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हरा कुर्ता पहनकर, सुरमा लगाकर तैयार था ज़ुबैर, फिर हुआ नोबेल पुरस्कार का ऐलान

मोहम्मद ज़ुबैर और प्रतीक सिन्हा किस तरह से नोबेल पुरस्कार के लिए तैयार थे- नहीं मिलने पर क्या था दोनों का रिएक्शन! एक व्यंगात्मक लेख।

Chaman Kumar Mishra द्वारा Chaman Kumar Mishra
7 October 2022
in व्यंग
This is how Mohammad Zubair & Pratik Sinha were ready for the Nobel peace prize

Source: Google

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Zubair Nobel Peace Prize: विश्व के सबसे बड़े तथाकथित फैक्ट-चेकर मोहम्मद ज़ुबैर (Zubair) और उसका साथी प्रतीक सिन्हा नोबेल शांति पुरस्कार (Nobel Peace Prize) लेने के लिए तैयार है। ज़ुबैर ने आज हरे रंग का कुर्ता और सफेद रंग का पाजामा सिलवाया है। साथ ही साथ एक सफेद जालीदार टोपी भी खरीदी है। ज़ुबैर ने सोचा है कि आज वो दुनिया को दिखा देगा कि वो क्या चीज़ है। आख़िरकार, उसे नोबेल पुरस्कार मिल रहा है- कोई मज़ाक थोड़ी है। नोबेल शांति पुरस्कार- आह! दुनिया का सबसे बड़ा पुरस्कार। ख़ुशी से झूम रहा है ज़ुबैर। तैयार होते-होते प्रतीक को फोन कर लेता है।

“प्रतीक भाईजान, क्या पहन रहे हो तुम?”

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“मैं तो पेट-शर्ट पहन रहा हूं।”

“तुम यही पहनना हमेशा। आज कुछ नया पहनो। एकदम नया। कुछ हरे रंग का पहनो, जिससे कि संदेश जाए कि हम कितने ज्यादा सेक्युलर हैं। मैं भी हरा पहन रहा हूं। हम कोई ऐरे-गैरे थोड़ी हैं, फैक्टर चेकर हैं।”

“ठीक है ज़ुबैर पहन लेता हूं, हरे रंग का कुर्ता।”

“ठीक है”, बोलकर मोहम्मद ज़ुबैर ने फोन रख दिया। फिर से अपने आप को शीशे में देखने लगा। ‘वाह! क्या लग रहा हूं मैं- टोपी भी लगा लूं? नहीं, नहीं, अभी जेल थोड़ी जा रहा हूं। टोपी नहीं लगाऊंगा, अपनी जुल्फें दिखाऊंगा। आज नोबेल पुरस्कार मिलेगा- कोई छोटी बात है क्या! कुछ कम पड़ रहा है, कुछ तो है जो मैं भूल रहा हूं।’ ज़ुबैर खड़े होकर सोचने लगता है। सोचते-सोचते, एक और फ़ेक ट्वीट कर देता है। ट्वीट पर इस्लामिस्ट और वामपंथी- आह! आह! करने लगे। ‘ओह! ज़ुबैर, तुमने क्या ट्वीट किया है। ओह! ज़ुबैर तुम्हारा दिमाग एलियन जैसा है। ओह! ज़ुबैर तुम पर कितना अत्याचार किया गया है।’

और पढ़ें: मोहम्मद ज़ुबैर पर शेखर गुप्ता ने की ‘मन की बात’, लिबरलों ने ‘गुप्ता जी’ की लंका लगा दी

ज़ुबैर, शीशे के सामने खड़ा होकर सुरमा लगा रहा है। आखों के नीचे पतला-पतला सुरमा। अब हुआ काम पूरा। एक ट्वीट और कर देता हूं। ज़ुबैर, एक और ट्वीट कर देता है। ट्वीटर पर फिर से लिबरल आह! आह! करने लगते हैं।

अब चलते हैं बाहर। नोबेल पुरस्कार का ऐलान होने ही वाला है। प्रतीक को वीडियो कॉल कर लेता हूं।

“प्रतीक भाई, वाह! वाह! क्या कुर्ता पहना है। आपका तो पाजामा भी हरा है। वाह! वाह! मज़ा आ गया। तैयार हो अब आप- हमें मिलने जा रहा है नोबेल शांति पुरस्कार।”

“हाहाहा, प्रतीक दांत फाड़ देता है।”

“नोबेल का आधिकारिक ट्वीटर अकाउंट रिफ्रेश करते रहो। किसी भी वक्त नाम का ऐलान हो सकता है।”

“अरे! ज़ुबैर जी, हमें ही मिलेंगा- चिंता मत करो।”

“हमें कोई चिंता नहीं हैं, अल्लाह मियां की मेहरबानी है सब। मैंने तो जमकर फैक्ट चेक किया है। बहुत काम किया है।”

“हाहाहाहा…प्रतीक हंसने लगता है।”

“अरे हंस क्यों रहे हैं तुम?”

“अरे! अभी आप इंटरव्यू नहीं दे रहे हैं- अभी इतना ज्यादा क्यों झूठ बोल रहे हैं।”

“तुम रिफ्रेश करो। मैंने जो किया है, उसी वज़ह से तुम्हें मिल रहा है। नहीं तो है ही क्या तुम्हारे पास? बाल भी…चलिए छोड़ देते हैं। रिफ्रेश कीजिए।”

“जी, ज़ुबैर जी!” कहकर प्रतीक रिफ्रेश करने लगता है। ज़ुबैर अपनी टोपी को सही करना लगता है। जेब से कंघी निकालकर अपने बालों को फिर से बनाने लगता है। प्रतीक, मुड़कर ज़ुबैर की तरफ देखने लगता है। ज़ुबैर तेज़ आवाज़ में कहता है। “ऐ प्रतीक! रिफ्रेश करके देखते रहो। मुझे मत देखो। टाइम मैग्जीन ने बोला है कि मुझे मिल रहा है। समझे। टाइम, कभी झूठ नहीं बोलती।”

और पढ़ें: मोहम्मद ज़ुबैर के बाद अब उसका ‘मालिक’ प्रतीक सिन्हा भी लंबा जाने वाला है

ज़ुबैर, इतना बोलकर अपनी जेब से रुमाल निकालकर कंधों पर डाल लेता है। स्वयं को शीशे में देखकर ‘टाइगर’ का सलमान खान बनने लगता है। प्रतीक फिर से ज़ुबैर को देखता है।

“ऐ प्रतीक! रिफ्रेश करो।”

“जी! ज़ुबैर जी!”

उधर दूसरी तरफ, सायमाओ, आरफाओं, स्वराओं और अय्यूबों की भावनाएं रुकने का नाम नहीं ले रहीं। ‘ओह! मेरे ज़ुबैर (Zubair) को नोबेल पुरस्कार (Nobel Peace Prize) मिल रहा है।’ सभी की सभी ट्विटियाने पर लगी हैं। ज़ुबैर को जब पुरस्कार मिल जाएगा, उसके बाद कितने ट्वीट करने हैं- क्या-क्या लिखना है, सब तैयार है।

ज़ुबैर सुरमा लगाकर ‘टाइगर’ बनने पर लगा है। प्रतीक सिन्हा, रिफ्रेश करने पर लगे हैं। अंतत: वो पल आ ही गया। नोबेल शांति पुरस्कार का ऐलान हो गया।

बेलारुस के मानवाधिकार कार्यकर्ता एलेस बियालियात्स्की (Ales Bialiatski)  के अलावा दो संस्थाओं मेमोरियल  (Memorial) और सेंटर फॉर सिविल लिबर्टीज़ (Center for civil Liberties)  को संयुक्त रुप से पुरस्कार दिया गया है।

रिफ्रेश करते-करते प्रतीक की नज़र इस पर पड़ ही गई। “ज़ुबैर, ओ ज़ुबैर!” प्रतीक की आवाज़ नहीं निकल रही, लेकिन प्रतीक बोल रहा है। तब तक ज़ुबैर पूरा ‘टाइगर’ बनकर आ चुका था।

“हो गया ऐलान”, प्रतीक ने कहा।

“बहुत-बहुत शुक्रिया प्रतीक।” सल्लू बना ज़ुबैर बोला।

“अरे! किसी और को मिला है।”

“क्या बकते हो- किसे मिला है?”

“कोई मानवाधिकार कार्यकर्ता है।”

“अरे, दिखाओ मुझे। अरे यह तो मोदी भक्त एजेंसी ने डाला है। इसका फैक्ट चेक करते हैं।” प्रतीक के मुंह से वही निकल गया जो ज़ुबैर वास्तव में है। ….का फैक्ट चेक। ‘नहीं मिला हमें।’ ज़ुबैर समझ गया। नहीं मिला। ज़ुबैर, दोबारा शीशे के सामने पहुंचा। आंखों से सुरमे को पोंछा। सिर पर काली टोपी लगाई।

और पढ़ें: ‘मैं गरीब मुसलमान हूं’ राणा अय्यूब 2.0 बन गया है मोहम्मद जुबैर

“हमने कोई कमी छोड़ी थी, हमने सबकुछ किया। अरबी में अनुवाद किया। हिंदी से अंग्रेजी, अंग्रेजी से अरबी। इतना आसान नहीं होता है। दिन-दिनभर बैठकर विदेशों में भारत के विरुद्ध नफरत फैलाई। इतने विदेशियों के ट्वीट, रिट्वीट किए। क्या-क्या नहीं किया? इसके बाद भी नहीं मिला। बताओ, आप बताओ प्रतीक भाई अब और क्या करें?” उधर से कोई जवाब नहीं आया। प्रतीक, वीडियो कॉल कट करके जा चुका है। ज़ुबैर, दोबारा से ट्वीट करने लगता है।

 

चेतावनी: यह एक कल्पनात्मक और व्यंग्यात्मक स्टोरी है। हमारा ध्येय किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति, धर्म, समुदाय की भावनाओं को आहत करने का नहीं है। इसके बाद भी अगर किसी की भावनाएं आहत होती हैं- तो उसे हादसा समझा जाना चाहिए। इसके लिए TFI बिल्कुल भी जिम्मेदार नहीं होगा।

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Tags: Ales BialiatskiMohammad ZubairNobel Peace PrizePratik Sinha
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