हां हां, ज्ञात है, 2 अक्टूबर को बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी का जन्मदिन मनाया जाता है, परंतु 2 अक्टूबर को एक ऐसे व्यक्ति का भी जन्मदिवस है जिन्होंने अपने प्रधानमंत्री के कार्यकाल में विपरीत परिस्थितियों में असंभव को भी संभव कर दिया, पराजित दांवों में भी विजय प्राप्त की और जहां हम कश्मीर हारने के मुहाने पर आ पहुंचे थे, वहां ये इस स्थिति पर थे कि न केवल POK, अपितु लाहौर और सियालकोट को पुनः अपना बनाने की दिशा में आगे बढ़ने वाले थे। परंतु समय ने विचित्र करवट ली और 11 जनवरी 1966 को ताशकंद में एक साधारण से परिवेश से आने वाले ‘नन्हे’, जो अब भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री थे, रहस्यमयी परिस्थतियों में मृत्युलोक को चल दिए।
इस लेख में हम कुछ प्रश्नों के उत्तर तलाशेंगे जिन्हें देने या समझने का साहस न तब किसी में था, न आज किसी में है और जिनका संबंध पूर्ण रूप से लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमयी मृत्यु से है।
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बहुत देर हो चुकी थी
11 जनवरी 1966, सदैव की भांति सबको अपने हंसमुख स्वभाव के साथ सोने के लिए आश्वासन देते हुए शास्त्री जी अपने कक्ष में गए। अचानक डेढ़ बजे वे जोर-जोर से खांसने लगे। डॉक्टर आर एन चुग को बुलाया और उन्हें आभास होने लगा कि कुछ भीषण दिक्कत है, परंतु इससे पूर्व कि वे कुछ कर पाते, बहुत देर हो चुकी थी।
अब वर्ष 1965 के युद्ध के बाद भारत ने कश्मीर में जितने हिस्से पाकिस्तान के हाथों गंवाए थे, उसका 3 गुना हिस्सा भारतीय सेना ने पाकिस्तानी पंजाब में जीत लिया था। किंतु भारत में समझौते के समय अपनी सैन्य उपलब्धि का सही प्रयोग नहीं किया। भारत सरकार चाहती तो पाकिस्तान पर दबाव बनाकर न्यू वार क्लॉज पर पाकिस्तान को सहमत कर सकती थी, अर्थात् पाकिस्तान यह स्वीकार करता कि वह कभी भी युद्ध का पहल नहीं करेगा। गौरतलब है कि भारत के लिए कश्मीर का जितना सामरिक और आर्थिक महत्व है, उससे बहुत अधिक महत्व पाकिस्तानी पंजाब का पाकिस्तान के लिए है। ऐसे में भारत चाहता, तो इस बात पर अड़ सकता था कि पाकिस्तान पाक अधिकृत कश्मीर को खाली करे, तभी उसे पाकिस्तानी पंजाब के हिस्से वापस मिलेंगे। किन्तु भारत कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल नहीं कर सका।
ध्यान देने वाली बात है कि निश्चित रूप से लाल बहादुर शास्त्री ने बहुत विपरीत परिस्थितियों में भारत का नेतृत्व किया था। उस समय पाकिस्तान के पास अमेरिका जैसा सहयोगी था, जबकि भारत कूटनीतिक स्तर पर अकेले खड़ा था। नेहरू अपने पूरे शासन में सोवियत रूस के प्रवक्ता बने रहे, किंतु सोवियत रूस ने वर्ष 1965 में कूटनीतिक स्तर पर भारत की कोई सहायता नहीं की। दूसरी ओर चीन को पाकिस्तान का सहयोग भी प्राप्त था। ऐसे में लाल बहादुर शास्त्री अत्यधिक दबाव में निर्णय ले रहे थे। संभवत: यही कारण था कि भारत ने अपनी सैन्य उपलब्धि को कॉन्फ्रेंस टेबल पर अपनी पराजय में स्वयं ही बदल दिया!
तो फिर ऐसा क्या हुआ कि शांति समझौते के पश्चात भी लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमयी परिस्थतियों में ताशकंद में मृत्यु हुई? आखिर उनकी मृत्यु से किसी को क्या लाभ मिलता? इस बारे में अनुज धर ने अपने पुस्तक ‘Your Prime Minister is Dead’ में गहन विश्लेषण किया है, और इसके अतिरिक्त TFI Post पर भी इस विषय पर काफी चर्चा की गई है।
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शास्त्री जी की मृत्यु से किसको हो सकता था लाभ?
लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु से तब कई पक्षों को लाभ मिल सकता है, पर निम्न प्रमुख हैं –
- सोवियत संघ
- पाकिस्तान
- इंदिरा गांधी
- CIA
अब किसी भी व्यक्ति को मारने के लिए आपके पास उद्देश्य होना चाहिए, संकल्प होना चाहिए, एवं उस संकल्प की पूर्ति हेतु एक प्लान होना चाहिए, जो किसी भी स्थिति में फेल न हो। तो प्रथमत्या बात की जाए सोवियत संघ की, जिन पर आरोप लगा सकते हैं कि उन्होंने कथित तौर पर लाल बहादुर शास्त्री की हत्या की।
वो कैसे? शास्त्री जी के पोस्टमॉर्टम के पश्चात उनके शरीर पर कुछ अजीबोगरीब कट्स थे, जिनकी कभी जांच पड़ताल नहीं हुई थी और ये बात अनुज धर की पुस्तक में भी बताई गई। इतना ही नहीं, रूसी इंटेलिजेंस संस्था KGB ने शास्त्री जी की रहस्यमयी मृत्यु के पश्चात जिस डाचा यानी भवन में वे रुके थे, उसके कुछ स्टाफ को हिरासत में भी लिया था और उनसे पूछताछ भी की थी, जिसकी पुष्टि ‘Mitrokhin Archives’ में भी की जाती है –
परंतु यह सुनने में जितना रोचक प्रतीत होता है, उतना ही अजीब और हास्यास्पद भी है। भला सोवियत संघ को अपने ही मंच पर, अपने ही देश में किसी अन्य राष्ट्राध्यक्ष को मारके क्या प्राप्त होगा? उन्हें इससे क्या मिलेगा? वैसे कम्युनिस्ट तो किसी के सगे नहीं होते, परंतु अगर वास्तव में उन्हें ये करना भी होता तो यह अपने पैर में कुल्हाड़ी मारने के समान होता।
अब आते हैं दूसरे संदिग्ध यानी पाकिस्तान पर, इनके पास उद्देश्य तो अवश्य था– 1965 में पराजय का। इन्हें कश्मीर भी चाहिए था, संभवत भारत की पराजय भी, ऐसे में प्रयास तो खूब किए गए थे। ऑपरेशन जिब्राल्टर, स्मरण है न बंधुओं?
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न माया मिली न राम
पर अंत में न माया मिली न राम, और अगर इन्होंने अपने अब्बू अमरीका के सामने भीख न मांगी होती, तो शास्त्री जी के नेतृत्व में भारत में लाहौर और सियालकोट को पुनः सम्मिलित करा लिया गया होता। हाजी पीर पास जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र तक भारत के नियंत्रण में थे और POK अब बस एक कदम की दूरी पर था। परंतु इनका भी रूस वाला हिसाब था, यहां वे अगर प्रयास भी करते तो मुंह की खाते।
अब आते हैं तीसरे, और सबसे महत्वपूर्ण संदिग्धों में से एक पर, इंदिरा प्रियदर्शिनी गांधी। इनके पास मोटिव भी था, दिमाग भी, एवं एक संकल्प भी। कारण – प्रधानमंत्री केवल एक पद नहीं, मुगलिया सल्तनत की भांति इनकी बपौती समान थी, जिस पर लालबहादुर शास्त्री जैसे कुशल शासक इनके लिए रोड़ा समान थे।
इंदिरा गांधी का कहना था कि वे प्रधानमंत्री बनने को इच्छुक नहीं थी, परंतु वास्तव में कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष के कामराज कहीं न कहीं समझ गए थे कि वे वंशवाद की विषबेल को बढ़ावा दे सकती हैं, ऐसे में उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री को चुना। लाल बहादुर शास्त्री ने उन्हें मंत्रालय में अवश्य रखा, परंतु उनके अधिकार, उनका कद ऐसा था मानो वो कुछ हैं ही नहीं और ये इंदिरा गांधी के लिए असहनीय था, जो कि बड़े लालन पालन और विलासिता से पली बढ़ी थीं।
इसके अतिरिक्त जब 1965 का युद्ध हुआ, तो वो समय लाल बहादुर शास्त्री के लिए किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं था। परंतु वे उसमें विजयी सिद्ध हुए थे और ये इंदिरा गांधी के लिए कोढ़ में खाज समान था। ऐसे में यदि इतना लोकप्रिय व्यक्ति उनके रास्ते से हट जाए तो क्या वो नहीं चाहेंगी? परंतु यहां भी एक समस्या थी, यदि इंदिरा गांधी वास्तव में लाल बहादुर शास्त्री की हत्या की दोषी होतीं तो उनके पास इतने मजबूत कनेक्शन होने चाहिए थे कि वे सोवियत संघ में अपने किसी महत्वपूर्ण ‘कनेक्शन’ से कार्य करवा सके और किसी को कानों कान पता भी न चले।
परंतु एक कनेक्शन ऐसा भी है, जिससे इंदिरा गांधी भले ही पूर्ण रूप से दोषी न सिद्ध हों, परंतु एक स्ट्रॉन्ग accused तो अवश्य प्रतीत होती हैं। वह कनेक्शन है एक व्यक्ति, नाम– नेताजी सुभाष चंद्र बोस। सबका मानना था कि नेताजी एक प्लेन दुर्घटना में मारे गए थे, कुछ लोगों को छोड़कर। इन्हीं कुछ में एक नाम था लाल बहादुर शास्त्री। उन्हें भी इस बात पर विश्वास नहीं था कि नेताजी की प्लेन दुर्घटना में मृत्यु हुई है, वे इस बात की सम्पूर्ण जांच पड़ताल करना चाहते थे। खोसला कमीशन में दिए बयान के अनुसार पूर्व कांग्रेस नेता जगदीश कोडेसिया ने बताया कि यदि शास्त्री जी अपनी योजना में सफल हो जाते, तो सम्पूर्ण नेहरू गांधी परिवार को भारतीय राजनीति से उखाड़कर फेंक दिया जाता।
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सबसे महत्वपूर्ण संदिग्ध
अब आते हैं चौथे और सबसे महत्वपूर्ण संदिग्ध पर – सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी, जिसको हम जानते हैं CIA के नाम से। आज इसकी औकात धेले भर की भी नहीं होगी है, लेकिन एक समय वो भी था जब इसके इशारे पर संसार नाचता था, और कोई चूं तक नहीं कर सकता था।
तो इनका लाल बहादुर शास्त्री से क्या संबंध? भूल गए लाहौर की चौखट? बंधुवर, लाहौर में अमेरिकी कॉनसुलेट भी था, और सोचिए, अगर हम लाहौर और सियालकोट में विजयी होते, तो? जो कंबल कुटाई इनके येंकी नमूनों की चावल उगाने वाले वियतनामियों ने 1970 के प्रारम्भिक दशक में कीं, उससे कहीं पूर्व हम ही कर देते, जबकि हमारे पास न खाने को रोटी थी, न पहनने को ढंग के कपड़े, और इसके दोषी भी यही अमेरिकी ही थे।
अब अमेरिका को लगा, जिसके साथ हमने ये व्यवहार किया वो ऐसे परिस्थितियों में हमें ये कर सकता है, तो फिर इसका नेता यदि लंबे समय तक टिक गया, तो हमारा क्या करेगा?
अब इस घटना पर ध्यान दीजिए। 24 जनवरी 1966 की सुबह लगभग 7:02 बजे, बॉम्बे से न्यूयॉर्क जाने वाली एयर इंडिया की फ्लाइट आल्प्स पर्वत के मोंट ब्लांक में दुर्घटनाग्रस्त हो गई, जिसमें सवार सभी 117 यात्रियों की मौत हो गई थी। ‘कंचनजंगा’ नाम के इस बोइंग-707 पर सवार यात्रियों में से एक भारत के अग्रणी परमाणु वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा भी थे। उस दौरान वह सिर्फ 56 वर्ष के थे। दुर्घटना का आधिकारिक कारण विमान और जिनेवा हवाई अड्डे के बीच गलत संचार बताया गया था। हालांकि, आज भी यह दुर्घटना संदेहास्पद है तथा कई ऐसे संकेत मिलते हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA की एक साजिश थी, जिससे भारत परमाणु शक्ति न बन पाए। तो समझ गए कहां तक जाती हैं इनकी खुराफाती सोच?
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अमेरिका को थी भारी समस्या
यही नहीं, साल 2008, में एक वेबसाइट ने एक पत्रकार ग्रेगरी डगलस और सीईआए अफसर रॉबर्ट क्रॉली के बीच हुई एक बातचीत प्रकाशित की। इस बातचीत में क्रॉली कह रहे थे कि भारत ने 60 के दशक में परमाणु बम पर काम शुरू कर दिया था, जो अमेरिका के लिए समस्या थी। ‘Conversation with crow’ में सीआईए अधिकारी के हवाले से कहा गया था कि “भारत 60 के दशक में जब उठा और परमाणु बम पर काम शुरू किया जो हमारे लिए समस्या थी।” रॉबर्ट के मुताबिक भारत ये सब रूस की मदद से कर रहा था। होमी भाभा का जिक्र करते हुए सीआईए अधिकारी ने कहा था कि ‘वह खतरनाक थे, मेरा विश्वास करो। होमी भाभा के साथ एक दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना हुई थी। वह और अधिक परेशानी पैदा करने के लिए विएना जा रहे थे, जब उनके बोइंग 707 में कार्गो होल्ड में एक बम फट गया।’
यह वास्तविकता है कि भारत-चीन युद्ध के बाद, भारत ने परमाणु हथियारों के लिए और अधिक आक्रामक तरीके से जोर देना शुरू कर दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने परमाणु हथियारों को बढ़ावा देने के लिए भाभा के विचारों पर सहमति प्रकट की थी। परंतु, इसी बीच 1966 में ही ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर करने के एक दिन बाद प्रधानमंत्री शास्त्री, 11 जनवरी को परलोक सिधार गए। उनकी मौत को लेकर भी कई तरह के सवाल खड़े हुए थे। तो फिर क्या अमेरिका ने भारत को आगे बढ़ने से रोकने के लिए लाल बहादुर शास्त्री और होमी भाभा को निपटाया?
हालांकि, इस बारे में किसी ने भी अच्छे से प्रकाश नहीं डाला। यहां तक कि जिस ‘ताशकंद फाइल्स’ के बारे में इतना ढिंढोरा पीटा गया था, उसने भी इसे निष्पक्षता से चित्रित नहीं किया गया अपितु इंदिरा गांधी पर ही सारा दोष डाल दिया गया, जबकि इंदिरा गांधी संदिग्ध है, असल दोषी नहीं। असल दोषी कौन है, ये तो केवल उस डाचा की दीवारें, लाल बहादुर शास्त्री और डॉक्टर आर एन चुग जानते हैं, और दुरभाग्यवश अब तीनों नहीं बोल सकते।
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