब आपको एक ही संस्कृति, एक ही दिशा की ओर आकृष्ट नहीं करते? क्या ये गीत आपको ये शिक्षा नहीं देते कि हमारा पंथ ही श्रेष्ठ है, बाकी सब व्यर्थ?

इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे हमारे देश में पीर बाबा और ताबीज़ की संस्कृति दनादन बढ़ रही है और कैसे यह प्रवृत्ति एक चिंताजनक रूप ले रही है।

ताबीज़ का यह विवाद बहुत पुराना है

ताबीज़ का यह विवाद बहुत पुराना है जिसकी जड़ें ब्रिटिश काल और उससे पूर्व तक जाती है। एक समय तो लोग धर्मनिरपेक्षता के मद में इतना डूबे हुए थे कि वे ऐसे छंद गाने से पूर्व हिचकते भी नहीं थे,

“अव्वल अल्लाह नूर उपाया कुदरत के सब बंदे,
एक नूर ते सब जग उपजाया कौन भले को मंदे,

लोगा भ्रमी न भूलहु भाई भरमि न भूलहु भाई,
खालिकु खल्क खल्क माहि खालिकु पूरी रहियो सब थाई”

यानी अर्थ स्पष्ट था– लॉजिक और यथार्थ गया तेल लेने, भाईचारा सर्वोपरि हो। इसमें काफी महत्वपूर्ण रोल पीर बाबा की मज़ारों और उनके ताबीज़ों ने भी निभाया। जैसे गरिष्ठ भोजन और सात्विक भोजन का स्थान फास्ट फूड ने ले लिया, वैसे उपवास, भजन इत्यादि पर ताबीज , पीर बाबा की मज़ार ने अतिक्रमण कर लिया। विश्वास नहीं होता तो अजमेर शरीफ के उदाहरण को ही ले लीजिए।

अजमेर दरगाह को भाईचारे का प्रतीक माना जाता रहा है। बॉलीवुड सितारों से लेकर तमाम बड़े-बड़े राजनेता दरगाह में चादर चढ़ाने के लिए आते हैं। परंतु जिस अजमेर दरगाह को अमन, शांति और सद्भाव की मिसाल के रूप में देखा जाता है उसकी वास्तविकता अब धीरे-धीरे सामने आने लगी है। दरगाह के खादिमों द्वारा हिंदुओं के विरुद्ध जमकर भड़काऊ बयान दिए जा रहे हैं जिससे इन खादिमों के शराफत के चोले के पीछे छिपा उनका असली कट्टरपंथी चेहरा बेनकाब हो रहा है।

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तनिक सोचिए, जिस अजयमेरु का प्रतीक पुष्कर का महातीर्थ होना चाहिए, उसे अजमेर शरीफ के नाम से पहचाना जाता है। इसके तीन कारण हैं– ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक। अजमेर शरीफ किसके नाम पर बनी थी? मोइनुद्दीन चिश्ती, जिसको कोई संत, कोई फकीर, तो कोई ख्वाजा गरीब नवाज़ कहते हैं, जिनके नाम पर सदियों से यह दरगाह चलती आयी है, वो वास्तव में कौन थे? कहने को एक सूफी धर्मगुरु थे मोइनुद्दीन चिश्ती, परंतु वास्तव में इनके उद्देश्य कुछ और ही थे।

मोइनुद्दीन चिश्ती और इनके जायरीन यानी अनुयाई वास्तव में अजयमेरु में ‘दीक्षा’/इबादत के नाम पर जासूसी करते थे और इनकी कृपा से ही तुर्की आक्रान्ताओं को काफी आवश्यक जानकारी भी मिली थी। इन्होंने ही सुल्तान मुहम्मद घोरी को भारत पर पुनः आक्रमण करने के लिए उत्साहित किया, जो गुजरात में पटखनी खाने के पश्चात लगभग हतोत्साहित हो चुके थे। परंतु इस राजद्रोही का हम गुणगान भी करते हैं, और इसके कब्र पर हर वर्ष चादर भी चढ़ाई जाती है।

परंतु ऐसा युगों-युगों से नहीं था। ये बीच में कुछ समय के लिए बंद भी हुआ था, परंतु पुनः प्रारंभ हुआ था। कैसे? सांस्कृतिक जड़ें यहीं से प्रारंभ होती है जिसमें बॉलीवुड की भी महत्वपूर्ण भूमिका हैं। आज जो बॉलीवुड मुगलों के दिन-रात गुणगान करता है, जिस मुगल साम्राज्य की जय किए बिना इनका भोजन नहीं पचता, उसी मुगल साम्राज्य ने लगभग खंडहर पड़ चुके मोइनुददीन चिश्ती के मज़ार का पुनरुद्धार कराया। असल में अजमेर पर तुर्की सल्तनत ने कब्जा अवश्य जमाया, परंतु जब महाराणा हम्मीर के नेतृत्व में समूचे राजपूताना ने सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक को सिंगौली के नेतृत्व में पराजित किया तो रिहाई के शर्त अनुसार समूचे राजपूताना को स्वतंत्र कराना पड़ा और अजयमेरु को उसका खोया गौरव पुनः प्राप्त हुआ। मुगलों के आगमन तक किसी ने मोइनुद्दीन चिश्ती की मज़ार को पानी तक नहीं पूछा। परंतु मुगलों के आते ही उसे संरक्षित किया गया और वहां ‘चादर चढ़ाने की प्रथा’ भी प्रारंभ हुई।

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और फिर कुरीति प्रारंभ हुई

यहीं से एक ऐसी कुरीति प्रारंभ हुई, जिसमें सभी ने अपनी रोटियां सेंकी, चाहे वो राजनेता हो या फिर अभिनेता। तुष्टीकरण की राजनीति के लिए अजमेर शरीफ पीर बाबा का जो उपयोग हुआ, और इसे बॉलीवुड ने जिस प्रकार से बढ़ावा दिया, उससे अजमेर शरीफ की ‘चादर’, पुष्कर के महातीर्थ से अधिक महत्वपूर्ण हो गयी और यही सनातन संस्कृति की पराजय भी है, जो इस भ्रम के चक्रव्यूह को भेदने में असफल रही।

इसी के परिणामस्वरूप आज आप अजमेर आते हैं, तो सर्वप्रथम कहां जाने की सोचते हैं? निस्संदेह ख्वाजा गरीब नवाज़ की दरगाह और कभी अगर पुष्कर मेला लगा तो ‘असली राजस्थान’ का स्वाद लेने हेतु पुष्कर। परंतु अजमेर केवल इन दोनों के लिए ही तो प्रसिद्ध नहीं है। अजमेर में ब्रह्मदेव का मंदिर भी है, जो ब्रह्मांड में उनका एकमात्र मंदिर है, परंतु जीर्ण शीर्ण अवस्था में है।

परंतु यही एक कारण नहीं है जिसके पीछे पीर बाबा ताबीज की संस्कृति कठघरे में खड़ी होती है। आप माने या नहीं, परंतु शिरडी के साईं बाबा और उनकी पूजा भी इसी श्रेणी में आती है और इनकी धूनी के लिए तो भक्त ऐसे लालायित रहते हैं, मानो धूनी नहीं, अमृत हो। इसकी क्या गारंटी थी कि बाबा धूनी ही देते थे, कुछ और नहीं? वैसे भी, साईं बाबा तो औघड़ साधु थे न? तो उन्हें सोने का मुकुट, सोने का सिंहासन एवं सोने के वस्त्र इत्यादि क्यों भेंट में चढ़ाए जाते हैं? इसका कोई विशेष कारण है, या ताबीज प्रेमियों के लिए यहां भी कोई नया बहाना है?

बहाने से याद आया, लोनी मामला स्मरण है? हां-हां वही मामला जिसमें स्वघोषित फ़ैक्ट चेकर मोहम्मद ज़ुबैर, राना अयूब एवं ट्विटर इंडिया केवल न्यायपालिका की कृपा से बाल-बाल बचे थे, अन्यथा इन्हें वर्षों तक सूर्य का प्रकाश भी देखने को न मिलता? पर इन्होंने ऐसा किया क्या था? इसकी जड़ें भी ताबीज से ही संबंधित थी।

जब साम्प्रदायिक टकराव बढ़ाने का किया गया प्रयास 

2021 में गाजियाबाद के लोनी में मुस्लिम बुजुर्ग की पिटाई और दाढ़ी काटने का मामला सामने आया था। यह झड़गा मुस्लिम समुदाय के ही दो पक्षों में हुआ था लेकिन कुछ विशेष स्वार्थी तबकों द्वारा जानबूझकर मामले को सांप्रदायिक रंग देने का प्रयास हुआ। यह अफवाह उड़ायी गयी कि वृद्ध को पीटने वाले उससे जय श्रीराम’ बुलवा रहे थे। अब उत्तर प्रदेश पुलिस ने इस मामले में सभी पहलुओं को खंगालना शुरू किया तो पता चला कि मुख्य साजिशकर्ता उम्मेद पहलवान इदरीसी ने जानबूझकर कर यह अफवाह फैलायी थी। उसका इरादा साम्प्रदायिक टकराव बढ़ाने का था जिसका लाभ चुनाव में मिल सके।

उम्मेद इदरीसी ने पुलिस को बताया कि वह फेसबुक पर लाइव आकर मुस्लिम लोगों को हिंदुओं के विरुद्ध भड़काता था और स्वयं को कट्टर हिन्दू विरोधी नेता के रूप में स्थापित करना चाहता था। उम्मेद इदरीसी चाहता था कि उसकी छवि कट्टर मुस्लिम नेता की बने जिससे चुनाव में उसे लाभ हो।

उम्मेद इदरीसी ने बताया कि वह लम्बे समय से सपा में है लेकिन उसे टिकट नहीं मिल रहा, इसीलिए उसने अपनी छवि को कट्टर मुस्लिम की बनाने की कोशिश की। उसकी तैयारी चेयरमैन के पद पर चुनाव लड़ने की थी। उसे उम्मीद थी कि एक बार अगर वह अपनी कट्टर मुसलमान की छवि बना लेता है तो सपा भी उसे आसानी से टिकट दे देगी।

पुलिस ने उम्मेद इदरीसी पर और अधिक धाराएं लाद दी हैं, जिससे उसकी रिहाई नामुमकिन हो जाए। उस पर वीडियो में काट छांट करने के लिए जालसाझी का मुकदमा दायर हुआ है। साथ ही पुलिस ने 13 अन्य लोगों की पहचान की है जिन्होंने उम्मेद इदरीसी को भागने में मदद की। इन लोगों पर भी मुकदमा दायर करके इनकी गिरफ्तारी होगी। मीडिया रिपोर्ट की माने तो इसमें कई नेताओं के भी नाम शामिल हैं।

उत्तर प्रदेश में मुस्लिम सांप्रदायिकता किस हद तक मौजूद है यह बात लोनी प्रकरण और इदरीसी के बयान से एक बार पुनः सामने आ गयी है। उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिक दंगों का इतिहास रहा है। लेकिन उत्तर प्रदेश में पिछले 4 वर्षों में एक भी दंगा नहीं हुआ है, अन्यथा यह वही प्रदेश है जहां कहावतों के अनुसार पतंग कटने पर दंगा हो जाता था।

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जब मांगनी पड़ी माफी

ये तो कुछ भी नहीं था। ALT News के कथित पत्रकारों ने सोशल मीडिया पर गाजियाबाद के लोनी में ताबीज बेचने वाले अल्पसंख्यक बुजुर्ग के साथ हुई मारपीट और दाढ़ी काटने वाले कांड को न केवल सांप्रदायिक रंग दिया गया बल्कि धड़ल्ले से फेक न्यूज भी फैलायी गयी। वहीं इस मामले में यूपी पुलिस की कार्रवाई और जांच के कारण इन सभी कथित वामपंथी पत्रकारों को माफी मांगने पर मजबूर होना पड़ा है। मोहम्मद जुबैर और सबा नकवी के बाद अब राणा अय्यूब ने भी लोनी पुलिस कोतवाली जाकर माफी मांगी है और स्वीकार किया है कि उन्होंने बिना सत्यता के ट्वीट किए थे।

दरअसल, गाजियाबाद के लोनी में ताबीज बेचने वाले अल्पसंख्यक समुदाय के एक बुजुर्ग के साथ कुछ लोगों ने मारपीट की थी और ये वीडियो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुआ था। इस वीडियो के जरिए वामपंथी मीडिया समूहों ने ये दिखाने की कोशिश की कि बुजुर्ग को ‘जय श्री राम’ न बोलने के कारण मारा गया और उनकी दाढ़ी काटी गयी। वामपंथियों का अब वही एजेंडा पूरी तरह एक्सपोज हो गया है। फेक न्यूज फैलाने के लिए ALT News के फैक्ट चैकर मोहम्मद जुबैर ने तो पहले ही पुलिस से माफी मांग ली थी और कई दिनों से Twitter से गायब भी थे। वहीं अब राणा अय्यूब को भी इस मामले में पुलिस थाने जाकर सफाई देने (माफी) के लिए मजबूर होना पड़ा है।

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ऐसे में फास्ट फूड कल्चर की भांति बढ़ते इस पीर बाबा और ताबीज के गठजोड़ ने कट्टरवाद को भी खूब बढ़ावा दिया है, कभी तुष्टीकरण के लिए, तो कभी वोट बैंक की राजनीति के लिए इन्हें राजनेताओं ने खूब पोषित किया। परंतु अब और नहीं, अब इनका हिसाब स्पष्ट होगा, एवं उदयपुर कांड के पश्चात तो ये अब शायद ही किसी सहानुभूति के योग्य बचे हैं।

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