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MDH की सफलता की कहानी और हिंदू व्यापार मॉडल की विशेषता

यह सनातनी परंपरा सभी हिंदू व्यापारियों को सफलता तक ले जाती है!

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
3 October 2022
in प्रीमियम
MDH
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‘MDH का तड़का, अंग-अंग फड़का’

‘असली मसाले सच-सच, MDH, MDH!’

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कुछ व्यक्ति या उत्पाद ऐसे होते हैं जो अपने आप में उस उत्पाद का अभिप्राय बन जाते हैं। अब चॉकलेट के अनेक ब्रांड है पर दुकान पर जाते ही एक डेरी मिल्क देना क्यों निकलता है? या टूथपेस्ट में कोलगेट? ये होता है ब्रांड पर विश्वास। ऐसा ही विश्वास एक भारतीय ब्रांड ने बनाया है और ऐसा बनाया कि उसने सनातनी व्यापार मॉडेल की धाक संसार भर में जमा दी। इस ब्रांड का नाम है महाशियां दी हट्टी, जिसे हम सभी अपने अति लोकप्रिय MDH के नाम से बेहतर जानते हैं।

MDH ने अपनी धाक जमायी है

अब मसालों में भी अनेक ब्रांड हैं और इनमें प्रतिस्पर्धा टेलीकॉम कंपनियों से कम तगड़ी नहीं है, परंतु जो धाक MDH ने जमायी है, वो न गोल्डी प्राप्त कर पाया, न अशोक और न ही एवरेस्ट मसाले। अगर आप MDH को जानते हैं, तो इनके आइकॉनिक ‘दादाजी’ को भी जानते ही होंगे। किसे पता था कि जो सियालकोट से किसी तरह 1500 रुपये लेकर निकलेगा, वह धीरे-धीरे 2000 करोड़ रुपये से अधिक के अति लोकप्रिय उद्योग का स्वयं स्वामी बन जाएगा। परंतु ऐसे ही थे महाशय धर्मपाल गुलाटी। कई असफलताओं के पश्चात उन्होंने 1965 में जब महाशियां दी हट्टी को पुनर्स्थापित किया, तो फिर उन्होंने सफलता की वो ऊंचाइयां छुईं कि फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।

धर्मपाल गुलाटी का जन्म 27 मार्च 1923 को पाकिस्तान के सियालकोट में हुआ था। उनके पिता महाशय चुन्नीलाल की कस्बे में एक मसाले की दुकान थी जिसका नाम महाशियां दी हट्टी था, जिसे देगी मिर्च वाले के नाम से भी जाना जाता था। सन् 1933 में, 10 साल की उम्र में उन्होंने स्कूल की पढाई छोड़ दी और अपने मसाले के कारोबार में अपने पिता की मदद करने में लग गए। धीरे-धीरे अविभाजित पंजाब में इस मसाले की लोकप्रियता बढ़ने लगी और इस ब्रांड ने लाहौर, शेखपुरा, ननकाना साहिब, ल्यालपुर एवं मुल्तान में अपनी जड़ें जमानी प्रारंभ कर दी।

परंतु उसी समय भारत को विभाजन की कुदृष्टि लग गई, एवं सत्ता के लिए जिन्ना की लालसा में लाखों हिंदुओं एवं सिखों को आपने घर, स्वाभिमान, यहां तक कि अपने प्राणों तक से हाथ धोना पड़ा। धर्मपाल तब केवल 24 वर्ष के थे, उस समय वे किसी भांति अपने छोटे से परिवार को बचाने में सफल रहे, वे दिल्ली में कुछ समय रहे। उन्होंने कई क्षेत्रों में हाथ आजमाया, तांगा चलाने से लेकर गन्ने की दुकान खोलने में हाथ आजमाने तक, परंतु सफलता उनके हाथ नहीं लगी।

और पढ़ें- गॉसिप और चुगलियों में भारत की जनता को इतना आनंद क्यों आता है?

पिसे हुए मसाले का व्यवसाय

फिर उन्हें सूझा – क्यों न पिसे हुए मसाले परोसे जाएं? उन दिनों घर में मसाले कूट के पीसे जाते थे, और आवश्यक नहीं था कि सभी कार्य सरल और सुगम हो। अतः उच्च कोटी के पिसे हुए मसालों का प्रबंध करने का बीड़ा उठाया धर्मपाल गुलाटी ने। उन्होंने राजधानी दिल्ली की जरूरत पर ध्यान लगाया और अपने मन में बड़े सपने के साथ ‘महाशियां दी हट्टी’ के नाम से मसाले की दुकान खोल ली। समय की नजाकत को समझते हुए महाशय ने मसाले का कारोबार शुरू करने के बाद वर्ष 1959 में कीर्ति नगर में पहली फैक्ट्री खोली। उस समय उनके साथ सिर्फ दस लोग थे। इन दस लोगों के साथ मिलकर खुद भी 16 से 18 घंटे रोज काम करते थे।

यह तो कुछ भी नहीं है। आपको पता है गणेश शंकर विद्यार्थी और महाशय धर्मपाल गुलाटी में एक अनोखा नाता है। वो कैसे? किरण ग्रोवर ने बताया कि पहले पिताजी बाहर से मसाला पिसवाते थे, लेकिन मिलावट होने के चलते उन्होंने खुद कीर्ति नगर में मसाला पीसने का कार्य शुरू कर दिया। वे कभी भी गुणवत्ता के साथ समझौता नहीं करते थे। दिल्ली में आने के बाद मसाले के पैकेट बनाकर दिल्ली के साथ-साथ पंजाब भी भेजा जाता था। उन्होंने कहा कि मेरे पिताजी का दिमाग कारोबार में बहुत चलता था। 1958-59 में ही समाचार पत्र, विशेषक प्रताप पत्रिका में विज्ञापन देकर मसाले का प्रचार प्रसार करते थे और इसका खूब लाभ उन्हें मिला। 1965 में उन्होंने MDH का आधिकारिक पंजीकरण कराया, तद्पश्चात उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

‘तो क्या सपना पूरा हुआ?’

गुरु का यह संवाद धर्मपाल गुलाटी जी के जीवन की परिपाटी बन चुका था। उन्होंने असंभव को संभव कर दिया था, ठीक उसी समय, जब चोरवाड़ से एक धीरजलाल हीराचंद अंबानी कपड़ा उद्योग में अपने भाग्य को आजमाने आए थे और इतिहास ने उन्हें धीरुभाई अंबानी बनाकर ही दम लिया। सेवा परमों धर्म: उन्होंने मानो घोलकर पी लिया था।

महाशय जी का मसाले का कारोबार फलने-फूलने लगा और आज पूरे देश में एमडीएच की 22 फैक्ट्रियां हैं। साथ ही कई अन्य क्षेत्र में भी महाशय जी ने अपने व्यवसाय को आगे बढ़ाया। स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी एमडीएच ने काम किया। फिलहाल जनकपुरी में माता चनन देवी अस्पताल, माता लीलावंती लेबोरेटरी, एमडीएच न्यूरोसाइंस संस्थान नई दिल्ली, महाशय धर्मपाल एमडीएच आरोग्य मंदिर सेक्टर 76 फरीदाबाद, महाशय संजीव गुलाटी आरोग्य केंद्र ऋषिकेश, महाशय धर्मपाल हृदय संस्थान सी-1 जनकपुरी में है। 2019 में उनकी अद्वितीय सेवाओं के लिए उन्हें देश ने भारत के तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म भूषण से सम्मानित किया, और वे अंत में 97 वर्ष की आयु में हृदयगति के रुकने से दिसंबर 2020 में वैकुंठलोक के लिए चल पड़े।

परंतु प्रश्न तो अब भी उठता है – ये सनातनी व्यापार मॉडेल है क्या, जिसका उपयोग कर महाशय धर्मपाल गुलाटी ने इतना बड़ा उद्योग कैसे खड़ा किया? उदाहरण के लिए सांस्कृतिक मूल्यों से कोई समझौता नहीं होना चाहिए। अपने कर्मचारियों को कभी भी हीन नहीं समझें।

और पढ़ें- बृहदेश्वर मंदिर मानव इतिहास की उत्कृष्ट कलाओं में से एक क्यों है?

धरमपाल के चेहरे पर सदा रौनक रही

धरमपाल के चेहरे पर सदा एक अलग ही रौनक रही। वे इसका नुस्खा बताते थे हमेशा हंसते रहना। कहते थे ‘मैं कभी भी तनाव में नहीं रहता। बड़ी से बड़ी परेशानी झेली लेकिन माथे पर शिकन नहीं आने दी।’ यह ही अपने लोगों को सिखाता हूं। इसलिए पार्क में लाफ्टर क्लास लगती है। वहीं बोर्ड मीटिंग्स में भी अपने कर्मचारियों को हंसाता रहता हूं। इससे उनका भी फायदा होता है और मेरी भी एक्सरसाइज हो जाती है। वह कहते थे किसी को भी बैठे नहीं रहना चाहिए। जीवन में योग करते और चलते-फिरते रहना चाहिए। यह कोई अपना ले तो उसकी लाइफ सेट है।

इसके अतिरिक्त महाशय जी को लाइमलाइट में रहना पसंद था। पश्चिमी दिल्ली के कीर्ति इंडस्ट्रियल एरिया में उनके एमडीएच हाउस की दीवार का एक-एक इंच उनके मुस्कान भरे चेहरे से पटा पड़ा है। टीवी विज्ञापनों में उनका आना अचानक ही हुआ जब विज्ञापन में दुल्हन के पिता की भूमिका निभाने वाले ऐक्टर मौके पर नहीं पहुंचे। गुलाटी याद करते हैं, ‘जब डायरेक्टर ने कहा कि मैं ही पिता की भूमिका निभा दूं तो मुझे लगा कि इससे कुछ पैसा बच जाएगा तो मैंने हामी भर दी।’ उसके बाद मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। तब से गुलाटी एमडीएच के टीवी विज्ञापनों में हमेशा दिखते रहे, और ये अपने आप में इस ब्रांड का एक एक्स फैक्टर भी है– यहां इस ब्रांड को प्रोमोट करने के लिए कोई ‘स्टार’ आवश्यक नहीं, यहां ब्रांड ही अपने आप में स्टार है।

ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि MDH इस बात का परिचायक है कि विपत्ति तो जीवन का एक अभिन्न अंग है, अंतर बस इस बात से पड़ता है कि आप उस विपत्ति को अवसर में परिवर्तित करते हैं कि उस विपत्ति का दुखड़ा रोते हैं। महाशय धर्मपाल गुलाटी ने अपने पूर्वजों के रीतियों का अनुसरण करते हुए उस विपत्ति को अवसर में बदला और आज भारत एक फलते-फूलते मसाला उद्योग से गौरवान्वित है। आज धर्मपाल जी जहां भी होंगे, गर्व से फूले नहीं समा रहे होंगे।

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