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“जिस शख्स ने भारतीय सिनेमा को प्राण दिए”, वी शांताराम की कहानी

सिद्धांतों से समझौता न करने वाला फिल्म निर्माता

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
30 October 2022
in चलचित्र
वी शांताराम
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नाट्यशास्त्र, कथावाचन, ये ऐसे शब्द हैं जो अपने आप में एक अद्भुत, अनंत संसार समेटे हुए हैं। इनमें इतनी कथाएं हैं जिनका एक तिनका भी अगर श्रद्धा से चित्रित करो तो इतिहास आपको युगों युगों तक स्मरण रखेगा। कहते हैं कि अच्छा भोजन पकाना एवं लोगों को हंसाना संसार में सबसे कठिन है। परंतु सबसे कठिन है, एक अच्छी कथा को चलचित्र में रूपांतरित करके उसे सिल्वर स्क्रीन पर प्रदर्शित करना। वी शांताराम उन चंद कलाकारों में थे, जो इस उत्कृष्ट कला में निपुण थे, और जो भारतीय सिनेमा के ‘स्वर्णिम युग’ के साक्षी थे।

एक समय जब भारतीय सिनेमा का प्रभुत्व पाश्चात्य जगत भी मानता था, चाहे अमेरिका हो या सोवियत संघ। उसका एक प्रमुख कारण वी शांताराम जैसे कुशल फिल्मकार भी थे। आज जिस जगह पर पुणे का चर्चित FTII (Film and Television Institute of India) बना है, वहां पर कभी इनका विश्वप्रसिद्ध प्रभात फिल्म कम्पनी चलती थी जिसके सिंहनाद से सम्पूर्ण जगत कंपयमान हो सकता था। हो भी क्यों न, एशिया के सबसे बड़े स्टूडियोज़ में ये सम्मिलित था।

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ऐसे सीखी थी फिल्मों की बारिकियां

परंतु ऐसे ही थे। वनकुदरे राजाराम शांताराम। महाराष्ट्र के कोल्हापुर में 18 नवंबर 1901 को एक जैन परिवार में जन्मे शांताराम जी ने बाबूराव पेंटर की महाराष्ट्र फ़िल्म कम्पनी में छोटे-मोटे काम से अपनी शुरुआत की थी। शांताराम ने नाममात्र की शिक्षा पायी थी। उन्होंने 12 साल की उम्र में रेलवे वर्कशाप में अप्रेंटिस के रूप में काम किया था। कुछ समय बाद वह एक नाटक मंडली में शामिल हो गए।

शांताराम ने फ़िल्मों की बारीकियां बाबूराव पेंटर से सीखीं। बाबूराव पेंटर ने उन्हें ‘सवकारी पाश’ (1925) में किसान की भूमिका भी दी। तद्पश्चात वी शांताराम ने फ़िल्म निर्माण की कार्यकुशलता सीखते हुए इस क्षेत्र में कदम रखा और उनकी प्रथम फिल्म बतौर निर्देशक ‘नेताजी पालकर’ थी।

परंतु संतुष्ट होना इनके व्यक्तित्व में नहीं था। इसके बाद उन्होंने वी.जी. दामले, के. आर. धाईबर, एम. फतेलाल और एस. बी. कुलकर्णी के साथ मिलकर ‘प्रभात फ़िल्म’ कंपनी का गठन किया। अपने गुरु बाबूराव की ही तरह शांताराम ने शुरुआत में पौराणिक तथा ऐतिहासिक विषयों पर फ़िल्में बनाईं। लेकिन बाद में जर्मनी की यात्रा से उन्हें एक फ़िल्मकार के तौर पर नई दृष्टि मिली और उन्होंने 1934 में ‘अमृत मंथन’ फ़िल्म का निर्माण किया। शांताराम ने अपने लंबे फ़िल्मी सफर में कई उम्दा फ़िल्में बनाईं और उन्होंने मनोरंजन के साथ संदेश को हमेशा प्राथमिकता दी।

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वी. शांताराम द्वारा निर्देशित फ़िल्में

इसके अतिरिक्त गीत और संगीत शांताराम की फ़िल्मों का एक और मज़बूत पक्ष होता था। एक फ़िल्मकार के रूप में वह अपनी फ़िल्मों के संगीत पर विशेष ध्यान देते और उनका ज़ोर इस बात पर रहता कि गानों के बोल आसान और गुनगुनाने योग्य हो। शांताराम की फ़िल्मों में रंगमंच का पुट ज़रूर नज़र आता था, लेकिन वह अपनी फ़िल्मों से समाज को एक नई दृष्टि देने में कामयाब रहे। हर फ़िल्म अपने वक़्त की कहानी बयां करती है, लेकिन उन्हें लगता है कि अब शांताराम की ‘पड़ोसी’ (1940) और ‘दो आंखें बारह हाथ’ जैसी जीवंत फ़िल्में दोबारा नहीं बनाई जा सकतीं। शांताराम की कुछ कृतियों की गुणवत्ता का मुक़ाबला आज भी नहीं किया जा सकता। क़रीब छह दशक लंबे अपने फ़िल्मी सफर में शांताराम ने हिन्दी व मराठी भाषा में कई सामाजिक एवं उद्देश्यपरक फ़िल्में बनाई और समाज में चली आ रही कुरीतियों पर चोट की।

उन्होंने 1933 में पहली रंगीन फ़िल्म ‘सैरंध्री’ बनाई। भारत में एनिमेशन का इस्तेमाल करने वाले भी वह पहले फ़िल्मकार थे। वर्ष 1935 में प्रदर्शित हुई फ़िल्म ‘जंबू काका’ (1935) में उन्होंने एनिमेशन का इस्तेमाल किया था। उनकी फ़िल्म ‘डॉ.कोटनिस की अमर कहानी’ विदेश में दिखाई जाने वाली पहली भारतीय फ़िल्म थी।

शांताराम ने प्रभात फ़िल्म के लिए तीन बेहद शानदार फ़िल्में बनाई। उन्होंने 1937 में करुकू (हिन्दी में दुनिया ना माने), 1939 में मानुष (हिन्दी में आदमी) और 1941 में शेजारी (हिन्दी में पड़ोसी) बनाई। इसी बीच उनकी कंपनी द्वारा निर्मित ‘संत तुकाराम’ ने विश्वप्रसिद्ध बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में तहलका मचा दिया और सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार भी अर्जित किया।

तद्पश्चात शांताराम ने बाद में प्रभात फ़िल्म को छोड़कर राजकमल कला मंदिर का निर्माण किया। इसके लिए उन्होंने ‘शकुंतला’ फ़िल्म बनाई। इसका 1947 में कनाडा की राष्ट्रीय प्रदर्शनी में प्रदर्शन किया गया। शांताराम की बेहतरीन फ़िल्मों में से एक है ‘डॉ.कोटनिस की अमर कहानी’। यह एक देशभक्त डॉक्टर द्वारकानाथ कोटनिस की सच्ची कहानी पर आधारित है जो सद्भावना मिशन पर चीन गए चिकित्सकों के एक दल का सदस्य था और Sino Japanese War के समय चीनियों की निश्छल सेवा करते करते वे वीरगति को प्राप्त हुए।

वी शांताराम एक चलते-फिरते संस्थान थे, जिन्होंने फ़िल्म जगत में बहुत सम्मान हासिल किया। फ़िल्म निर्माण की उनकी तकनीक और उनके जैसी दृष्टि आज के निर्देशकों में कम ही नज़र आती है। उन्हें वर्ष 1957 में झनक-झनक पायल बाजे के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फ़िल्मफेयर पुरस्कार दिया गया था। ये प्रथम ऐसी फिल्म थी, जो भारत में टेकनीकलर पद्वति से बनी थी। उनकी कालजयी फ़िल्म दो आंखें बारह हाथ के लिए सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार प्रदान किया गया। इस फ़िल्म ने बर्लिन फ़िल्म समारोह और गोल्डन ग्लोब अवॉर्ड में भी झंडे गाड़े। अन्नासाहब के नाम से मशहूर शांताराम को वर्ष 1985 में भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े पुरस्कार दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

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जब बेटी को ही शांताराम ने फिल्म से निकाल दिया था

अब वी शांताराम जितने अतरंगी ऑनस्क्रीन थे, उतने ही ऑफस्क्रीन भी। बंधु ने स्वयं को अनुशासन में ऐसा बांधा कि आदर्शों पर आंच न आए इसलिए अपनी बेटी को भी नहीं छोड़ा। आज के समय में फिल्मी दुनिया में अपनों को जिस तरह से प्रमोट किया जाता है उनके लिए शांताराम जैसे दिग्गज फिल्मकारों का जीवन एक तमाचा समान होता।

इतना ही नहीं, वी शांताराम कास्टिंग में भी अपने धुन के पक्के थे। शांताराम ने 1967 में एक फिल्म बनाई थी ‘बूंद जो बन गई मोती’। इस फिल्म में जितेंद्र को लीड रोल में लिया था, लेकिन कम लोगों को पता होगा कि इस फिल्म में पहले लीड एक्ट्रेस मुमताज नहीं बल्कि शांताराम की बेटी राजश्री थीं। कहते हैं कि प्रारंभ में शांताराम की बेटी राजश्री ही प्रमुख एक्ट्रेस थी, परंतु वह शूटिंग सेट पर पहले ही दिन देर से पहुंची। क्रोध से तमतमाए फिल्ममेकर ने अपनी बेटी को ही फिल्म से बाहर कर दिया और उनकी जगह मुमताज को कास्ट कर लिया। उस समय मुमताज छोटे-मोटे रोल करने वाली बी ग्रेड की एक्ट्रेस मानी जाती थीं। जितेंद्र उनके साथ काम नहीं करना चाहते थे लेकिन शांताराम के सामने किसकी चलती। बाद में यही मुमताज हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की पॉपुलर एक्ट्रेस बन गईं।

परंतु 1980 आते आते पहले सलीम जावेद और फिर इंडस्ट्री के इस्लामीकरण ने वी शांताराम की लोकप्रियता कम होने लगी। इन्हें चाहकर भी दर्शक नहीं मिले और अन्त में 1990 में इनका देहांत हो गया। आज भारतीय पुनः बहुभाषीय सिनेमा की ओर अग्रसर हो रहा है, जहां संस्कृति सर्वोपरि है। काश वी शांताराम इस सांस्कृतिक प्रगति को देखने हेतु जीवित होते।

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The Truth Behind Infiltration, Political Appeasement, and the Battle for Identity.

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