नमस्कार, सुस्वागतम, माझा नाव सोनपापड़ी आहे। हां जी, वही सोनपापड़ी जिसे देख हर दीपावली पर कई लोग अपनी नाक भौं सिकोड़ लेते हैं और कई घरों में शोपीस की भांति फ्रिज में एक कोने में मैं पड़ी रहती हूं। आप सोच रहे होंगे कि मेरा परिचय TFI के माध्यम से कैसे, वो भी दीपावली के इतने दिनों बाद? उ का है कि दीपावली के जितने दिन हो जाएं पर मेरी एक्सपायरी का कोई डेट नहीं है।
अब बंधु हमारे विरुद्ध आपने नाना प्रकार के चुटकुले और मीम्स तो बहुत सुने और शेयर किए होंगें।
कभी ये सुना होगा कि अरे यार, फिर से सोनपापड़ी!
या ये कि अपनी किस्मत सोनपापड़ी जैसी, कितना भी कोशिश कर लो, पीछा ही नहीं छोड़ती।
माफ कर दूं इन्हें? दिवाली बोनस के नाम पर सोन पापड़ी दे रहे हैं?
इसमें आपका या मेरा दोष नहीं, अपना रूप रंग ही अनोखा है और मैं हूं भी तनिक हटके। पर अगली बार उन लोगन पर भी दृष्टि डालिए, जो मिठाई से लेकर दवाई तक और कपड़ों से लेकर संस्कृति तक में अपने नाखून गड़ाये बैठे हैं।
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सोनपापड़ी के लिए चाहिए न्यूनतम संसाधन
क्या है कि मुझे न ढोल नगाड़े की आवश्यकता है, न… वो क्या कहते हैं PR की, और सोशल मीडिया की। मैं तो वो कला हूं जिसे बनाने वाले हाथ न्यूनतम संसाधनों में ही कुशलता से सफलता प्राप्त करते हैं। इसमें न कीट पतंगे का स्यापा, न केमिकल की नौटंकी और न ही सिंथेटिक मावे की मिलावट। मैं तो बंधु अपनी भव्य पैकेजिंग और लंबी शेल्फ लाइफ के चलते आवश्यकता से अधिक मात्रा में उपलब्ध होने पर बिना दूषित हुए किसी को भी दी जा सकती हूं। खोये की मिठाई की तरह सड़कर कूड़ेदान में नहीं फेंकी जाती। आश्चर्य है कि बिल्कुल एक सुंदर, भरोसेमंद मनुष्य की तरह जिस सहजता के लिए मेरा सम्मान होना चाहिए, वहां मुझे हेय दृष्टि से ही देखा जाने लगा है। का करें, इस देश के बहुसंख्यकों की भांति हमरा भी कौनो मोल नाहीं समझ रहा है।
वैसे कहते हैं कि मेरी उत्पत्ति पश्चिमी महाराष्ट्र में हुई थी, वहां से निकलकर मैं भारत के कई हिस्सों में पहुंची, जबकि एक कहानी है कि मैं उत्तर प्रदेश में बनी और पश्चिम बंगाल, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और गुजरात में रहने वाले लोगों के बीच मैं प्रसिद्ध होती गयी। अब मैं एक अतरंगी मिठाई हूं बंधु– लिटरली जात पात धर्म से परे। कहते हैं कि कबाड़ बेचकर भी सोनपापड़ी मिल जात है, और ए कौनो गलत बात नाही है। परंतु हर रत्न की भांति मुझे बनाने की विधि भी बड़ी अनोखी और जटिल है। घी, बेसन, शक्कर और दूध के प्रचुर मिश्रण से मुझे शिल्पकार, जिन्हें आप हलवाई भी कहते हैं, तैयार करते हैं। मुझे बनाना मैगी बनाने जितना सरल नहीं है, परंतु एक बार बन गयी तो मुझे टिकाए रखना सबसे सरल और सबसे उपयोगी है। ये दावा कोई और मिठाई या कनफेक्शनरी करके दिखाए, तो मानूं मैं!
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मुंह में घुल जाती है सोनपापड़ी
यदि आप मधुमेह के रोगी नहीं हैं तो घर में रखे मेरे डिब्बों में से एक को खोलिए। उत्कृष्ट बनावट का प्रतिरूप और गदगदी परतों वाली सोनपापड़ी का एक सुनहरा, सुगंधित टुकड़ा मुंह में रखिये। भीतर जाने से पहले होंठों पर ही न घुल जाऊम तो बनाने वाले का नाम बदल दीजियेगा। कई लोगों की प्रिय मिठाई मैं यूं ही नहीं हूं। वैसे भी सोनपापड़ी में मूल सामग्री बेसन है, और वह सेहत के लिए कितना लाभकारी है, इसके लिए कोई विशेष शोध की आवश्यकता नहीं।
बात बाज़ार की करें तो मैं यानी सोनपापड़ी तो तिरस्कार का विषय हो गयी है। अब लंबी शेल्फ लाइफ और बढ़िया पैकेजिंग का दूसरा कम खर्च वाला उपहार और क्या हो सकता है? चॉकलेट्स! और क्या? समझ रहे होंगे।
कहते हैं,
“जिसे पराजित न कर सके, उसे यशहीन कर दो,
उसका उपहास करो।
उसकी छवि मलिन कर दो”।
बस ऐसा ही कुछ किया गया है मेरे साथ भी। किसी बौड़म ने कह दिया कि मुझे सोनपापड़ी पसंद नहीं। ठीक है भई, सबको मैं पचती नहीं, परंतु इसका यह अर्थ थोड़े ही है कि जाकर हमारे बारे में अंट-संट सुनाओ, नौटंकी करो और मुझ पर कीचड़ उछालने के नाम पर हमारे पर्व को भी बदनाम करो। हमरे ऊपर उपहास तो केवल बहाना है, असल में विदेशी दद्दाओं का माल भी तो चलाना है।
एक छोटे से उपहास के चलते, इधर के दो चार महीनों में ही कैडबरी का ही टर्न ओवर क्या से क्या हो सकता है आपकी कल्पना से बाहर की बात है। जो 2000 के प्रारम्भिक दशक में एक अतिरिक्त विकल्प के रूप में आया था, उसने धीरे-धीरे मेरे ही भाई बंधुओं को बाज़ार से निकलवाना प्रारंभ कर दिया। कभी फलाने मिठाई में अधिक कैलोरी निकलवा दी, कभी ढिकाने स्नेक में चर्बी बढ़वा दी। एक प्रश्न है कि आपके कैडबरी छाप विकल्प में कौन सा अमृत बरस रहा है बंधु, तनिक बताने का भी कष्ट करें?
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परंतु कॉम्पिटिशन कम नहीं है भैया। आज भी गिफ्ट पैक तो कोई सच में टक्कर दे सकता है, तो वो मैं ही हूं, बंधु। ब्रांड कोई भी हो, परंतु यदि मैं एक बार मैदान में आ गयी तो का कैडबरी, का नेस्ले, कौनों न टिक पाए, और इसके लिए हम हल्दीराम दद्दा के आभारी रहेंगे।
हल्दीराम के साम्राज्य की शुरुआत की भी एक अनोखी कहानी है। हल्दीराम तब एक शादी में शामिल होने कोलकाता गए थे, जिससे उन्हें वहां एक दुकान खोलने का विचार आया। बीकानेर भुजिया व्यवसाय की यह पहली शाखा थी। दूसरी पीढ़ी ने कारोबार का और विस्तार नहीं किया। हालांकि, पोते मनोहरलाल और शिव किशन इस व्यवसाय को नागपुर और दिल्ली ले गए। उत्तरी क्षेत्र में दिल्ली स्थित हल्दीराम स्नैक्स और एथनिक फूड्स, पश्चिमी और दक्षिणी क्षेत्रों में नागपुर स्थित हल्दीराम फूड्स इंटरनेशनल और पूर्वी क्षेत्र में कोलकाता स्थित हल्दीराम भुजियावाला के साथ इस कंपनी का संचालन तीन अलग-अलग क्षेत्रों में विभाजित हो गया।
तो इसका मेरी बिरादरी से का नाता है? नाता है भैया, वर्ष 1937 में जब गंगा बिसेन अग्रवाल ने बीकानेर में अपनी भुजिया की दुकान खोली होगी, तो उन्होंने शायद ही कभी सोचा होगा कि हल्दीराम वेज शामी कबाब, सोया शामी कबाब, दही कबाब और हरा भरा कबाब बेचेगा। डिब्बाबंद रसगुल्ले और सोन पापड़ी, पानी पुरी और अब देसी रैप जैसी मिठाइयों को शामिल करके हल्दीराम ने अपने नमकीन स्नैक्स की रेंज में विविधता लाई है।
परंतु यहां भी इन्हें चैन नहीं। पिछले दो दशकों से वे बड़े-बड़े फ़िल्म स्टार्स को करोड़ों रुपये केवल इस बात के दे रहे हैं कि हमारी जड़ बुद्धि में ‘कुछ मीठा हो जाये’ यानी चॉकलेट ठूंस सकें। और हम हैं कि अब भी मीठा यानी मिठाई ही सूंघते, ढूंढ़ते फिर रहे हैं। तो क्या करना चाहिए। मिठाई क्या यह तो प्रोटीन बार है और चीनी तो हर मिठाई में है। और लोकप्रियता का आधार देखिये वो 35 रुपये में एक टुकड़ा देते हैं मैं यानी सोनपापड़ी डिब्बाभर थमा दिया जाता है।
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परिणाम निल बटे सन्नाटा!
कुछ मखनचू तो इतने महान है कि डंकिन डोनट और कोकाकोला के गिफ्ट पैक देना ही दीपावली के लिए अपनी फ़ॉर्मेलिटी समझ लेते हैं। स्थिति तो यहां तक आ चुकी है कि अब आइसक्रीम में गुलाब जामुन मिलाकर उसे एक अजूबे की तरह पेश करते हैं। यानी धन भी वहन करें, पेट भी फुलाइए, स्वास्थ्य को भी खतरे में डालें और अन्त में ये भी सिद्ध करें कि आप कितने बड़े मूर्ख हैं। परिणाम निल बटे सन्नाटा!
परंतु खेल यहीं पर खत्म नहीं होता। शत्रुता केवल मुझ निरीह सोनपापड़ी से होती, तो गुलाब जामुन पर क्यों धावा बोलते? बात को बहुत ध्यान से समझना होगा, आज हमारे खाद्य संस्कृति पर हमला बोला है और कल कुछ और करेंगे। अभी कुछ दिनों पूर्व सुना मैंने कि सफाई मत कराएं, इससे महिलाओं को पीड़ा होती है। ये उस देश से आता है, जिसका संस्कृति और विनय से छत्तीस का आंकड़ा रहा है। फिर कहेंगे कि रंगोली मत लगाओ, फिर होगा कि देसी वस्त्र मत पहनो, और फिर कहेंगे कि सांस ही मत लो, और अभी तो हमने पटाखों पर चर्चा भी नहीं की। समझे इनका पूरा खेल बाबू?
परंतु ऐसे अकेले मैं कब तक लड़ती रहूंगी? वैसे तो मुझे किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं है, परंतु दुख होता है कि मेरे बलिदान का कोई मूल्य नहीं समझ रहा है। मेरे व्यापार में भी इन दिनों ह्रास हुआ है, क्योंकि मैं अकेले अपने दम पर कब तक इन सब से भिड़ती रहूंगी, मुझे भी तो सबके सहयोग की आवश्यकता है, सबके प्रेम की आवश्यकता है। समझना होगा कि जो देसी को न समझे, वो व्यापार को क्या खाक समझे? आशा है कि एक दिन मुझ सोनपापड़ी को आप भी उपहास की दृष्टि से नहीं देखेंगे और मुझे भौकाल की श्रेणी में रखेंगे, कि हां, म्हारे पास भी सोनपापड़ी है!
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